पटना: 'खोदा पहाड़ निकली चुहिया' यह कहावत जेडीयू के लिए सटीक बैठती है, क्योंकि 'असहाय' नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने एक कैबिनेट बर्थ के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पुराने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है. मंत्रिमंडल विस्तार (Union Cabinet Reshuffle) में एनडीए के घटक दल जेडीयू (JDU) के एक मात्र नेता राम चंद्र प्रसाद सिंह (RCP Singh) सिंह को जगह मिली है.
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इसी तरह बिहार के लिए एक और बड़ा झटका पटना साहिब के सांसद रविशंकर प्रसाद के रुप में सामने आया. कैबिनेट विस्तार से तुरंत पहले कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद (Ravi Shankar Prasad) को भी इस्तीफा देना पड़ा है. कानून मंत्री के अलावे रविशंकर प्रसाद के पास संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग भी था. हाल ही में नए आईटी नियमों को लेकर ट्विटर के साथ रविशंकर प्रसाद की तल्खी देखनों को मिली थी.
इसके उलट बिहार में जेडीयू नेताओं ने पिछले एक हफ्ते से ऐसा हल्ला मचा रखा था, मानो पार्टी को चार-पांच कैबिनेट मंत्री मिलने की उम्मीद है. यहां तक कि जेडीयू अध्यक्ष आरसीपी सिंह और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कई मौकों पर मीडिया को इंतजार करने की बात कहते रहे. जिससे कैबिनेट में जेडीयू की हिस्सेदारी को लेकर पार्टी सियासी गलियारों में उत्सुकता बढ़ती रही. हालांकि मोदी मंत्रिमंडल में सिर्फ एक सीट ही चाहिए थी तो नीतीश को इस प्रस्ताव को अब स्वीकार करने के बजाय दो साल पहले ही मंजूर कर लेना चाहिए था.
2019 में नरेंद्र मोदी सरकार के गठन के तुरंत बाद जेडीयू को एक कैबिनेट बर्थ की पेशकश की गई थी, लेकिन तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे सांकेतिक प्रतिनिधित्व करार देते हुए खारिज कर दिया था. नीतीश ने अपनी पार्टी के आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर जोर दिया था.
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यहां आपको बता दें कि साल 2004 में जब अटल बिहारी वाजपेयी पीएम थे तो उनकी सरकार में जेडीयू की हिस्सेदारी थी. अब 16 साल बाद मंत्रिमंडल में वापसी हुई, लेकिन यहां सिर्फ एक सीट मिली. सवाल ये उठता है कि आखिर नीतीश ने मोदी मंत्रिमंडल में एक सीट पर क्यों हामी भर दी. क्या ये माना जाय कि उनके पास 'हां' के अलावा और कोई रास्ता नहीं था.
लोकसभा में 16 सांसद होने के बावजूद नीतीश कैबिनेट में सिर्फ एक सीट पाकर खुश क्यों हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी है. बिहार विधानसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के साथ बीजेपी ने उन्हें सीएम के तौर पर स्वीकार कर लिया है.
ये मजबूरी ही है, क्योंकि नीतीश कुमार पीएम मोदी से ज्यादा तोल-मोल नहीं कर सकते और आसानी से इस तर्क को सामने रख सकते हैं कि कैबिनेट में मंत्री बनाना या न बनाना पीएम का विशेषाधिकार है.
दिलचस्प बात यह है कि जेडीयू को कम से कम चार बर्थ देने की बात कहने के बावजूद पार्टी का कोई अन्य नेता कैबिनेट विस्तार में शामिल नहीं हो सका. मुंगेर से सांसद राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह केंद्रीय मंत्रिमंडल के लिए सबसे आगे चल रहे थे, क्योंकि कहा जाता है कि उन्होंने एलजेपी की टूट में बड़ी भूमिका निभाई थी. ललन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सबसे करीबी सहयोगियों में से एक होने के नाते निश्चित रूप से शामिल थे, लेकिन उम्मीद थी की पीएमओ से फोन की घंटी बजेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
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जेडीयू को उम्मीद थी कि बिहार में जाति समीकरण को संतुलित करने के लिए ओबीसी और ईबीसी समुदाय के नेताओं जैसे संतोष कुमार कुशवाहा और रामनाथ ठाकुर को आगे किया जाएगा. हालांकि, सारी तैयारी तब धड़ी रह गई, जब पीएम ने जेडीयू के केवल एक सांसद को गी मंत्रिमंडल में शामिल करने का फैसला किया.
राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. संजय कुमार कहते है कि, वर्तमान परिदृश्य में जेडीयू का आधार कमजोर हो गया है और यही कारण है कि नीतीश ने पीएम मोदी के प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.
राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं कि नीतीश अच्छी तरह जानते हैं कि बीजेपी की वजह से ही वह मुख्यमंत्री पद पर बैठे हैं. ऐसे में मोल-भाव नहीं कर सकते हैं. यही वजह है कि पीएम जो उन्हें देंगे, उन्हें स्वीकार करना होगा. 2020 के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया है कि वह बीजेपी पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं हैं. यदि नीतीश मजबूत स्थिति में होते तो बिहार में बीजेपी और जेडीयू के सांसदों की संख्या का उदाहरण देते हुए मंत्रिमंडल में दो से तीन बर्थ के लिए दवाब बनाते. हालांकि, ऐसा लगता है कि उनके पास इस ऑफर को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था. नीतीश कुमार अभी मोदी की सरकार को हिलाने की स्थिति में भी नहीं हैं.
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इधर नौकरशाह से राजनेता बने और नीतीश के करीबी आरसीपी का केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होना लगभग तय था. नालंदा जिले में जन्मे, यूपी कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी उसी कुर्मी जाति से हैं, जो नीतीश के हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय से जब नीतीश रेल मंत्री थे, तब से नीतीश के साथ लंबे समय से जुड़े रहने के कारण, आरसीपी कभी उनके प्रमुख सचिव थे. 2010 में आरसीपी ने वीआरएस लिया था और उसी साल उन्हें राज्यसभा भेजा गया था.
एक दिलचस्प तथ्य यह भी सामने आया कि जेडीयू (समता पार्टी ) में आज तक जो भी नेता पार्टी अध्यक्ष बने वे सभी केन्द्र में मंत्री जरूर बने. जैसे जॉर्ज फर्नांडीस, शरद यादव, नीतीश कुमार और अब आरसीपी सिंह.
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दिलचस्प बात यह है कि बिहार बीजेपी का एक नाम जो सबसे ऊपर ट्रेंड कर रहा था, वह था राज्यसभा सदस्य और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का. उनका नाम बिहार के सबसे अनुभवी राजनेता के रूप में बिहार के राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय था. लेकिन यहां भी ललन सिंह की तरह सुशील मोदी को निराशा हाथ लगी.
पिछले महीने लोजपा में तख्तापलट के दौरान चार अन्य लोजपा सांसदों के समर्थन से पार्टी के नए अध्यक्ष चुने जाने के बाद पशुपति पारस के नाम पर मुहर लग चुकी थी. सूत्र बताते हैं कि पारस को रामविलास की जयंती के दिन 5 जुलाई को ही गृह मंत्री अमित शाह का फोन आया था.
फिलहाल बिहार के नेताओं के संबंध में कैबिनेट विस्तार से संबंधित सभी अटकलों पर विराम लग गया है. केवल दो ही नेता नरेंद्र मोदी की टीम में जगह बना सके, एक अपवाद आरके सिंह के रूप में था, जिन्हें अब स्वतंत्र प्रभार से केंद्रीय कैबिनेट मंत्री के पद पर पदोन्नत किया गया है.