पटनाः समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) को लेकर देश में बहस जारी है. इसे लेकर भाजपा अपने शासन वाले राज्यों में जमीन तैयार करने में जुटी है. उत्तराखंड ने समान नागरिक संहिता को लागू करने की पहल की है तो यूपी में भी इसकी तैयारी चल रही है. बिहार में भी समान नागरिक संहिता को लेकर सियासी संग्राम (Politics On Uniform Civil Code) शुरू है. बड़ा सवाल यह है कि क्या राज्यों को समान नागरिक संहिता लागू करने का अधिकार है और इसे लागू करने में क्या बाधा है. आइये जानते हैं कि इस मुद्दे पर संविधान और राजनीतिक जानकारों का क्या कहना है.
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'भारत विविधताओं का देश है. कई धर्म और संस्कृति भारत में पुष्पित और पल्लवित हुई है. सभी को एक कानून के दायरे में लाना कठिन कार्य है. पाकिस्तान जैसे देश में इसका नतीजा देखा गया है. विभिन्न धर्मों के लोगों को आप एक जीवन शैली जीने के लिए कैसे बाध्य कर सकते हैं. भारत को अगर आप एकाकार करने की कोशिश करेंगे, तो आम जनता को बहुत नुकसान होगा. हमारी समाजिक संरचना विघटित होगी. मुझे नहीं लगता कि ये संभव है'- प्रोफेसर बीएन प्रसाद, समाजशास्त्री
'राजनीतिक और आर्थिक विशेषज्ञ डॉक्टर विद्यार्थी विकास मानते हैं कि समान नागरिक संहिता संघीय ढांचे के भावना के खिलाफ है. इससे राज्य कमजोर होगा और राज्य को अपनी नीतियों को लागू करने में परेशानियों का सामना करना पड़ेगा. खासकर अर्थ शास्त्र के नजरिए से काफी परेशानी होगी. अर्थ शास्त्र विविधता को खोजता है, सवतंत्रता को खोजता है, जितना ज्यादा फ्रीडम होगा, इकोनॉमिक एक्टिविटी उतना ही ज्यादा होगी और आगे बढ़ेगी. लेकिन किसी एक कानून के अंतर्गत आ जाने पर उस पर भी प्रभाव पड़ेगा'- डॉक्टर विद्यार्थी विकास, राजनैतिक आर्थिक विशेषज्ञ
संविधान विशेषज्ञ और लेखक अमरजीत झा का मानना है कि समान नागरिक संहिता कानून की जरूरत संविधान और न्यायालय द्वारा महसूस की जाती रही है. संविधान राज्यों को यह इजाजत देती है कि वह चाहे तो अपने राज्य में समान नागरिक संहिता लागू कर सकती है. राज्य के नीति निर्देशक तत्व में समान नागरिक संहिता को शामिल किया गया है और यह समवर्ती सूची का विषय है. संविधान सभा में भी समान नागरिक कानून को लेकर बहस हुई लेकिन आम सहमति नहीं बन पाने के कारण समान नागरिक संहिता को राज्यों के ऊपर छोड़ दिया गया और राज्य के नीति निर्देशक तत्व में शामिल कर लिया गया. इस पर राज्य और केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट की भी अपेक्षा है कि सरकारें समान नागरिक संहिता को वैधानिक रूप दें. देश के अंदर सिर्फ गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है.
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वोट बैंक की सियासत ने मामले को उलझायाः वहीं, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषण कौशलेंद्र प्रियदर्शी का मानना है कि देश के राजनीतिक दलों ने समान नागरिक संहिता का राजनीतिकरण कर दिया है. राजनीतिक दल अपने-अपने हितों के नफा नुकसान से समान नागरिक संहिता को परिभाषित करते हैं. जरूरत इस बात की है कि इस पर आम सहमति बनाकर पूरे देश में लागू किया जाए.
क्या है समान नागरिक संहिताः संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का प्रावधान है. क्योंकि समान नागरिक संहिता समवर्ती सूची का विषय है. लिहाजा केंद्र और राज्य दोनों इस पर कानून बना सकते हैं. समान नागरिक संहिता भारत में नागरिकों के व्यक्तिगत कानूनों को बनाने और लागू करने का प्रस्ताव है. इसके तहत देश के सभी नागरिकों पर समान रूप से उनके धर्म और लिंग के आधार पर बगैर विषमताओं के कानून लागू करने की योजना है. वर्तमान में विभिन्न समुदाय के पर्सनल लाभ और उनके धर्म ग्रंथों के अनुसार कानून का संचालन होता है. समान नागरिक संहिता को लेकर कई भ्रांतियां हैं. दरअसल यह कानून 3 प्रकरण में लागू होता है. विवाह, उत्तराधिकार और तलाक पर समान नागरिक संहिता लागू होते हैं.
बता दें कि समान नागरिक संहिता में देश में शादी, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने जैसे सामाजिक मुद्दे एक समान कानून के तहत आ जाएंगे. इसमें धर्म के आधार पर कोई कोर्ट या अलग व्यवस्था नहीं होगी. कॉमन सिविल कोड को लागू करने के लिए संसद की मंजूरी जरूरी है. गौरतलब है कि आजादी से पहले हिंदुओं और मुस्लिमों के लिए अलग-अलग कानून लागू किए गए थे. भाजपा ने कॉमन सिविल कोड को अपने तीन मुख्य एजेंडे में शामिल किया था. 2014 के लोकसभा चुनाव के भाजपा के घोषणा पत्र में भी यह मुद्दा शामिल था. सुप्रीम कोर्ट भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर सरकार से अनुरोध कर चुकी है. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अमित शाह ने पूरे देश में भाजपा शासित राज्यों को समान नागरिक संहिता लागू करने को कहा है.
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