पटना: चिराग पासवान (Chirag Paswan) दिल्ली में ही रहे और उनके हाथ से पार्टी की कमान छिन गई. चिराग की एक भूल ने उनको 'बंगले' से बाहर ला फेंका. नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को नकार कर एनडीए में साथ रह पाना नामुमकिन है. चिराग पासवान यही मानकर नहीं चले. नीतीश को जेल भेजने के चक्कर में चिराग को लेने के देने पड़ गए. उनकी राजनीतिक जमीन भी हाथ से खिसक गई. बदलती राजनीति (Changing Politics) और 'राजनीति बदलने' को लेकर जिस तरह की कवायद बिहार में चल रही है, उसमें कई ऐसी चीजें हैं जिनका गुणा-गणित बिहार की राजनीति पर सीधा असर डालेंगीं.
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26 जुलाई 2017 ने लिखी बदलाव की कहानी
26 जुलाई 2017 बिहार की राजनीति में गठजोड़ की ऐसी कहानी लिख गया है, जिसमें बदलती राजनीति कितनी जल्दी सियासत में दूसरी डगर पकड़ लेती है, यह भारतीय लोकतंत्र की राजनीति में एक इतिहास है. दरअसल 26 जुलाई 2017 को बिहार में राजद और जदयू की चल रही गठबंधन की सरकार को नीतीश कुमार ने खत्म किया था और महज 15 घंटों के भीतर बीजेपी के साथ मिल करके फिर से सरकार बना ली थी. बिहार में 26 जुलाई 2017 को हुई इस राजनीतिक घटनाक्रम ने राजनीतिक बदलाव की एक नई कहानी लिख दी. जिसमें चर्चा पूरे देश में शुरू हुई कि अगर राजनीतिक बदलाव होता है तो उसकी कई कड़ियां कमजोर पड़ जाती हैं.
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गठजोड़ में सियासी बवंडर
बिहार की राजनीति में जितनी उठापटक इस समय मची हुई है, उसमें कुछ ऐसी कड़ी जरूर जोड़ी जा रही है जिसकी जरूरत महागठबंधन बड़ी शिद्दत से मान रहा है. लेकिन चल रही सरकार इस पर बहुत ध्यान नहीं दे रही है. यादें भी रही है तो इतने नेपथ्य में है कि उस पर किसी का ध्यान जा ही नहीं रहा है. बिहार में चल रही सरकार में जदयू, भाजपा, वीआईपी और हम का गठजोड़ है. हम के नेता जीतनराम मांझी इस समय सियासत में नीतीश की नीतियों से थोड़ा अलग होकर राय रख रहे हैं. वो कई सवाल भी खड़े कर रहे हैं तो बिहार में उठे सियासी बवंडर ने कई राजनीतिक दलों के भीतर नई राजनीतिक कशमकश को शुरू कर दिया. अंदर खाने की सियासत तो यह भी है कि कांग्रेस में भी बहुत कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है.
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बिहार में पक रही खिचड़ी
लालू यादव (Lalu Yadav) के जेल से बाहर आने के बाद इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि लालू यादव बिहार में सरकार बनाने के मिशन में जुट गए हैं. इस एजेंडे के लिए अलग-अलग हथकंडे अपनाए भी जा रहे हैं. तेज प्रताप की राजनीतिक तेजी भी कई मामलों में कई नजरिए से देखी भी जा रही है. मांझी जिस तरीके से बयान दे रहे हैं, राजद उन्हें जिस तरीके से अपने खेमे में लाना चाहती है और उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर जुगलबंदी चल रही है, उससे एक बात तो साफ है कि सियासी खिचड़ी जिस आग पर पकाई जा रही है उसकी आंच धीमी जरूर है लेकिन बिहार की सियासत में राजनीति खिचड़ी पकाने की आग हर जगह लगी हुई है.
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देश की राजनीति का यूपी रास्ता, बिहार से भी वास्ता
26 जुलाई के बाद उत्तर प्रदेश की सियासत और गर्म होगी और इसमें दो राय नहीं है कि सभी राजनीतिक दल अपने लिए गठजोड़ की नई कहानी नहीं लिखेंगे. दिल्ली में लालू यादव से मिलने अखिलेश यादव पहुंचे तो नई सियासी चर्चा शुरू हो गई कि उत्तर प्रदेश की सियासत में इस बार बिहार का पुट जरूर दिखेगा. तेजस्वी कितने कारगर होंगे? लालू की नीतियां कितनी चलेंगी? सपा परिवार राजद के साथ रिश्तेदारी में भी है. जमीन पर इसका समझौता कितना रहेगा? लेकिन यह सब कुछ चर्चा में अभी से है. जुलाई के महीने में आसमान से होने वाली बारिश जैसे कम होगी सियासी तपिश और बयानों की बारिश शुरू हो जाएगी. उत्तर प्रदेश का चुनाव देश के लिए निर्णायक होता है. ऐसे में सभी राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा उत्तर प्रदेश की राजनीति में तो जरूर होंगी.
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एक भूल पड़ गई भारी
जून में जिस सियासत पर लोजपा की राजनीति चली गई है, उसमें एक चीज साफ है. वो ये कि पशुपति कुमार पारस इस बात को मान कर चलते हैं को एनडीए के हिस्सा हैं. बिहार में नीतीश कुमार एनडीए के नेता हैं और बिहार में नीतीश कुमार को नकार कर एनडीए का हिस्सा रह पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. चिराग पासवान यही मानकर नहीं चले. नीतीश कुमार को जेल भेजने के चक्कर में पूरी पार्टी ही अपने राजनीतिक जमीन के लिए भटकने लगी. दरअसल इसकी कोई एक बानगी नहीं है. इसकी कई कहानी है जो पार्टी के नेताओं को खटक रही है. पूरे लॉकडाउन में चिराग पासवान दिल्ली से बाहर निकले ही नहीं. अगर कुछ बात उनकी आई थी तो ट्विटर पर नीतीश के विरोध में. NDA में भी एक धड़ा अब चिराग से नाराज रहने लगा था. क्योंकि नीतीश के विरोध का मतलब नीतियों में नरेंद्र मोदी का भी विरोध जैसा है.
नीतीश को घेरने में गया 'बंगला'
चिराग पासवान को लेकर लोजपा के कुल 6 सांसद हैं. ऐसे में लोजपा को बिहार में राजनीतिक जमीन के गायब हो जाने का डर सता रहा है. डर ये भी कि चिराग पासवान की सियासत इन नेताओं की जमानत नहीं बचा पाएगी. ऐसे में नीतीश कुमार के विरोध वाली राजनीति लोजपा बचा ही नहीं पाई. इसकी एक वजह यह भी है कि 26 जुलाई 2017 को जब बिहार में नीतीश कुमार ने शपथ लिया था तो उस सरकार में पशुपति कुमार पारस भी मंत्री बने थे. मत्स्य और पशुपालन विभाग की जिम्मेदारी मिली थी. लेकिन बाद में लोकसभा चुनाव लड़ने के बाद सीट पर जीत दर्ज की तो गद्दी छोड़ दी. लेकिन नीतीश के नेतृत्व में काम करने के बाद इतना तो वह समझ ही गए थे कि बिहार में राजनीति को जिंदा रखने के लिए अगर एनडीए में रहना है तो नीतीश की सियासत को हां कहना पड़ेगा. इस बात को चाचा ने भतीजे को खूब समझाने की लेकिन भतीजा समझने को तैयार ही नहीं हुआ. क्योंकि जमीन पर बहुत कुछ उन्होंने किया ही नहीं था. यही वजह है कि लोजपा आज भटक कर अपने भीतर ही लड़ाई कर बैठी है. ऐसे में चिराग के नए राजनीतिक भविष्य पर एक नया सवाल भी उठ खड़ा हुआ है.
अभी तो दिल्ली दूर है..
दरअसल उत्तर प्रदेश में होने वाले 2022 के विधानसभा के चुनाव से 2024 का सियासी गणित तय होगी. ये तय होगा कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता कितना कठिन या आसान रहा. 2022 में बीजेपी 2024 के दिल्ली का रास्ता तय करेगी. 2024 के लिए बिहार के राजनीतिक दलों को अपनी जीती हुई सीटों का तो पुख्ता इंतजाम करके ही रखना है. विभेद में बिहार की सियासत में जो बदलाव है उसकी समीक्षा इसलिए भी शुरू हो गई है कि कहीं राजद में 26 जुलाई 2017 का बदला लेने के लिए 26 जुलाई 2021 का फुल फार्मूला तो तैयार नहीं हो रहा है.
जो भी राजनीतिक विश्लेषक या समीक्षक हैं वे इस बात को मानकर चल रहे हैं कि तैयारी कुछ भी हो सकती है. लालू तैयार हैं, तो नीतीश भी मैदान में ही हैं. लेकिन जो लोग मैदान के बाहर होकर के सियासी तैयारी का सपना देख रहे हैं वह कहीं बिखर न जाए इसकी बानगी लोजपा में हो रहे बदलाव की कहानी कही जा सकती है. बहरहाल 26 जुलाई 2021 बिहार में बदलाव की कोई कहानी लिख पाएगा यह कहना मुश्किल है. लेकिन लोजपा से शुरुआत जरूर हुई है. जिसमें राजनीतिक बदलाव की कवायद को दिखने लगी है. इंतजार करिए बिहार में सही राजनीतिक दिशा के लिए लड़ रहे लोग बदलाव के लिए क्या लिख पाते हैं. यह हर महीने कोई न कोई राजनीतिक मंत्र और सियासी पैमाना तो गढ़ेगा ही.