गया: बिहार के गया में पांचू, रामदेव और जानकी मांझी के शहादत दिवस (Martyrdom Day) के अवसर पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया. सभा में बिशुनधारी, कारू, कौशल गणेश आजाद, उपेन्द्र, मिथलेश निराला शामिल हुए. सभा में करीब 70 महिलाओं और पुरुषों ने शिरकत की.
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8 अगस्त 1979 को बोधगया मठ के गुंडों एवं भूमिहीन मजदूरों के संघर्ष के दौरान गोली चली थी. रामदेव को गोली लगी जबकि पांचू को बम ने अपने आगोश में ले लिया. पांचू मांझी ने वहीं दम तोड़ दिया. वहीं इलाज के दौरान रामदेव मांझी की अस्पताल में मौत हो गयी. यही नहीं इस हमले में जानकी मांझी को भी जांघ में गोली लगी थी. इससे जानकी मांझी विकलांग हो गए और कुछ दिनों के बाद उनकी भी मौत हो गयी.
मठ इस बात को भूल गया था कि शांतिमय आंदोलन हवा भरी गेंद के समान होता है. जिस तरह हवा भरी गेंद जमीन पर पटकने से उछल जाती है, उसी तरह शांतिमय आंदोलन इस तरह के जघन्य घटना से सिकुड़ने की बजाय फैलता जाता है. इसी का नतीजा था कि आंदोलनकारियों में जोश बढ़ता गया. ऐसे उदाहरणों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं. बोधगया मठ के खिलाफ चले आंदोलन में भी ऐसा ही हुआ.
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8 अगस्त के बाद आंदोलन तेजी से फैला. बोधगया मठ ने जमीन जोतने का कुटिल प्रयास किया, लेकिन महिलाओं, पुरूषों और विचारधारा से लैस युवाओं के फौलादी एकता के सामने विफल रहा. मजदूरों और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों पर सैकड़ों झूठे मुकदमे किए गए. अंततः आंदोलन की जीत हुई. मठ की 10 हजार एकड़ जमीन मजदूरों में बांटी गई.
बोधगया आंदोलन की उपलब्धि केवल जमीन तक ही नहीं रही. इस आंदोलन ने सिद्ध किया कि परिवर्तन के लिए शांति ही कारगर हथियार है. समाज में महिलाओं की बराबरी और सम्मान के सवाल को लेकर तीखी बहस के बाद महिलाओं के नाम से भी जमीन हो ये निर्णय लिया गया. कम्युनिस्ट धारा के अनुसार समाज दो श्रेणियों मालिक और मजदूर या कहें कि शोषक और शोषित में विभाजित हो गया.
छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी शुरू से ही समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा स्थापित करने के लिए बहस और प्रयास करता रहा है, जो इस भूमि आंदोलन में साफ नजर आया. महिलाओं के नाम से जमीन के जरिए वैचारिक दृष्टिकोण को स्थापित किया गया.