किशनगंज: जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर मैदा गांव बसा हुआ है. यहां के किसान ने पारंपरिक खेती छोड़ नई खेती को अपनाया है. नई खेती से किसानों की आमदनी बढ़ गई है.
किशनगंज के मैदा गांव के किसान शहतूत की खेती कर रहे हैं. पारंपरिक खेती से पैसे नहीं मिलने के बाद किसान अब इस खेती के भरोसे हैं. किसानों के शहतूत की खेती के पीछे रेशम बनाना है. रेशम के कीड़े शहतूत पेड़ के पत्तों को खाकर रेशम बनाते हैं.
से रेशम बनाते हैं किसान
रेशम की मांग अच्छी होने से इस खेती में मुनाफा भी अच्छा होता है. किशनगंज के किसान शहतूत के पौधे को चार से पांच बार लगाते हैं. जिससे उन्हें रेशम का कीड़ा भी चार से पांच बार पालना होता है. इसके बाद जो कीड़े से रेशम निकालता है. उसे धूप में सुखाकर बेच देते हैं.
स्थायी बाजार का है अभाव
जिले के किसानों की ओर से चार बार रेशम तैयार किया जाता है. लेकिन सरकार की तरफ से केवल एक से दो बार ही खरीदा जाता है. स्थायी बाजार के नहीं होने से किसानों को बंगाल में रेशम बेचना पड़ता है. जिससे उन्हें उतना मुनाफा नहीं मिल पाता जितना मिलना चाहिए. किसानों का कहना है कि अगर सरकार हमें कीड़ा पालने और रेशम को बेचने की पूरे वर्ष की व्यवस्था कर दे तो हमारी बड़ी समस्या खत्म हो जाएगी. किसानों की दूसरी समस्या उचित प्रशिक्षण का नहीं मिलना है. उन्होंने बताया कि जीविका वाले हमें अच्छे से प्रशिक्षण नहीं देते हैं. जीविका की तरफ से रेशमकीट बीज भी नहीं दिया जाता है. इस वजह से हमें बीज और कीड़ा अधिक दाम खर्च करके बाहर से मंगवाने पड़ते हैं.