पटना: बिहार में एक बार फिर से चमकी बुखार ने लोगों को डराना शुरू कर दिया है. मुजफ्फरपुर में एक 10 साल के बच्चे की मौत हो गई है. इस साल जेई से मौत का यह पहला मामला है. ऐसे में खास सावधानी बरतने की जरूरत है ताकि इस जानलेवा बीमारी से अपने जिगर के टुकड़ों को बचाया जा सके. राजधानी पटना के पीएमसीएच के वरिष्ठ शिशु रोग विशेषज्ञ डॉक्टर सुमन कुमार ने बताया कि एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम जिसे एईएस कहा जाता है, उसी का एक पार्ट होता है जैपनीज इंसेफेलाइटिस, जिसे जेई कहते हैं. इंसेफेलाइटिस का मतलब ब्रेन का इन्फ्लेशन, ब्रेन का सूजन होता है.
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क्या है एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम?: जहां कहीं भी ब्रेन का सूजन होगा, वहां फीवर होगा, कन्वर्सन (झनझनाहट) होगा, मेंटल इनकोहेरेंस होगा यानी वह हर बात को समझ नहीं पाएगा और शरीर में सुस्ती छा जाएगी. एईएस किसी भी कारण से हो सकता है, कोई भी बैक्टीरिया, वायरस, टॉक्सिन, मलेरिया, ट्यूबरक्लोसिस, डेंगू जिसमें फीवर हो और फीवर में ब्रेन इंवॉल्व हो जाए. यानी सामान्य भाषा में कहें तो फीवर ब्रेन पर चढ़ जाए, यह सब ऐईएस है, सामान्य तौर पर दिमागी बुखार भी कहा जाता है.
2019 में 185 मौत: बिहार में चमकी बुखार के कारण बच्चों की जान आफत में रहती है. साल 2019 में एईएस से 132 बच्चों सहित 185 लोगों की मौत हुई थी. इस संक्रमण से सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि झारखंड, यूपी, पंजाब और हरियाणा सहित देश के अठारह राज्य भी चपेट में हैं.
जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस क्या है?: जापानी इंसेफेलाइटिस वायरल एक फ्लविवायरस है जो, वेस्ट नाइल और सेंट लुइस इन्सेफ्लाइटिस वायरस से जुड़ा हुआ है. ये वायरस संक्रमित क्यूलेक्स प्रजाति के मच्छरों की वजह से होता है, जो विशेष रूप से क्यूलेक्स ट्राइटेनिओरहाइन्चस नाम के मच्छर के काटने से फैलता है.
AES के कुछ लक्षण: एईएस के कुछ महत्वपूर्ण लक्षण सिरदर्द, उल्टी, मतली और रक्ति में ग्लूकोज के स्तर में अचानक गिरावट है, जिसमें मरीज कोमा में जा सकता है. एईएस से पीड़ित बच्चों को फौरन चिकित्सीय देखभाल की जरूरत होती है, ताकि शरीर की पीड़ा कम हो सके.
करें ये उपाय: डॉ सुमन कुमार ने बताया कि दिमागी बुखार एक विशेष वायरस 'अरबो वायरस' ग्रुप से होता है तो जपानी इंसेफेलाइटिस कहते हैं. जेई भी एक प्रकार का एईएस ही है. जेई सामान्य तौर पर 0 से 15 वर्ष तक के बच्चों में ही देखने को मिलता है और 5 वर्ष के आयु तक के बच्चों में इसका खतरा सबसे अधिक होता है. इससे बचाव के लिए रूटीन इम्यूनाइजेशन है जिसमें बच्चों को पहला टीका 12 महीने के आयु पर पड़ता है और दूसरा टीका ठीक इसके 28 दिन बाद यानी 13 महीने के आयु पर पड़ता है. इसके बाद अगले 1 साल पर यानी 25वें महीने की आयु पर बूस्टर टीका पड़ता है. यह तीन टीका जेई से बचाव के लिए बेहद जरूरी है. इसके बाद भी बूस्टर के तीन साल पर बूस्टर टीका 10 वर्ष की आयु तक लगवाया जा सकता है.
"अरबो वायरस' जिससे जेई होता है, उसमें मानव इंसीडेंटल होस्ट है. मनुष्य इस वायरस का डायरेक्ट होस्ट नहीं है. जपानी इंसेफेलाइटिस की बीमारी मच्छर और सूअर के बीच की बीमारी है. यदि किसी इनफेक्टेड सूअर को मच्छर काटता है और वह मच्छर बच्चों को काटता है तो उसमें जेई का खतरा होता है. इसलिए जेई की बीमारी से सबसे अधिक इनफेक्टेड गरीब और वंचित तबके के बच्चे होते हैं, जहां हाइजीन बेहतर नहीं होता है."- डॉ सुमन कुमार, वरिष्ठ शिशु रोग विशेषज्ञ
मच्छरों से बरतें सावधानी: चिकित्सक सुमन कुमार ने आगे कहा कि जेई की बीमारी में भी मच्छर ही सोर्स ऑफ वायरस होता है, इसलिए बच्चों को इससे बचने के लिए जरूरी है कि मच्छरों के खिलाफ जो डीटीसी का छिड़काव होता है, वह अच्छे से किया जाए और बच्चों को रूटीन इम्यूनाइजेशन कराया जाए. सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर रूटीन इम्यूनाइजेशन की सुविधा निशुल्क है और लोगों को इसका लाभ लेना चाहिए.