गया: इन दिनों पितृपक्ष प्रतिपदा चल रहा है. पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पितृपक्ष (Pitru Paksha 2022) में पिंडदान और श्राद्ध किया जाता है. पितृपक्ष में पिंडदान के लिए कई जगहें प्रसिद्ध हैं लेकिन बिहार के गया में पिंडदान करने का खास महत्व है. मान्यता के अनुसार राजा दशरथ की आत्म की शांति के लिए भगवान राम और माता जानकी ने गया में ही पिंडदान किया था. पितृपक्ष के दूसरे दिन प्रेतशिला में लोग पिंडदान करते हैं. यहां पिंडदान करने से प्रेतयोनि के पितरों को मुक्ति मिल जाती है. प्रेतशिला ( Pind Daan On Pretshila In Gaya) को भूतों का पहाड़ कहा जाता है. इस पहाड़ पर आज भी भूत और प्रेत का वास रहता है. प्रेतशिला पहाड़ पर जाने के लिए 676 सीढ़ियां चढ़ना पड़ता है.
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अकाल मृत्यु से मरने वाले पूर्वजों को प्रेतशिला में मिलती है शांति: प्रेतशिला पर्वत गया से तकरीबन 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इस पर्वत के शिखर पर प्रेतशिला नाम की वेदी है. कहा जाता है कि अकाल मृत्यु से मरने वाले पूर्वजों का प्रेतशिला की वेदी पर श्राद्ध और पिंडदान करने का विशेष महत्व है. इस पर्वत पर पिंडदान करने से पूर्वज सीधे पिंड ग्रहण करते हैं. ऐसा होने के बाद कष्टदायी योनियों में पूर्वजों को जन्म लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती है. इस पर्वत की कुल ऊंचाई 876 फीट है. प्रेतशिला की वेदी पर पिंडदान करने के लिए लगभग 676 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं.
सत्तू का पिंडदान: जिनकी अकाल मृत्यु होती है उनके यहां सूतक लगा रहता है. सूतक काल में सत्तू का सेवन वर्जित माना गया है. उसका सेवन पिंडदान (Pind Daan Of Sattu In Pretshila Gaya) करने के बाद ही किया जाता है. इसीलिए यहां लोग प्रेतशिला वेदी (Pretshila Vedi) पर आकर सत्तू उड़ाते हैं और फिर प्रेत आत्माओं से आशीर्वाद व मंगलकामनाएं मांगते हैं. इस पर्वत पर धर्मशिला है जिस पर पिंडदानी ब्रह्मा जी के पद चिन्ह पर पिंडदान करके धर्मशीला पर सत्तू उड़ाकर कहते है 'उड़ल सत्तू पितर को पैठ हो'. सत्तू उड़ाते हुए पांच बार परिक्रमा करने से पितरों को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है.
ये है मान्यता: इस धर्मशीला में एक दरार है उस दरार में सत्तू का एक कण जरूर जाना चाहिए. कहा जाता है कि ये दरार यमलोक तक जाता है. इस चट्टान के चारों तरफ 5 से 9 बार परिक्रमा करके सत्तू चढ़ाने से अकाल मृत्यु में मरे पूर्वजों को प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाती है. प्रेतशिला में भगवान विष्णु की प्रतिमा है. पिंडदानी अकाल मृत्यु वाले लोग की तस्वीर विष्णु चरण में रखते हैं. और उनके मोक्ष की कामना करते हैं. मंदिर के पुजारी 6 माह तक तस्वीर की पूजा करते हैं और फिर उस तस्वीर को गंगा में प्रवाहित कर देते हैं. पितृ पक्ष के 15 दिन पितरों के मोक्ष के दिन माने जाते हैं. यही कारण है कि हर साल यहां तर्पण के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु उमड़ते हैं.
पिंडदान की प्रथा ऐसे हुई शुरू: प्रेतशिला को लेकर एक दंत कथा है कि ब्रह्मा जी सोने का पहाड़ ब्राह्मण को दान में दिया था, सोने का पहाड़ दान में देने के बाद ब्रह्मा जी ब्राह्मणों से शर्त रखा था, अगर आप लोग किसी से दान लेंगे, तो ये सोने का पर्वत ,पत्थरों का पर्वत हो जाएगा. राजा भोग ने झल से पंडा को दान दे दिया. इसके बाद ये पर्वत पत्थरों का पर्वत बन गया. ब्राह्मणों ने भगवान ब्रह्ना से गुहार लगाई. हम लोगों की जीविका कैसे चलेगी? ब्रह्मा जी ने कहा इस पहाड़ पर बैठकर मेरे पांव पर जो पिंडदान करेगा, उसके पितर को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलेगी. इस पर्वत पर तीन स्वर्ण रेखा है. कहा जाता है कि तीनों स्वर्ण रेखा में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान रहेंगे. इसके बाद से ही इस पर्वत को प्रेतशिला कहा गया है. ब्रहा जी के पदचिह्न पर पिंडदान होने लगा.
शाम 6 बजे के बाद कोई नहीं रुकता: लोगों का कहना है कि पहाड़ पर आज भी भूतों का डेरा है. रात्रि में 12 बजे के बाद प्रेत के भगवान आते हैं. पूरे विश्व मे सबसे पवित्र जगह यही है, इसलिए प्रेत यहां वास करते हैं. यहां कोई भी शाम 6 बजे के बाद नहीं रुकता है. पंडा भी 6 बजे के बाद अपने घर लौट जाते हैं. आत्माएं सूर्यास्त के बाद विशेष प्रकार की ध्वनि, छाया या फिर किसी और प्रकार से अपने होने का अहसास भी करावाती हैं.
पत्थरों के बीच से आती-जाती है आत्मा: प्रेतशिला के पास स्थित पत्थरों में विशेष प्रकार की छिद्र और दरारें हैं. इसके बारे में कहा जाता है कि इन पत्थरों के उस पार रोमांच और रहस्य की ऐसी दुनिया है जो लोक और परलोक के बीच कड़ी का काम करती है. इन दरारों के बारे में ये कहा जाता है कि प्रेत आत्माएं इनसे होकर आती है और अपने परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान को ग्रहण करके वापस चली जाती हैं. कहा जाता है कि लोग जब यहां पिंडदान करने पहुंचते हैं तो उनके पूर्वजों की आत्माएं भी उनके साथ यहां चली आती हैं.