पटना: कोरोना ने जिस तरीके से पूरी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त किया है, उसमें अब बोलने के लिए बहुत कुछ बचा नहीं है. अपने अतीत के गौरव पर इतराने का मन लिए बैठे बिहार को अब यह समझ ही नहीं आ रहा है कि वह बोले क्या? और बिहार जो बोल रहा है उससे एक बात साफ है कि यह बोलेन के लिए बिहार कभी तैयार नहीं था.
इस बात में दो राय नहीं कि बिहार का हाथ, बिहार का दिल और बिहार के लोग जब चलते हैं तो कई राज्यों की अर्थव्यवस्था और देश की संरचना मजबूत होती है. कई राज्य ऐसे हैं, जिनके सकल घरेलू उत्पाद में अगर श्रम को डाला जाए, तो उसमें नाम सिर्फ बिहार का आता है. अगर उसे उस राज्य से हटा दिया जाए, तो विकास के नाम पर उसके पास अगर कुछ बचता है तो ढांचे के रूप में उसका अपना जुड़ा हुआ घर. बिहार अपने आप में इतना मजबूत है कि वह जहां जाता है अपनी मेहनत से पसीना बहाता है और राज्य में विकास सड़क पर सरपट रफ्तार भरने लगता है.
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बिहार का मनोबल टूटा
कोरोना वायरस से जो हालात पैदा हुए हैं. उसमें बिहार कुछ बहुत बोलने की स्थिति में फिलहाल दिख नहीं रहा है. उन राज्यों की चिंता भी लाजमी है, जो बिहार के बल के बूते मजबूत होते थे लेकिन कोरोना में जिस तरह से उन राज्यों ने भी बिहार के लोगों से हाथ छुड़ा लिया गया, उसने भी बिहार के मनोबल को तोड़ा है.
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बिहार के लिए चुनौती
तकरीबन 29 लाख प्रवासी 15 जून तक बिहार वापसी कर लेंगे. यहीं से बड़ा सवाल उठ रहा है कि सामान्य स्थिति में बिहार मनरेगा के तहत लगभग 21 लाख लोगों को रोजगार देता है, ऐसे में 29 लाख लोगों के आ जाने के बाद रोजगार सृजन के लिए क्या करना होगा यह एक बड़ी चुनौती है.
खोजे जा रहे रोजगार के अवसर
अगर बिहार की अर्थव्यवस्था को समझें, तो बिहार में रोजगार देने के लिए अर्जित जितने भी माध्यम थे. उनमें से अधिकांश अपने मूल उद्देश्य से भटक चुके हैं. बिहार की अर्थव्यवस्था की समीक्षा में दो चीजें ग्रामीण अर्थव्यवस्था को काफी मजबूत करती हैं. उस पर सरकार ने लंबे समय से कोई काम किया ही नहीं है. हालांकि, जो लोग बिहार लौट रहे हैं. उनको काम देने के लिए उसी विभाग में अवसर खोजा जा रहा है और इसको लेकर काम शुरू भी हो गया है.
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प्रशिक्षित लोगों का क्या?
बिहार में चल रही योजनाओं में जल जीवन हरियाली नीतीश कुमार का एक बड़ा कार्यक्रम है, जिसके माध्यम से लगभग 60 से 70 लाख लोगों को सालाना रोजगार दिया जा सकता है. यह अवसर बिहार सरकार उन लोगों को उपलब्ध भी कराएगी, जो लोग कोरोना काल में वापस लौटे हैं. लेकिन इसमें उनका क्या होगा, जो किसी एक विधा के प्रशिक्षित हैं. मशीन चलाते थे या मशीनरी व्यवस्था में काम करते थे. उनके पास रोजगार जिस तरह से है. उसका बहुत उपयोग वे कर पाएंगे कहना मुश्किल है क्योंकि इस मुद्दे पर वह कुछ बोल नहीं पा रहे हैं. बस इतना है कि लोगों के व्यवसाय के बारे में कागजी खानापूर्ति पूरी की जा रही है.
बापू का सपना
ग्रामीण संरचना के लिए खादी ग्राम उद्योग व्यवस्थित व्यवसाय का एक ऐसा सृजन था, जिससे हर परिवार कुछ न कुछ पैसा कमा लेता था लेकिन गिरी हुई राजनीतिक मानसिकता और लालफीताशाही ने पूरे बिहार में इसे खत्म कर दिया. चंपारण सत्याग्रह से बापू ने जिस बिहार में ग्राम स्वराज की बात की थी और स्वरोजगार के लिए जिस बुनियाद को रखा था. बाद के दिनों में बापू के इन्हीं सपनों को यहां की राजनीतिक इच्छाशक्ति के मजबूत न होने के कारण छोड़ देना पड़ा.
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कैसे बिखरा ग्रामीण संरचना का आयाम
देश आज इस आपातकाल से गुजर रहा है. उसमें हमारी आर्थिक संरचना को मजबूत करने में ग्रामीण क्षेत्रों की अहम भूमिका होगी और हर विश्लेषण में यही बात अब सामने आ रही है. सवाल यह उठ रहा है कि अगर ग्रामीण संरचना का पूरा मजमून विकास के आयामों के साथ टिका था. वह पूरी तरह बिखरा कैसे.
इंतजार कर पाएगा बिहार?
गांव में रोजगार देने की बात तो चल रही है. लेकिन जो ग्रामीण व्यवस्था में रोजगार के अवसर पैदा करते हैं. उनकी व्यवस्था बिगड़ गई है. ये कब तक सुधरेगी, यह कहना मुश्किल है. हालांकि, सरकारी प्रयास जारी है. जो लोग गांव पहुंचे हैं उन्हीं फौरी तौर पर शायद वैसी परेशानियों से दो चार न होना पड़े. लेकिन आने वाले समय में उनके पास भी भोजन और दवा का संकट आएगा ही. बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो सकती है.
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बिहार सरकार नीति और योजना में उद्योग लगाने, लोगों को बुलाने, बिहार को आगे ले जाने जैसी बातों का दावा तो जरूर कर रही है. लेकिन जो लोग 2 जून की रोटी के लिए इंतजाम की जद्दोजहद करेंगे, वह फैक्ट्री के लगने का इंतजार कर पाएंगे. कहना मुश्किल है. फिलहाल, जो हालात बने हैं और जितने लोग बिहार लौटे हैं. उसमें कहने के लिए बहुत कुछ बचा नहीं है और इसीलिए तो सवाल भी उठ रहा है कि आखिर क्या बोले बिहार? और बिहार के लोग जो बोल रहे हैं. उसमें पूरी राजनीति ही सवालों में खड़ी हो गयी है.
क्या बोले बिहार?
नीतीश कुमार, जब बिहार के मुख्यमंत्री बने तो बड़े जोर से ब्रांड बिहार की बात करते थे. बिहार की खादी का रैंप पर कैटवॉक भी हुआ. बस बिहार में विकास का वॉक नहीं हो सका. नीतीश ने कहा था कि भारत के हर थाली में बिहार का व्यंजन होगा. लेकिन अब तो बिहारी ही दो जून की रोटी के लिए अपना व्यंजन खोज रहा है. बिहार के लोग सीधे नीतीश से ही कह रहे हैं नून रोटी खाऐंगे. कोरेाना काल को अवसर में बदलने की बात हो रही है और अगर बिहार ने कोरोना के इस काल को अवसर में बदल लिया. तो निश्चित ही बिहार बदल जाएगा. लेकिन आज तो अपने और अपनों की बेबसी पर बस इतना ही कहा जा सकता है कि क्या बोले बिहार?