दरभंगाः मिथिला को उसकी बौद्धिक संपदा के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. यहां संरक्षित हजारों साल पुरानी पांडुलिपियों में ज्ञान का खजाना छिपा है. इसी तरह की एक पांडुलिपि है, 'पंजी'. जिसमें यहां के परिवारों की पीढ़ी दर पीढ़ी का हिसाब (conservation Of panji manuscript In darbhanga) रखा जाता है. इस पंजी से वर-वधु की छह पीढ़ियों की वंशावली के मिलान के बाद ही यहां विवाह करने की परंपरा रही है. लेकिन चिंता की बात ये है कि ये दुर्लभ पंजियां खस्ताहाल होती जा रही हैं और नष्ट होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं. लेकिन मिथिला की इस सांस्कृतिक धरोहर को दरभंगा के महाराजाधिराज लक्ष्मीश्वर सिंह संग्रहालय (Maharajadhiraj Lakshmishwar Singh Museum) ने बचाने की पहल की है.
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जब पूरी दुनिया में शादी ब्याह के मामले में जाति धर्म और देशों की सीमाएं तक खत्म हो रही हैं, तब मिथिला में आज भी इसी पंजी से रक्त संबंधियों का पता लगाया जाता है और शादी- ब्याह होते हैं. हालांकि अब इस परंपरा पर आधुनिकता का ग्रहण लग रहा है. ये दुर्लभ पंजियां नष्ट होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं. जानकारों का मानना है कि इस पंजी प्रथा का वैज्ञानिक महत्व भी है.
मिथिला में पंजी प्रथा की शुरुआत रामायण काल से मानी गई है. जब माता सीता और भगवान राम के विवाह में इसका उपयोग हुआ था. हालांकि इसे व्यवस्थित स्वरूप देकर संरक्षित करने का कार्य मिथिला के कर्णाट वंश के राजा हरिसिंह देव ने शुरू किया था. जिनका काल 1310 से 1326 ईस्वी तक माना जाता है. शुरुआत में यह व्यवस्था हिंदुओं की कई जातियों के लिए थी. बाद में यह प्रथा केवल मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों तक सीमित हो गई. इन दोनों जातियों में यह व्यवस्था आज तक कायम है.
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इन महत्वपूर्ण पंजियों को खस्ताहाल होता देख दरभंगा के महाराजाधिराज लक्ष्मीश्वर सिंह संग्रहालय ने इसे बचाने की पहल की है. संग्रहालय ने इंटैक, लखनऊ के सहयोग से मिथिला की सैकड़ों साल पुरानी पंजियों का संरक्षण शुरू किया है. मिथिला के पंजीकारों से इन दुर्लभ पांडुलिपियों को लेकर इंटैक, लखनऊ के विशेषज्ञों की टीम इसका संरक्षण कर रही है. इसके लिए 15 लाख रुपये का बजट निर्धारित किया गया है. अब तक करीब 6 हज़ार फोलियो का संरक्षण किया जा चुका है.
'इन पंजियों को इस तरीके से संरक्षित किया जा रहा है कि इनका कागज बिल्कुल नया हो जाता है और काफी समय तक खराब नहीं होता. संरक्षण के बाद कागज को लंबे समय तक तक पढ़ा और सुरक्षित रखा जा सकता है, हमारी पूरी टीम इस पांडुलिपि के संरक्षण में लगी है'.-विनोद तिवारी, विशेषज्ञ इंटैक, लखनऊ
'मिथिला की पंजी प्रथा एक महत्वपूर्ण विरासत है. जो अब नष्ट होने के कगार पर है. इन पंजियों में मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर है. इसी को देखते हुए संग्रहालय की ओर से इंटैक से अनुरोध किया गया कि इन पंजियों का संरक्षक किया जाए. 15 लाख रुपये की योजना से इनका संरक्षण शुरू कर दिया गया है. अब तक 6 हजार फोलियो का संरक्षण किया जा चुका है और आगे भी इसे जारी रखा जाएगा'- डॉ. शिवकुमार मिश्र, क्यूरेटर, महाराजाधिराज लक्ष्मीश्वर सिंह संग्रहालय
पंजी प्रथा पर रिसर्च करने वाले बिहार विधान परिषद के अधिकारी और इंटैक, बिहार चैप्टर के सह समन्वयक भैरव लाल दास ने बताया कि पंजी प्रथा का वैज्ञानिक महत्व है. उन्होंने कहा कि निकट के रक्त संबंधियों में शादी-ब्याह करने से कई सारी बीमारियों और शारीरिक दोष के फैलने का खतरा रहता है. इसी को देखते हुए मिथिला में पंजी प्रथा की शुरुआत हुई थी और पंजी से ही निकट संबंधियों का पता कर शादी-ब्याह का यहां निर्धारण होता है.
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वहीं, मैथिल ब्राह्मणों के पंजीकार डॉ. जयानंद मिश्र ने बताया कि वे लोग 6 पीढ़ियों तक की पंजी का रिकॉर्ड अपने यहां सुरक्षित रखते हैं, क्योंकि 6 पीढ़ियों तक ही पंजी से शादी-ब्याह के लिए मिलान का प्रावधान है. उन्होंने कहा कि इससे ज्यादा पुरानी पंजिया रिसर्च में काफी सहायक हो सकती हैं. इसलिए महाराजाधिराज लक्ष्मीश्वर सिंह संग्रहालय में उन्होंने अपनी पुरानी दुर्लभ पंजियों को संरक्षण के लिए दिया है.
बहरहाल, देर से ही सही लेकिन इन हजारों साल पुरानी पांडुलिपियों के संरक्षण काम शुरू हो चुका है. जिसे आने वाले कई वर्ष तक सहेज कर रखा जा सकता है और इन पर रिसर्च किया जा सकता है. साथ ही सालों पुरानी मिथिला की परंपरा भी कायम रह सकेगी.
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