कैमूरः बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के सबसे चर्चित प्रयोग में शामिल 90 की दशक में शुरू किया गया चरवाहा विद्यालय आज अपना अस्तित्व खो रहा है. जिले के चैनपुर के बड़ी तकिया में एक ऐसा चरवाहा विद्यालय है जो मौसम के अनुसार अपना स्थान बदलता है. यह विद्यालय गर्मियों में पेड़ के नीचे, ठंड के दिनों में गांव की मड़ई और बरसात में गांव के मंदिर में संचालित होता है. 1992 में बने इस चरवाहा विद्यालय को अपना भवन तक नसीब नहीं है.
खुले आसमान के नीचे बनता है एमडीएम
वर्तमान में चरवाहा विद्यालय का वजूद खत्म होता नजर आ रहा है. अब इस विद्यालय का संचालन 5 क्लास तक ही होता है. बच्चों को मध्याह्न भोजन के साथ अन्य सरकारी लाभ मिलते हैं. समय बीतता गया लेकिन चरवाहा विद्यालय की तस्वीर नहीं बदली. चैनपुर स्थित इस चरवाहा विद्यालय का भवन नहीं है. यहां पढ़ाई करने वाले बच्चों का क्लास मौसम के अनुसार गांव के किसी भी कोने में संचालित होता है. 21 वीं सदी में भी यहां के बच्चे जमीन पर बैठकर पढ़ते हैं. आज भी इस विद्यालय का एमडीएम खुले आसमान के नीचे ही बनता है.
सचिव के घर रखा जाता है स्कूल का सामान
इस चरवाहा विद्यालय में 41 छात्र-छात्राएं हैं, जिनको पढ़ाने की जिम्मेदारी 2 शिक्षकों पर है. विद्यालय के प्रधानाचार्य ने बताया कि विद्यालय की 9 डिसमिल जमीन है, लेकिन भवन निर्माण नहीं हो सका है. विद्यालय में न तो शौचालय है न पीने का पानी न ही किचन शेड. यही नहीं इस विद्यालय का सारा सामान गांव के सचिव के घर रखा जाता है. छात्र रोजाना सचिव के घर से ब्लैकबोर्ड, कुर्सी और मैट लेकर आते हैं, उसके बाद पेड़ के नीचे विद्यालय को सजाते हैं.
अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने की थी विद्यालय की सराहना
बता दें कि बिहार में जब 90 के दशक में चरवाहा विद्यालय खुला था, तब अमेरिका और जापान से कई टीमें विद्यालय को देखने आईं थीं. उस वक्त इस विद्यालय की जिम्मेदारी कृषि, उद्योग, सिंचाई, ग्रामीण विकास, पशुपालन और शिक्षा विभाग को दी गई थी. यही नहीं इस विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों को मध्याह्न भोजन, किताबें, ड्रेस और मासिक छात्रवृत्ति का प्रावधान था. चरवाहा विद्यालय में 5 से 15 साल की उम्र के बच्चों का नामांकन किया जाता था, जो जानवरों को चराते थे. यूनिसेफ समेत अन्य कई अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने इसकी सराहना की थी. दिसंबर 1991 में वैशाली जिले के गोरौल में देश का पहला चरवाहा विद्यालय खुला था.
प्रशासनिक कारणों से ठंडे बस्ते में चली गई योजना
दरअसल, पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव खुद बहुत गरीबी में पले बढ़े थे, वह चाहते थे कि बकरी, भैंस चराने वाले बच्चे पढ़ना लिखना सीखें. बाहर के लोग स्कूल की तारीफ करते थे, लेकिन यहां के लोगों ने चरवाहा विद्यालय का दुष्प्रचार किया. विभिन्न राजनीतिक कारणों और खासतौर पर प्रशासनिक कारणों से ये योजना ठंडे बस्ते में चली गई. बाद में लालू यादव जब पशुपालन घोटाले में फंसे और जेल जाने तक की नौबत आ गई तब ये स्कूल खत्म ही हो गए. हालांकि इस स्कूल को बंद करने की लालू यादव ने कभी घोषणा नहीं की. बाद में 2005 में जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तो उस समय भी इन स्कूलों पर कोई औपचारिक फैसले नहीं लिए गये.
स्वतः ही बंद हो चुके हैं कई चरवाहा विद्यालय
एक तरफ तो बिहार सरकार सरकारी स्कूलों में स्मार्ट क्लास की बात कर रही है, तो दूसरी तरफ देश और दुनिया में खूब चर्चा बटोरने वाला बिहार का यह चरवाहा विद्यालय आज भी अपने अस्तित्व की तलाश कर रहा है. ऐसे में कैसे होगा बिहार का विकास, खासकर तब जब यह विद्यालय बिहार सरकार के मंत्री बृज किशोर बिन्द के विधानसभा क्षेत्र में है. इसके बावजूद इस स्कूल की तस्वीर नहीं बदली. बिहार के लगभग सभी चरवाहा विद्यालय का हाल यही है. जो स्वतः ही बंद हो चुके हैं.
नहीं हुई है विद्यालय के जमीन की एनओसी
जब विद्यालय के बारे में सर्व शिक्षा अभियान के कार्यक्रम पदाधिकारी यदुवंश राम से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उनकी बात प्रधानाचार्य से हुई है. जैसे ही वह जमीन का एनओसी कराकर देंगे. शिक्षा विभाग सरकार से भवन निर्माण के लिए राशि उपलब्ध कराने के लिए डिमांड करेगा. जिसके बाद विद्यालय का भवन बनकर तैयार हो जाएगा.