पटना: नीतीश जी (Chief Minister Nitish Kumar) आप के सुशासन वाली व्यवस्था में 'दो बिहार' (Two Face Of Bihar) है. एक बिहार जो राजनीति के लिए सड़कों पर सरपट दौड़ रहा है, बयानों में है. बिहार में जैसे कुछ ऐसा नहीं है जो सियासत में ना हो, लेकिन एक 'बिहार' ऐसा भी है जो जिंदगी जीने की इबादत कर रहा है. एक ऐसा 'बिहार' (Bihar Flood) जिसकी पूरी व्यवस्था ही बेपटरी हो गई है. सड़क पानी में, अस्पताल पानी में, खाने पीने की हर व्यवस्था पानी में, खून पसीने की कमाई से बनाया गया आशियाना भी पानी में है. यहां जिंदगी पानी पर तैर रही है. उस 'बिहार' को देखने वाला कोई नहीं है.
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हां, एक 'दूसरा बिहार' जरूर है जिसमें सियासत की एक चमक और वादों की लंबी फेहरिस्त है. इन वादों को या तो सड़क पर आ कर बताया जा रहा है या हवाई जहाज मैं उड़कर देखी जा रही है. इस 'दो बिहार' में पहला 'बिहार' तो सियासतदानों का है और 'दूसरा बिहार' उन अरमानों का, जिन लोगों ने अपनी हर व्यवस्था को जीने लायक बनाने के उद्देश्य से निगरानी के लिए सत्ता देकर सरकार बनाई थी.
अगर बिहार सरकार के सरकारी आंकड़ों को ही मान लें तो बिहार के 26 जिले बाढ़ की चपेट में है. जिंदगी पानी पर तैर रही है. जान बचाने के लिए जिंदगी जद्दोजहद कर रही है, ताकि 'जिंदगी का पानी' बच जाए. सवाल यह है कि इतनी बड़ी विभीषिका जो बिहार में प्रलय बाढ़ के रूप में खड़ी है. उसके निदान का क्या होगा? चमचमाती सड़कों को बयानों का आधार बनाकर गाड़ियों में उड़ने वाले नेताओं का बिहार. उन लोगों के लिए कब अच्छे दिन दे पाएंगे जिनकी पूरी जिंदगी नर्क बन गई है? जिनका आशियाना भी नाव है, जिंदगी का हर फसाना भी नाव है. जीने के लिए हर सांस का मजमून और उसकी आशा भी नाव है.
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अब जिसकी कल्पना कर लीजिए एक बिहार ऐसा भी है, जहां दावा होता था कि बिहार के किसी कोने से 5 घंटे में पटना पहुंचा जा सकता है. एक बिहार वैसा भी है, जिसके कई कोने 24 घंटे चलने के बाद भी नहीं खत्म हो पा रहे हैं. रफ्तार के लिए 'नाव की जिंदगी' और नाव पर रफ्तार पकड़ रही जिंदगी ही इस बिहार की नियति है. एक बिहार ऐसा भी है जिसमें भूख के लिए शायद ही कुछ हो या उपवास की जिंदगी हो. एक बिहार ऐसा भी है जहां उन पशुपालकों का पूरा जीवन ही लगभग खत्म सा हो गया. जिनका सबकुछ नदी में कटकर विलीन हो गया मजबूरी में जीवन को रफ्तार देने वाली पशुधन को उसी बहती गंगा की धारा में इन लोगों ने बहा दिया. एक बिहार ऐसा भी है जहां कल तक चुन-चुन कर आशियाने को खड़ा किया था. खिड़की निकली लेकिन घर का सारा सामान नदी में बह गया. सवाल यह है कि इस बिहार का क्या होगा?
बिहार में आने वाली बाढ़ को अगर समझा जाए तो सबसे पहले जब 1972 की बाढ़ की गिनती की जाती है. उस वक्त 5 जिले ऐसे थे जो बाढ़ की चपेट में थे. 5 जिलों में बाढ़ काफी तबाही मचाई थी. उसके बाद तय हुआ था कि बांध को बनाकर बाढ़ को रोका जाएगा. हर साल बांधों की संख्या और लंबाई बढ़ती गई. बाढ़ की विभीषिका उसी अनुरूप बढ़ती गई. अब तो यह सवाल उठने लगा है कि कहीं दूसरे बिहार में कोई ऐसी रणनीति तो नहीं चल रही है जिससे हर साल बाढ़ बिहार की नियति बन जाए. क्योंकि बहुत कुछ बिहार की बाढ़ में बहता है, पानी भी और पैसा भी.
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यह कैसा बिहार है? जिसमें पानी बह जाता है और पानी के लिए पैसा भी. बस यहां अगर कुछ बचता है तो अपना सब कुछ गंवा कर घास फूंस के घर में जिंदगी काटने की वह दासतां, चाहे वह जेठ की तपती दुपहरी हो या फिर पूस की ठंडी रात. एक बिहार ऐसा भी है जहां यह सब कुछ है.
'दो बिहार' वाले 'बिहार' को एक बिहार बनाने के लिए नीति तो बड़ी बनानी पड़ेगी. अगर यह नहीं बनी तो हर साल बिहार इसी तरह से बर्बाद होगा. हर बार 'दो बिहार' बंटा हुआ साफ-साफ दिखेगा. क्योंकि अगर बिहार एक नहीं हुआ तो 'विकास की बहार' बिहार में कभी आएगी ही नहीं. यह बिल्कुल निश्चित है. अब सोचना इन सियासतदानों को ही है कि 'बिहार' पर सियासत होगी या सियासत पूरे तौर पर बाढ़ को रोकने का काम करेंगी. अगर इसे जल्दी से नहीं सोचा गया और इस पर कोई बड़ी प्लानिंग के तहत काम नहीं किया गया तो आने वाली हर राजनीति इसी चीज से दो-चार होगी कि यहां पर एक ऐसा 'बिहार' भी है. जरा विचार करिए क्योंकि इस विचार का इंतजार ही सबको है.
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