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गया के जंगल में गोलघर बनाकर शिक्षा का अलख जगा रहे पति-पत्नी, गुरुकुल की तर्ज पर दी जा रही शिक्षा

दिल्ली से आकर पति-पत्नी ने ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को शिक्षित करने की ठानी (Education being given to children) है. पढ़ाई के साथ-साथ अपने आश्रम में वे खाना बनाने और खेती करने के बारे में भी बताते हैं. खास बात ये भी है कि बदले में छात्रों से मात्र एक किलो चावल बतौर फीस लिया जाता है. इस पहल से अभिभावक काफी खुश हैं. पढ़ें पूरी रिपोर्ट.

गया में गुरुकुल परंपरा
गया में गुरुकुल परंपरा
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Published : Sep 5, 2022, 9:08 PM IST

गया: कहते हैं कि अगर एक शिक्षक अगर ठान लें तो पूरे समाज को बदल सकता है. बिहार के गया में एक ऐसे ही दंपती हैं, जो बीहड़ में घूमने वाले को बच्चों को अपने पास रखकर शिक्षित कर रहे हैं. ये पति-पत्नी बच्चों को पढ़ाने के एवज में अभिभावक से मात्र एक किलो चावल लेते हैं. इस गुरुकुल (Gurukul tradition in Gaya) में बच्चों को बुनियादी शिक्षा के साथ-साथ खाना बनाने और खेती करने के बारे में भी सिखाया जाता है.

ये भी पढ़ें-Teacher's Day पर रोहतास में शिक्षक से दो लाख की लूट, फूट-फूटकर रोने लगे

बच्चों के बीच आकर्षन का केंद्र है गोलघर: बच्चों को रिझाने के लिए जंगल में गोलघर नुमा एक कमरा भी बनाया गया है. जंगल में यह गोलघर बच्चों के बीच आकर्षण का केंद्र होता है और दूसरी ओर बच्चे इस जंगल वाले इलाके में गुरुकुल की तर्ज पर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. वहीं खेती-बागवानी करके आय का उपार्जन भी किया जा रहा. ताकि, बच्चों की शिक्षा प्रभावित न हो सके. बच्चे खेती समेत अन्य कामों में भी हाथ बढ़ाते हैं.

भूदान की जमीन में खोल दिया सहोदय आश्रम: कभी दिल्ली में प्राइवेट काम करने वाले अनिल कुमार अब गया जिले के बाराचट्टी थाना अंतर्गत कहोवरी जंगल में रहते हैं. यहां वह अपनी पत्नी रेखा देवी के साथ मिलकर बच्चों के बीच शिक्षा का अलख जगा रहे हैं. इसमें अधिकांश बच्चे महादलित समुदाय के आते हैं. बच्चों को यहां अनोखे तरीके से निशुल्क शिक्षा दी जा रही है.

शुरूआत में बच्चे को नहीं भेजते थे अभिभावक: अनिल बताते हैं कि जब काहूदाग पंचायत के इस जंगल में भूदान की जमीन पर आया तो पेड़-पौधे नहीं थे. सबसे पहले हमने वहां पेड़ लगाया, उस के बाद बच्चों को गांव से जाकर बुलाया. शुरुआत के दिनों में अभिभावक मेरे साथ अपने बच्चों को रहने नहीं देते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोगों का मेरे प्रति विश्वास बढ़ा और फिर लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना शुरू किया.

अक्षर ज्ञान के अलावे दी जाती है अन्य शिक्षा: सहोदय आश्रम में बच्चों को अक्षर ज्ञान तो दिया ही जा रहा है, साथ ही साथ उन्हें गुरुकुल की परंपरा के तर्ज पर खेती के गुर, मवेशी से संबंधित, प्राकृतिक से संबंधित समेत अन्य शिक्षा भी दिए जाते हैं. यहां जो बच्चे पढ़ते हैं, उनमें एक बेहतर संस्कार भी शुमार हुआ है.

अचानक सबकुछ बदल गया: अनिल कुमार बताते हैं कि अचानक से उन्हें शहर छोड़ना पड़ा. वे दिल्ली में काम करते थे. लेकिन उनका लगाव जंगल-ग्रामीण इलाकों से ज्यादा करीब होता था. ऐसे में अचानक बाराचट्टी के कुहोवरी जंगल वाले इलाके में आए और यहां बिनोवा भावे की भूदान की जमीन पर लोगों की सहमति से गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए उपयोग करना शुरू किया. आज दर्जनों बच्चे हैं, जो आकर पढ़ रहे हैं. वह सिर्फ अक्षर ज्ञान ही नहीं, बल्कि खेती करने में, मवेशियों से संबंधित जानकारी प्राप्त करने, प्रकृति के बारे में जानकारी भी उन्हें दी जा रही है. बच्चे काफी मेधावी हो रहे हैं.

बच्चे दिखा रहे अपनी प्रतिभा: अनिल बताते हैं कि बच्चे इतने संस्कारशील हैं कि वे एक दूसरे की खुद मदद करते हैं. इससे उन्हें शिक्षा ग्रहण करने में कोई परेशानी भी नहीं आती है. वहीं, उनकी पत्नी रेखा देवी बताती हैं कि यहां सालों से गरीब बच्चों के बीच शिक्षा का अलग जगाया जा रहा है. यह एक तरफ से प्रयास है. इसे और बेहतर करने की कोशिश हम लोगों के द्वारा की जा रही है.

गुरुकुल की परंपरा को अपनाने की कोशिश: सहोदय आश्रम में सहयोगी हिमांशी कुमारी बताती है कि यहां काफी कुछ अच्छा है. गुरुकुल की परंपरा को अपनाने की एक कोशिश इस तरह से हो रही है. बच्चे काफी अच्छे हैं और पढ़ने में काफी तेज हैं. वहीं, छात्र पिंटू कुमार बताता है कि हमें यहां निशुल्क शिक्षा दी जाती है. किसी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जाता है. हमें खेती करने के बारे में भी सिखाया जाता है. वहीं मवेशी चराने के संबंध में भी जानकारी दी जाती है. इसके अलावा प्रकृति के संबंध में भी जानकारियां दी जाती है.

"देखिए हमारी कोशिश यही है कि हम एक ऐसी शिक्षा का स्पेस डेवलप करें, जहां बच्चे बिना दबाव के चीजों को सीखें और अपनी स्थानीय व्यवस्था को ज्यादा समझे. उनसे इनका संबंध मजबुत हो. ये नहीं कि ये केवल किताबी पढ़ाई तक सीमित रहे. इनका जो शिक्षण है इनके गांव से, इनके प्रकृति से, स्थानीय व्यवस्था से, हमारे पेड़-पौधे, जीव-जंतू से जुड़ा हो. हमें लगता है कि हमारे अस्तीत्व में इन लोगों का भी रोल है. तो हमारे बच्चों को भी ये समझना चाहिए की हमारे जीवन में क्या-क्या रोल है. बच्चें यहां अपने आस पास रखकर लोगों से सीखें. ये गुरूकुल ऐसा है, जिसमें कोई गुरू नहीं हैं. हमारे गुरू प्रकृति है. हमलोग स्थानीय भाषा पर जोड़ देते हैं. स्थानीय कला पर जोड़ देते हैं."- अनिल कुमार, शिक्षक, सहोदय आश्रम

"शिक्षा का जो व्यवस्था है, वो ये नहीं है कि किसी भी तरह से बच्चों को शिक्षित कर देना है. बच्चों को ये सिखाया जाता है कि जीवन क्या है. एक समग्र जीवन कैसा हो सकता है, उनसबों के लिए यहां पर एक प्रयास है. हम सिर्फ बातों में किताबों में न देखें. उनको बच्चे समझे. बच्चों को बांस और मिट्टी से खिलौने का निर्माण के बारे में भी सिखाया जाता है. खेती के बारे में भी बताया जाता है."- रेखा कुमारी, शिक्षिका

"यहां हमलोग सिर्फ पढ़ाई नहीं करते हैं. मिलकर खेती भी करते हैं और सब मिलकर पेंटिंग करते हैं और एक्टिवीटी भी करते हैं और ज्यादातर हमलोग एक दूसरे को पढ़ाते हैं. हमलोग छोटे बच्चों को भी पढ़ाते हैं. कोई दिक्कत होता है तो पूछ लेते हैं. मैं अभी 6 क्लाश में हूं."- पिंटू कुमार, छात्र

ये भी पढ़ें-शिक्षा मंत्री ने किया निपुण बिहार अभियान की शुरुआत, 20 शिक्षक-शिक्षिकाओं को किया सम्मानित

गया: कहते हैं कि अगर एक शिक्षक अगर ठान लें तो पूरे समाज को बदल सकता है. बिहार के गया में एक ऐसे ही दंपती हैं, जो बीहड़ में घूमने वाले को बच्चों को अपने पास रखकर शिक्षित कर रहे हैं. ये पति-पत्नी बच्चों को पढ़ाने के एवज में अभिभावक से मात्र एक किलो चावल लेते हैं. इस गुरुकुल (Gurukul tradition in Gaya) में बच्चों को बुनियादी शिक्षा के साथ-साथ खाना बनाने और खेती करने के बारे में भी सिखाया जाता है.

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बच्चों के बीच आकर्षन का केंद्र है गोलघर: बच्चों को रिझाने के लिए जंगल में गोलघर नुमा एक कमरा भी बनाया गया है. जंगल में यह गोलघर बच्चों के बीच आकर्षण का केंद्र होता है और दूसरी ओर बच्चे इस जंगल वाले इलाके में गुरुकुल की तर्ज पर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. वहीं खेती-बागवानी करके आय का उपार्जन भी किया जा रहा. ताकि, बच्चों की शिक्षा प्रभावित न हो सके. बच्चे खेती समेत अन्य कामों में भी हाथ बढ़ाते हैं.

भूदान की जमीन में खोल दिया सहोदय आश्रम: कभी दिल्ली में प्राइवेट काम करने वाले अनिल कुमार अब गया जिले के बाराचट्टी थाना अंतर्गत कहोवरी जंगल में रहते हैं. यहां वह अपनी पत्नी रेखा देवी के साथ मिलकर बच्चों के बीच शिक्षा का अलख जगा रहे हैं. इसमें अधिकांश बच्चे महादलित समुदाय के आते हैं. बच्चों को यहां अनोखे तरीके से निशुल्क शिक्षा दी जा रही है.

शुरूआत में बच्चे को नहीं भेजते थे अभिभावक: अनिल बताते हैं कि जब काहूदाग पंचायत के इस जंगल में भूदान की जमीन पर आया तो पेड़-पौधे नहीं थे. सबसे पहले हमने वहां पेड़ लगाया, उस के बाद बच्चों को गांव से जाकर बुलाया. शुरुआत के दिनों में अभिभावक मेरे साथ अपने बच्चों को रहने नहीं देते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोगों का मेरे प्रति विश्वास बढ़ा और फिर लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना शुरू किया.

अक्षर ज्ञान के अलावे दी जाती है अन्य शिक्षा: सहोदय आश्रम में बच्चों को अक्षर ज्ञान तो दिया ही जा रहा है, साथ ही साथ उन्हें गुरुकुल की परंपरा के तर्ज पर खेती के गुर, मवेशी से संबंधित, प्राकृतिक से संबंधित समेत अन्य शिक्षा भी दिए जाते हैं. यहां जो बच्चे पढ़ते हैं, उनमें एक बेहतर संस्कार भी शुमार हुआ है.

अचानक सबकुछ बदल गया: अनिल कुमार बताते हैं कि अचानक से उन्हें शहर छोड़ना पड़ा. वे दिल्ली में काम करते थे. लेकिन उनका लगाव जंगल-ग्रामीण इलाकों से ज्यादा करीब होता था. ऐसे में अचानक बाराचट्टी के कुहोवरी जंगल वाले इलाके में आए और यहां बिनोवा भावे की भूदान की जमीन पर लोगों की सहमति से गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए उपयोग करना शुरू किया. आज दर्जनों बच्चे हैं, जो आकर पढ़ रहे हैं. वह सिर्फ अक्षर ज्ञान ही नहीं, बल्कि खेती करने में, मवेशियों से संबंधित जानकारी प्राप्त करने, प्रकृति के बारे में जानकारी भी उन्हें दी जा रही है. बच्चे काफी मेधावी हो रहे हैं.

बच्चे दिखा रहे अपनी प्रतिभा: अनिल बताते हैं कि बच्चे इतने संस्कारशील हैं कि वे एक दूसरे की खुद मदद करते हैं. इससे उन्हें शिक्षा ग्रहण करने में कोई परेशानी भी नहीं आती है. वहीं, उनकी पत्नी रेखा देवी बताती हैं कि यहां सालों से गरीब बच्चों के बीच शिक्षा का अलग जगाया जा रहा है. यह एक तरफ से प्रयास है. इसे और बेहतर करने की कोशिश हम लोगों के द्वारा की जा रही है.

गुरुकुल की परंपरा को अपनाने की कोशिश: सहोदय आश्रम में सहयोगी हिमांशी कुमारी बताती है कि यहां काफी कुछ अच्छा है. गुरुकुल की परंपरा को अपनाने की एक कोशिश इस तरह से हो रही है. बच्चे काफी अच्छे हैं और पढ़ने में काफी तेज हैं. वहीं, छात्र पिंटू कुमार बताता है कि हमें यहां निशुल्क शिक्षा दी जाती है. किसी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जाता है. हमें खेती करने के बारे में भी सिखाया जाता है. वहीं मवेशी चराने के संबंध में भी जानकारी दी जाती है. इसके अलावा प्रकृति के संबंध में भी जानकारियां दी जाती है.

"देखिए हमारी कोशिश यही है कि हम एक ऐसी शिक्षा का स्पेस डेवलप करें, जहां बच्चे बिना दबाव के चीजों को सीखें और अपनी स्थानीय व्यवस्था को ज्यादा समझे. उनसे इनका संबंध मजबुत हो. ये नहीं कि ये केवल किताबी पढ़ाई तक सीमित रहे. इनका जो शिक्षण है इनके गांव से, इनके प्रकृति से, स्थानीय व्यवस्था से, हमारे पेड़-पौधे, जीव-जंतू से जुड़ा हो. हमें लगता है कि हमारे अस्तीत्व में इन लोगों का भी रोल है. तो हमारे बच्चों को भी ये समझना चाहिए की हमारे जीवन में क्या-क्या रोल है. बच्चें यहां अपने आस पास रखकर लोगों से सीखें. ये गुरूकुल ऐसा है, जिसमें कोई गुरू नहीं हैं. हमारे गुरू प्रकृति है. हमलोग स्थानीय भाषा पर जोड़ देते हैं. स्थानीय कला पर जोड़ देते हैं."- अनिल कुमार, शिक्षक, सहोदय आश्रम

"शिक्षा का जो व्यवस्था है, वो ये नहीं है कि किसी भी तरह से बच्चों को शिक्षित कर देना है. बच्चों को ये सिखाया जाता है कि जीवन क्या है. एक समग्र जीवन कैसा हो सकता है, उनसबों के लिए यहां पर एक प्रयास है. हम सिर्फ बातों में किताबों में न देखें. उनको बच्चे समझे. बच्चों को बांस और मिट्टी से खिलौने का निर्माण के बारे में भी सिखाया जाता है. खेती के बारे में भी बताया जाता है."- रेखा कुमारी, शिक्षिका

"यहां हमलोग सिर्फ पढ़ाई नहीं करते हैं. मिलकर खेती भी करते हैं और सब मिलकर पेंटिंग करते हैं और एक्टिवीटी भी करते हैं और ज्यादातर हमलोग एक दूसरे को पढ़ाते हैं. हमलोग छोटे बच्चों को भी पढ़ाते हैं. कोई दिक्कत होता है तो पूछ लेते हैं. मैं अभी 6 क्लाश में हूं."- पिंटू कुमार, छात्र

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