पटना: बिहार की सत्ता पर की चौखट को बतौर सातवीं बार मुख्यमंत्री बन नीतीश ने जरूर लांघा है. लेकिन इस बार के चुनावी परिणाम के बाद उनकी पकड़ धीली पड़ गयी है. चुनाव से पहले जदयू के तमाम बड़े और छुटभैइये नेता खुद को गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका वाली पार्टी मानने और मनवाने से पीछे नहीं हटते थे. लेकिन आज नौबत यह है कि सत्ता पर काबिज जदयू सूबे की तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी है. इसी के मद्देनजर जदयू सूप्रीमों को अपने समाजवादी साथियों की फिर से जरूरत आन पड़ी है.
संतो के घर झगड़ा भारी
बिहार में चुनावी बिगलु बजने के बाद से एनडीए गठबंधन के बारे में सियासी गलियारों में यह सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी कि चुनावी परिणाम में जदयू को दूसरों से कहीं अधिक अपनों से इस बार सबसे अधिक खतरा है. नतीजों ने यह सौ टका साबित भी कर दिया. लोजपा के बिहार चुनाव में प्रदेश स्तर पर एनडीए का साथ छोड़ना स्पष्ट संदेश था कि एनडीए गठबंधन चुनाव तो जीतना चाहती है. लेकिन उसमें जदयू की हिस्सेदारी कितनी होगी यह तय वो करेंगे. हुआ भी यही, लोजपा ने सिर्फ उन सीटों पर अपना उम्मीदवार खड़ा किया. जहां एनडीए गठबंधन में जदयू चुनाव लड़ रही थी. चुनाव में एनडीए की जीत होने के बावजूद जदयू के जीत के हिस्से का लड्डू फीका रहा.
मुश्किल में याद आया याराना
बिहार की सियासत में पिछले डेढ़ दशक से एक धुरी पर टिका है. जिस धूरी को नीतीश कुमार कहते हैं. सत्ता की चाहत और अपने सोशल इंजीनियरिंग के दम पर सातवीं पारी खेलने वाले नीतीश ने लगातार अपने विरोधियों को पटखनी दिया है. उनके सत्ता पर काबिज रहने की चाहते में उनके कई साथी आए और चले गए. कई साथी ही दुश्मन बन गए और विपक्ष में चले गए. इसी फेहरिस्त में उपेंद्र कुशवाहा का नाम भी है. उपेंद्र कुशवाहा को पहली दफा नीतीश कुमार ने ही विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था, लेकिन बाद में उन्होंने न सिर्फ नीतीश से नाता तोड़ा बल्कि वो सियासी तौर पर एक दूसरे के दुश्मन भी बन बैठे. हालांकि, अब वक्त और सियासत ने उन्हें ऐसी जगह खड़ा कर दिया है कि दोनों एक बार फिर नजदीक आने लगे हैं.
बता दें कि नीतीश कुमार ने 2003 में रेल मंत्री रहते हुए बिहार के मुख्य विपक्षी पार्टी की कुर्सी पर उपेंद्र कुशवाहा को बैठाने का काम किया है. कुशवाहा को प्रतिपक्ष का नेता बनाकर नीतीश ने बिहार में लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी (कुशवाहा) समीकरण को मजबूत किया. इस समीकरण की बुनियाद के साथ बीजेपी से गठबंधन की राजनीतिक अहमियत को देखते हुए उनका प्रयोग सफल रहा. इसी फॉर्मूले के जरिए नीतीश ने 2005 में बिहार की सत्ता की कमान संभाली थी. लेकिन दोनों की अपनी अपनी राजनीतिक महात्वकांक्षा ने दोनों को एक दूसरे का सियासी दुश्मन बना दिया था. लेकिन इस बार के नतीजों ने फिर से सियासी नेपत्थ्य में जाने से बचने के लिए दोनों नेताओं ने लव-कुश का फार्मूला अपना कर एक दूसरे की सियासी नौका पार लगाने में दिख रहे हैं.
नीतीश को पुराने करीबी की जरूरत
इस बार के चुनावी परिणामों ने नीतीश को उनके सब्जेक्ट में फेल कर दिया. अपर का कास्ट का वोट छिटकने के बाद सोशल इंजीनियरिंग के हेडमास्टर ने फिर से अपने करीबियों को इक्टठा करना शुरू कर दिया है. इसमें उपेन्द्र कुशवाहा के बाद जो दूसरा बड़ा नेता का नाम सामने आ रहा है वो नाम नरेंद्र सिंह है. सूबे के राजपूत समुदाय में तगड़ी पैठ रखने वाले नरेंद्र देव सिंह को अपने साथ एक फ्रेम लाकर नीतीश अपर कास्ट को यह संकेत देना चाहते हैं कि उनके अंदर किसी जाति के प्रति विशेष लगाव नहीं है. वह सभी को समान मान कर सभी का विकास करना चाहते हैं.
बता दें कि नरेन्द्र सिंह का जीतन राम मांझी के खेमे में जाने के बाद नीतीश और नरेन्द्र सिंह के बीच सियासी लकीर खींच गई थी. लेकिन मांझी का एनडीए में शामिल होने के बाद नीतीश सारे गिले शिकवे भुलाकर फिर से नरेन्द्र सिंह को साथ लाने में जुट गए हैं.
दूसरे दल के बड़े नेताओं पर भी नीतीश की नजर
विधानसभा चुनाव से पहले जीतन राम मांझी को भी एनडीए के साथ जोड़ने में नीतीश सफल रहे थे. अब उन नेताओं को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. जिनसे जनाधार जदयू का बढ़ सके. खोई ताकत फिर से पार्टी को मिल सके. वहीं, नीतीश की नजर आरजेडी के कद्दावर नेता अब्दुल बारी सिद्धकी पर भी है. अब्दुल बारी सिद्धकी इस बार विधानसभा चुनाव हार चुके हैं. आरजेडी के कद्दावर नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के निधन के बाद उनके बेटे को अपने साथ नीतीश जोड़ चुके हैं.
वहीं, इस बाबत पूर्व संसदीय कार्य मंत्री श्रवण कुमार का तो यहां तक कहना है कि यदि कोई मनमुटाव है. और उसे मिल बैठकर दूर करने की कोशिश हो रही है. तो अच्छी पहल है. वहीं जदयू की सहयोगी पार्टी ( बीजेपी प्रवक्ता मृत्युंजय झा ) का कहना है सहयोगी दल जदयू में ताकत बढ़ाने की कोशिश हो रही है. तो उससे बीजेपी को कोई लेना देना नहीं है. हर पार्टी अपने ढंग से काम करती है.