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इतिहास गवाह है जब भी एक-दूसरे से अलग हुए RJD-कांग्रेस, दोनों को हुआ नुकसान, अब आगे क्या?

तारापुर और कुशेश्वरस्थान उपचुनाव (Tarapur and Kusheshwarsthan By-elections) ने महागठबंधन में दरार ला दिया है, बल्कि सालों से एक दूसरे के 'सियासी रहबर' रहे आरजेडी (RJD) और कांग्रेस (Congress) अब एक दूसरे के राजनीतिक दुश्मन बन गए हैं. हालांकि पहले भी दोनों कई बार साथ अलग होकर चुनाव लड़े, लेकिन जब भी ऐसा हुआ दोनों को मुंह की खानी पड़ी. अब नए हालात में क्या परिणाम होंगे, इस पर नजर रहेगी. पढ़ें खास रिपोर्ट...

Bihar Politics
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Published : Oct 5, 2021, 11:04 PM IST

पटना: 5 अक्टूबर 2021 ने बिहार की सियासत (Bihar Politics) में लंबे समय से चले आ रहे गठबंधन के सफर की नई राजनीतिक राह तय कर दी है. बिहार में कांग्रेस (Congress) की राजनीतिक जमीन और जनाधार जब कमजोर हुई तो सियासत में साथ चलने के लिए उसने आरजेडी (RJD) को अपना रहबर बना लिया. 1990 से 2020 तक की सियासत इस समझौते के आधार पर करते रहे कि फायदा दोनों दलों को मिलता रहा और जब बीच-बीच में दूरी बढ़ी तो घाटा भी दोनों दलों को हुआ. यह सियासी समझौता अब नए राजनीतिक मापदंड पर आधार बदल रहा है. इसके एक नहीं कई आधार हो सकते हैं लेकिन जिस तरीके से राजनीतिक दलों ने अपनी जरूरतों को बदला है, उसमें निश्चित तौर पर बिहार में कांग्रेस और आरजेडी के अलग जाने के बाद फायदा चाहे जिस पार्टी को हो लेकिन घाटा कांग्रेस और आरजेडी दोनों को होगा. यह बिल्कुल तय है और इतिहास इसका साक्षी भी है.

ये भी पढ़ें: 2020 में नीतीश को हराने की 'कसम' खाने वाला महागठबंधन साल भर में दरक गया, RJD-कांग्रेस के रास्ते अलग

बिहार में कांग्रेस की राजनीति के सफर की बात की जाए तो 1990 से पहले की राजनीति और 1990 के बाद की राजनीति का आधार साफ तौर पर अलग दिखती है. अगर 1990 के पहले की राजनीति की बात करें तो संयुक्त बिहार में 1951 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ था, जिसमें कांग्रेस को 239 सीटें मिली थी. 1957 में 250, 1962 में 185, 1967 में 128, 1969 में 118 और 1972 में 162 सीटें मिली थी. जबकि जेपी आंदोलन के बाद हुए 1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में सिर्फ 57 सीटें कांग्रेस को मिली थी. फिर 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में 169 सीटें, 1985 में 196 और 1990 में 71 सीटें कांग्रेस को मिली.

1990 का वह दौर था, जब मंडल कमीशन (Mandal Commission) के बाद लालू यादव (Lalu Yadav) इतना मजबूत होकर उभरे कि कांग्रेस महज 71 सीटों पर सिमट कर रह गई और मजबूरी में लालू यादव की राजनीतिक छाया में बैठना उसने कबूल कर लिया. राजनैतिक जमीन और जनाधार को उसी समय से कांग्रेस खोज रही है और लगातार कांग्रेस का राजनीतिक आधार सिमट रहा है. कांग्रेस अपनी सियासी जमीन बचाने के लिए आरजेडी के साथ समझौते में आ गई, लेकिन लालू यादव ने कांग्रेस की ऐसी जमीन खिसका दी कि फिर वो अपने पैर पर खड़ी होने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई. 1995 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 29 सीटों पर सिमट गई. जेपी आंदोलन के सहयोगियों को साथ देना और बीजेपी से लड़ाई लड़ना. 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इस बात का बेहतर तरीके से एहसास हो गया कि बिहार में अपनी पूरी जमीन खो चुकी है.

वर्ष 2000 के पहले हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस आरजेडी के साथ हो रही, लेकिन 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में साथ नहीं थी. कांग्रेस सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए, लेकिन सिर्फ 23 उम्मीदवार ही चुनाव जीत सके और यह बिहार की राजनीति में कांग्रेस की सबसे बड़ी हार मानी गई. जबकि राष्ट्रीय जनता दल ने 124 सीटें जीत ली थी. हालांकि वर्ष 2000 ही था, जब बिहार-झारखंड बंटवारे की राजनीति भी जोर पकड़ रही थी और इसका भी बहुत बड़ा असर बिहार और झारखंड की सियासत पर दिखा था. जहां कांग्रेस पूरे तौर पर सिमट चुकी थी, लेकिन कांग्रेस से अलग जाकर चुनाव लड़ना आरजेडी के लिए भी भारी पड़ गया. जिस जनाधार की बात आरजेडी के लिए होती थी, वह बहुत ज्यादा घट चुका था और इसमें अवसरवादी राजनीति जनता के मन में एक जगह बना रही थी.

साल 2000 में आरजेडी की सरकार बनी और उसके बाद बदले बिहार के राजनीतिक हालात में लालू यादव पशुपालन घोटाले के मामले में पूरे राष्ट्रीय जनता दल की किरकिरी करवा बैठे. सहयोगी पार्टी होने के नाते कांग्रेस की भी काफी फजीहत हुई. 2005 का विधानसभा चुनाव आरजेडी और कांग्रेस मिलकर लड़े, लेकिन दोनों राजनीतिक दल मिलकर के बिहार में बदलाव को नहीं रोक पाए और गद्दी पर नीतीश कुमार बैठ गए. 2005 के बाद बदली राजनीतिक सियासत ने समय-समय पर आरजेडी और कांग्रेस के बीच सियासी लड़ाई भी खड़ा करती रही.

ये भी पढ़ें: बिहार में 31 साल बाद बढ़ी सवर्णों की पूछ, 'अगड़ी' पंक्ति के सांचे में ढली सियासत

2004 से 2009 तक की चली मनमोहन सरकार में लालू यादव खुद रेल मंत्री थे तो बिहार में कांग्रेस का समझौता चलता रहा, लेकिन 2009 में जब दूसरी बार मनमोहन सिंह की सरकार बनी और लालू उस में शामिल नहीं किए गए. इसका राजनीतिक विभेद बिहार में भी दिखा. 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और आरजेडी की दोस्ती फिर एक बार टूट गई. अनिल सिन्हा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे और आरजेडी से हुए विवाद के कारण उन्होंने 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए. 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में आरजेडी और कांग्रेस की किरकिरी हो गई. लालू यादव जिस जमीन जनाधार की बात करते थे और कांग्रेस के लिए जिस आधार की बात करते थे, वह सब कुछ सिमट कर रह गया. कांग्रेस और आरजेडी अलग-अलग चुनाव लड़े थे. इसमें कांग्रेस को सिर्फ 4 सीट मिली थी और राष्ट्रीय जनता दल को कुल 22 सीटें मिली थी. यह लालू यादव की राजनीति का सबसे खराब सियासी समय कहा जा सकता है, क्योंकि राष्ट्रीय जनता दल इतनी सीट भी नहीं जीत पाई कि उसे विधानसभा में विपक्ष के तौर पर दर्जा भी दिया जा सके. किसी भी सदन में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा उसी पार्टी को दिया जाता है, जिसने कुल सीटों की 10 फीसदी सीटों पर जीत हासिल की हो. 2010 में राष्ट्रीय जनता दल को महज 22 सीटें मिली थी और बाकी सभी दल दहाई का आंकड़ा भी नहीं पाए थे.

वहीं, 2013 के बाद बिहार में और देश में बदले राजनीतिक हालात ने नरेंद्र मोदी की सियासत को जो जगह देना शुरू किया, उसमें नीतीश और बीजेपी के बीच विरोध शुरू हो गया. 2014 में लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की किरकिरी होने के बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू यादव से हाथ मिला लिया. 2015 का विधानसभा चुनाव एक बार फिर आरजेडी और कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित हुआ और दोनों राजनीतिक दल फिर से बिहार में सीटों के संख्या के आधार पर दिखने भी लगे. 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 27 सीटें मिली, जबकि राष्ट्रीय जनता दल 80 सीट जीतने में कामयाब रही थी. हालांकि नीतीश कुमार के साथ कांग्रेस और आरजेडी का गठबंधन बहुत लंबा नहीं चला और 2017 में यह टूट गया.

ये भी पढ़ें: तारापुर और कुशेश्वरस्थान में फ्रेंडली फाइट तय! तेजस्वी बोले- कांग्रेस भी उतारे उम्मीदवार.. हमें कोई परेशानी नहीं

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी, कांग्रेस और वामदलों ने महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा, सरकार तो नहीं बना पाए लेकिन सीटों के आधार पर सभी राजनीतिक दल नीचे गए. सिर्फ वामदल दहाई का आंकड़ा पार कर गया. कांग्रेस 2015 में 27 सीटें जीती थी, जबकि 2020 के चुनाव में वह 19 सीट जीतने में ही कामयाब रही. इन तमाम चीजों के बीच 2019 के लोकसभा चुनाव के जो परिणाम आए, उसमें कांग्रेस के साथ होने का खामियाजा आरजेडी को भुगतना पड़ा. ऐसा आरजेडी की समीक्षा में माना गया, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की नीतियों के नेतृत्व पर चुनाव में जाना था जिसका कोई आधार ही नहीं खड़ा हो पाया. जबकि कांग्रेस बिहार में लगातार लालू के सोशल इंजीनियरिंग का वोट बैंक अपने खाते में डालती रही और यही वजह है कि अब कांग्रेस और आरजेडी के बीच दूरी दिख रही है, क्योंकि कांग्रेस की राष्ट्रीय नीति लोकसभा चुनाव में लालू के आरजेडी को नहीं दे पाती है. हां कांग्रेस को लालू की नीतियों का जरूर बिहार में लाभ मिल जाता है, लेकिन अब इसे तेजस्वी कांग्रेस को देने के लिए तैयार नहीं हैं.

यही वजह है कि 2021 के अक्टूबर महीने में तय हुई नई राजनीति ने कांग्रेस और आरजेडी को एक बार फिर आमने-सामने मैदान में खड़ा कर दिया है. 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं. वहीं आरजेडी ने भी अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं. ऐसी स्थिति में एक बात तो साफ है कि कभी जरूरत में सियासी रहबर रहे कांग्रेस और आरजेडी के बीच अब मुद्दों की सियासी तलवार खिंच गई है. अब देखना यह होगा कि बिहार में हो रहे चुनाव कांग्रेस और आरजेडी को किस तरीके से जगह देते हैं, लेकिन एक बात तो साफ है कि इन 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव के बाद बिहार में कांग्रेस और आरजेडी की नई राजनीतिक रणनीति तैयार होगी. यह नई राजनीतिक दिशा भी तय करेगी, यह बिल्कुल तय है लेकिन एक बात तो बिल्कुल साफ है कि कांग्रेस और आरजेडी के साथ रहते बिहार ने इन दोनों राजनीतिक दलों के कद को जो आकार दिया था, वह नए आयाम के साथ किस आधार पर खड़ा होगा कहना मुश्किल है. आकार कितना बड़ा होगा, यह भी कहना मुश्किल है लेकिन विभेद के साथ सियासत चलेगी यह तय है.

पटना: 5 अक्टूबर 2021 ने बिहार की सियासत (Bihar Politics) में लंबे समय से चले आ रहे गठबंधन के सफर की नई राजनीतिक राह तय कर दी है. बिहार में कांग्रेस (Congress) की राजनीतिक जमीन और जनाधार जब कमजोर हुई तो सियासत में साथ चलने के लिए उसने आरजेडी (RJD) को अपना रहबर बना लिया. 1990 से 2020 तक की सियासत इस समझौते के आधार पर करते रहे कि फायदा दोनों दलों को मिलता रहा और जब बीच-बीच में दूरी बढ़ी तो घाटा भी दोनों दलों को हुआ. यह सियासी समझौता अब नए राजनीतिक मापदंड पर आधार बदल रहा है. इसके एक नहीं कई आधार हो सकते हैं लेकिन जिस तरीके से राजनीतिक दलों ने अपनी जरूरतों को बदला है, उसमें निश्चित तौर पर बिहार में कांग्रेस और आरजेडी के अलग जाने के बाद फायदा चाहे जिस पार्टी को हो लेकिन घाटा कांग्रेस और आरजेडी दोनों को होगा. यह बिल्कुल तय है और इतिहास इसका साक्षी भी है.

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बिहार में कांग्रेस की राजनीति के सफर की बात की जाए तो 1990 से पहले की राजनीति और 1990 के बाद की राजनीति का आधार साफ तौर पर अलग दिखती है. अगर 1990 के पहले की राजनीति की बात करें तो संयुक्त बिहार में 1951 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ था, जिसमें कांग्रेस को 239 सीटें मिली थी. 1957 में 250, 1962 में 185, 1967 में 128, 1969 में 118 और 1972 में 162 सीटें मिली थी. जबकि जेपी आंदोलन के बाद हुए 1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में सिर्फ 57 सीटें कांग्रेस को मिली थी. फिर 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में 169 सीटें, 1985 में 196 और 1990 में 71 सीटें कांग्रेस को मिली.

1990 का वह दौर था, जब मंडल कमीशन (Mandal Commission) के बाद लालू यादव (Lalu Yadav) इतना मजबूत होकर उभरे कि कांग्रेस महज 71 सीटों पर सिमट कर रह गई और मजबूरी में लालू यादव की राजनीतिक छाया में बैठना उसने कबूल कर लिया. राजनैतिक जमीन और जनाधार को उसी समय से कांग्रेस खोज रही है और लगातार कांग्रेस का राजनीतिक आधार सिमट रहा है. कांग्रेस अपनी सियासी जमीन बचाने के लिए आरजेडी के साथ समझौते में आ गई, लेकिन लालू यादव ने कांग्रेस की ऐसी जमीन खिसका दी कि फिर वो अपने पैर पर खड़ी होने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई. 1995 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 29 सीटों पर सिमट गई. जेपी आंदोलन के सहयोगियों को साथ देना और बीजेपी से लड़ाई लड़ना. 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इस बात का बेहतर तरीके से एहसास हो गया कि बिहार में अपनी पूरी जमीन खो चुकी है.

वर्ष 2000 के पहले हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस आरजेडी के साथ हो रही, लेकिन 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में साथ नहीं थी. कांग्रेस सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए, लेकिन सिर्फ 23 उम्मीदवार ही चुनाव जीत सके और यह बिहार की राजनीति में कांग्रेस की सबसे बड़ी हार मानी गई. जबकि राष्ट्रीय जनता दल ने 124 सीटें जीत ली थी. हालांकि वर्ष 2000 ही था, जब बिहार-झारखंड बंटवारे की राजनीति भी जोर पकड़ रही थी और इसका भी बहुत बड़ा असर बिहार और झारखंड की सियासत पर दिखा था. जहां कांग्रेस पूरे तौर पर सिमट चुकी थी, लेकिन कांग्रेस से अलग जाकर चुनाव लड़ना आरजेडी के लिए भी भारी पड़ गया. जिस जनाधार की बात आरजेडी के लिए होती थी, वह बहुत ज्यादा घट चुका था और इसमें अवसरवादी राजनीति जनता के मन में एक जगह बना रही थी.

साल 2000 में आरजेडी की सरकार बनी और उसके बाद बदले बिहार के राजनीतिक हालात में लालू यादव पशुपालन घोटाले के मामले में पूरे राष्ट्रीय जनता दल की किरकिरी करवा बैठे. सहयोगी पार्टी होने के नाते कांग्रेस की भी काफी फजीहत हुई. 2005 का विधानसभा चुनाव आरजेडी और कांग्रेस मिलकर लड़े, लेकिन दोनों राजनीतिक दल मिलकर के बिहार में बदलाव को नहीं रोक पाए और गद्दी पर नीतीश कुमार बैठ गए. 2005 के बाद बदली राजनीतिक सियासत ने समय-समय पर आरजेडी और कांग्रेस के बीच सियासी लड़ाई भी खड़ा करती रही.

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2004 से 2009 तक की चली मनमोहन सरकार में लालू यादव खुद रेल मंत्री थे तो बिहार में कांग्रेस का समझौता चलता रहा, लेकिन 2009 में जब दूसरी बार मनमोहन सिंह की सरकार बनी और लालू उस में शामिल नहीं किए गए. इसका राजनीतिक विभेद बिहार में भी दिखा. 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और आरजेडी की दोस्ती फिर एक बार टूट गई. अनिल सिन्हा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे और आरजेडी से हुए विवाद के कारण उन्होंने 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए. 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में आरजेडी और कांग्रेस की किरकिरी हो गई. लालू यादव जिस जमीन जनाधार की बात करते थे और कांग्रेस के लिए जिस आधार की बात करते थे, वह सब कुछ सिमट कर रह गया. कांग्रेस और आरजेडी अलग-अलग चुनाव लड़े थे. इसमें कांग्रेस को सिर्फ 4 सीट मिली थी और राष्ट्रीय जनता दल को कुल 22 सीटें मिली थी. यह लालू यादव की राजनीति का सबसे खराब सियासी समय कहा जा सकता है, क्योंकि राष्ट्रीय जनता दल इतनी सीट भी नहीं जीत पाई कि उसे विधानसभा में विपक्ष के तौर पर दर्जा भी दिया जा सके. किसी भी सदन में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा उसी पार्टी को दिया जाता है, जिसने कुल सीटों की 10 फीसदी सीटों पर जीत हासिल की हो. 2010 में राष्ट्रीय जनता दल को महज 22 सीटें मिली थी और बाकी सभी दल दहाई का आंकड़ा भी नहीं पाए थे.

वहीं, 2013 के बाद बिहार में और देश में बदले राजनीतिक हालात ने नरेंद्र मोदी की सियासत को जो जगह देना शुरू किया, उसमें नीतीश और बीजेपी के बीच विरोध शुरू हो गया. 2014 में लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की किरकिरी होने के बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू यादव से हाथ मिला लिया. 2015 का विधानसभा चुनाव एक बार फिर आरजेडी और कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित हुआ और दोनों राजनीतिक दल फिर से बिहार में सीटों के संख्या के आधार पर दिखने भी लगे. 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 27 सीटें मिली, जबकि राष्ट्रीय जनता दल 80 सीट जीतने में कामयाब रही थी. हालांकि नीतीश कुमार के साथ कांग्रेस और आरजेडी का गठबंधन बहुत लंबा नहीं चला और 2017 में यह टूट गया.

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2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी, कांग्रेस और वामदलों ने महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा, सरकार तो नहीं बना पाए लेकिन सीटों के आधार पर सभी राजनीतिक दल नीचे गए. सिर्फ वामदल दहाई का आंकड़ा पार कर गया. कांग्रेस 2015 में 27 सीटें जीती थी, जबकि 2020 के चुनाव में वह 19 सीट जीतने में ही कामयाब रही. इन तमाम चीजों के बीच 2019 के लोकसभा चुनाव के जो परिणाम आए, उसमें कांग्रेस के साथ होने का खामियाजा आरजेडी को भुगतना पड़ा. ऐसा आरजेडी की समीक्षा में माना गया, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की नीतियों के नेतृत्व पर चुनाव में जाना था जिसका कोई आधार ही नहीं खड़ा हो पाया. जबकि कांग्रेस बिहार में लगातार लालू के सोशल इंजीनियरिंग का वोट बैंक अपने खाते में डालती रही और यही वजह है कि अब कांग्रेस और आरजेडी के बीच दूरी दिख रही है, क्योंकि कांग्रेस की राष्ट्रीय नीति लोकसभा चुनाव में लालू के आरजेडी को नहीं दे पाती है. हां कांग्रेस को लालू की नीतियों का जरूर बिहार में लाभ मिल जाता है, लेकिन अब इसे तेजस्वी कांग्रेस को देने के लिए तैयार नहीं हैं.

यही वजह है कि 2021 के अक्टूबर महीने में तय हुई नई राजनीति ने कांग्रेस और आरजेडी को एक बार फिर आमने-सामने मैदान में खड़ा कर दिया है. 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं. वहीं आरजेडी ने भी अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं. ऐसी स्थिति में एक बात तो साफ है कि कभी जरूरत में सियासी रहबर रहे कांग्रेस और आरजेडी के बीच अब मुद्दों की सियासी तलवार खिंच गई है. अब देखना यह होगा कि बिहार में हो रहे चुनाव कांग्रेस और आरजेडी को किस तरीके से जगह देते हैं, लेकिन एक बात तो साफ है कि इन 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव के बाद बिहार में कांग्रेस और आरजेडी की नई राजनीतिक रणनीति तैयार होगी. यह नई राजनीतिक दिशा भी तय करेगी, यह बिल्कुल तय है लेकिन एक बात तो बिल्कुल साफ है कि कांग्रेस और आरजेडी के साथ रहते बिहार ने इन दोनों राजनीतिक दलों के कद को जो आकार दिया था, वह नए आयाम के साथ किस आधार पर खड़ा होगा कहना मुश्किल है. आकार कितना बड़ा होगा, यह भी कहना मुश्किल है लेकिन विभेद के साथ सियासत चलेगी यह तय है.

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