नालंदा: जिले के बसवन बीघा और हस्तकरघा उद्योग की अपनी अलग ही पहचान है. बुनकरों की कड़ी मेहनत और हुनर की बदौलत आज भी लोग इसे काफी पसंद करते हैं. लेकिन सरकार की उदासीनता से बुनकर मायूस हैं. बसवन बीघा के बुनकरों को पूर्व में सरकारी सुविधा मिलती थी. बिहार स्टेट हैंडलूम कॉरपोरेशन से ऑर्डर मिलता था. तब बुनकर बावन बूटी बुनाई करते थे. करीब 20 साल पहले बिहार राज्य निर्यात निगम को बंद कर दिया गया, जिसके बाद बावन बूटी के कपड़ों का निर्यात भी बंद हो गया.
सरकारी सुविधाओं से महरूम हस्तकरघा उद्योग के बुनकर आज भी अपने परंपरागत कार्य से जुड़े हैं. बसवन बीघा सहयोग समिति लिमिटेड करघा के बल पर वर्षों से नए नए डिजाइन का उत्पादन किया जाता है. सूती और सिल्क धागों से निर्मित बावन बूटी साड़ी, चादर, शॉल, पर्दा का निर्माण अलग-अलग डिजाइन से तैयार किया जाता है. यहां बनी सिल्क की साड़ियां महिलाओं को आकर्षित करती हैं. यहां से तैयार की गई वस्तुओं की मांग बिहार के अलावा अन्य राज्यों में भी होती हैं. इतना ही नहीं, पूर्व में यहां निर्मित कपड़े जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका तक जाते थे, जहां लोग इसे काफी पसंद करते थे.
बिहार के कला की विदेशों में भी थी मांग
सरकार के द्वारा बुनकरों को रंगाई व डिजाइन के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाता है. बिहार में लगने वाले मेला और प्रदर्शनी में बाबन बूटी साड़ी को लगाया जाता है. पूर्व में निर्मित चादर, पर्दा, टेबल क्लॉथ, तौलिया को जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में निर्यात किया जाता था, लेकिन सर्वाधिक मांग जर्मनी में थी. मगर अब स्थिति पहले जैसी नहीं रही. अब यहां निर्मित कपड़े ज्यादातर मेला या सरकारी स्तर पर लगने वाले स्टॉल तक ही सीमित रह जाते हैं.
बौद्ध धर्म में बावन बूटी कला की काफी है डिमांड
बावन बूटी बुनाई साड़ी के बारे में बताया जाता है कि ये प्लेन साड़ी पर कमल का फूल, पीपल का पत्ता, बोधि वृक्ष, त्रिशूल, सुनहरी मछली, शंख, धर्म का पहिया, फूलदान बुद्धिज़्म के प्रतीक चिन्ह के साथ साथ बुद्ध की महानता बताने की कला है. इसी कला को साड़ी पर 52 बार प्रस्तुत करने के कारण बावन बूटी बुनाई का नाम दिया गया. नालंदा का शान कहा जाने वाला बावन बूटी में इन्हीं चीजों का इस्तेमाल किया जाता है. बौद्ध धर्म मानने वाले देशों में बावन बूटी कला की काफी मांग है.
पावर लूम और मशीनों के इस्तेमाल से हस्तकला उद्योग को नुकसान
पूर्व में बुनकर उद्योग काफी प्रचलित था. बाजार में इसकी मांग भी ज्यादा थी, जिस कारण इस उद्योग से जुड़े लोगों को काफी फायदा भी पहुंचता था. इस उद्योग से करीब 500 से अधिक बुनकर जुड़े हुए थे. लेकिन बाजार में पावर लूम और मशीनों का इस्तेमाल शुरू हो जाने के बाद हस्तकला उद्योग को काफी नुकसान पहुंचा. एक वक्त था जब कभी बुनकरों का यहां तांता लगा रहता था. वहीं आज इक्के-दुक्के बुनकर ही यहां नजर आते हैं.
सरकार के उदासीन रवैये से बुनकर मायूस
बुनकरों का मानना है कि आज भी अगर सरकार इस ओर ध्यान दे दे तो एक बार फिर इस उद्योग में चार चांद लग सकता है. सरकारी स्तर पर अगर दुकान खोल दिया जाए तो इस उद्योग से जुड़े लोग फिर से अपनी कला को बहेतर तरीके से प्रदर्शित करेंगे. इस उद्योग को पुनर्जीवित किया जा सकता है. आज भी यहां के बने कपड़े के खरीदारों की कमी नहीं है. शौकीन लोगों की आज भी यहां के निर्मित कपड़े पहली पसंद है. लेकिन सरकारी स्तर पर कोई मदद नहीं मिल पाने के कारण काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.
शौकीन लोग आज भी देते हैं आर्डर
बिहार सरकार द्वारा अस्पतालों में जो चादर का इस्तेमाल किया जाता है, उसकी खरीदारी इसी उद्योग से की जाती थी. लेकिन इन दिनों वो भी बंद हो गया है. हालांकि आज भी कुछ संस्थाओं द्वारा डिमांड किया जाता है और उद्योग कपड़े बुनकर उन्हें देती है. आगामी 25 अक्टूबर को राजगीर के विश्व शांति स्तूप पर आयोजित होने वाले 50वें वर्षगांठ को लेकर इन दिनों कुछ आर्डर दिया गया है. कारीगर अपने काम में जुट गए हैं. अगर सरकार इस ओर नजर इनायत कर दे तो एक बार फिर से इस उद्योग में चार चांद लग जायेगा.