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उस्ताद बिस्मिल्ला खां की 106 वीं जयंती : अपने ही घर में उपेक्षित हैं शहनाई के जादूगर

डुमरांव की गलियों से लेकर देश के चारों दिशाओं में अपनी शहनाई की धुन से लोगों को भाव-विभोर कर देने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खां (Ustad Bismillah Khan) निधन के 16 साल बाद भी अपने ही जन्म भूमि पर उपेक्षित हैं. लेकिन शहनाई के इस जादूगर की 106 वीं जयंती जिला प्रशासन द्वारा उनके पैतृक शहर डुमरांव में इस बार धूम-धाम से मनाई जा रही है.

उस्ताद बिस्मिल्ला खां
उस्ताद बिस्मिल्ला खां
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Published : Mar 21, 2022, 10:44 AM IST

बक्सरः हिंदुस्तान में शहनाई को पहचान दिलाने वाले भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पहचान मिटती जा रही है. यादों में सिमटती वो शहनाई की गूंज आधुनिकता की चकाचौंध में खो गई है. लेकिन आज भी जब जिक्र शहनाई का होता है तो दिल व दिमाग में सिर्फ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का ही चेहरा घूमता है. उनकी 106 वीं जयंती (Bismillah Khan Birth Anniversary Celebrate In Dumraon) जिला प्रशासन द्वारा उनके पैतृक शहर डुमरांव में इस बार धूम-धाम से मनाई जा रही है. आज 21 मार्च 2022 को संगीत के इस विरले फनकार की जयंती के मौके पर हम आपको बताएंगे कुछ खास बातें...

ये भी पढ़ेंः Buxar News: कचरे के ढेर में तब्दील हुआ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का शहर डुमरांव

आज ही के दिन जन्मे थे उस्तादः उस्ताद का जन्म 21 मार्च, 1916 को बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव गांव के मुस्लिम परिवार में हुआ था. पिछली पांच पीढ़ियों से इनका परिवार शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा. उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे और उनके पिता बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई बजाया करते थे. आपको जानकर हैरानी होगी, बिस्मिल्लाह महज 6 साल के थे जब वे अपने पिता पैंगंबर ख़ां के साथ बनारस आ गए. बनारस में बिस्मिल्लाह खां को उनके चाचा अली बक्श ‘विलायती’ ने संगीत की शिक्षा दी. वे बनारस के पवित्र विश्वनाथ मंदिर में अधिकृत शहनाई वादक थे.

14 साल में इलाहाबाद संगीत परिषद में बजाई थी शहनाईः जब उस्ताद 14 वर्ष के थे तब उन्होंने पहली बार इलाहाबाद के संगीत परिषद में शहनाई बजाने का कार्यक्रम किया था. इस कार्यक्रम के बाद उन्हें यह आत्मविश्वास हुआ की वे शहनाई के साथ संगीत के क्षेत्र में आगे बढ़ सकते है. फिर उन्होंने ‘बजरी’, ‘झूला’, ‘चैती’ जैसी प्रतिष्ठित लोक धुनों में शहनाई वादन किया और अपने कार्य की एक अलग पहचान बनाई. 15 अगस्त 1947 को जब देश आज़ादी का जश्न मना रहा था, लाल किले पर भारत का तिरंगा फहरा रहा था. तब बिस्मिल्लाह खां की शहनाई ने उस वातावरण को और भी मधुर कर दिया था.

अंतरराष्ट्रीय कला मंचों पर गूंजने लगी शहनाईः उस्ताद बिस्मिल्लाह खान भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह हस्ती हैं, जो बनारस के लोक सुर को शास्त्रीय संगीत के साथ घोलकर अपनी शहनाई की स्वर लहरियों के साथ गंगा की सीढ़ियों, मंदिर के नौबतखानों से गुंजाते हुए न सिर्फ आजाद भारत के पहले राष्ट्रीय महोत्सव में राजधानी दिल्ली तक लेकर आए. उनकी शहनाई सरहदों को लांघकर दुनिया भर में अमर हो गई. इस तरह मंदिरों, विवाह समारोहों और जनाजों में बजने वाली शहनाई अंतरराष्ट्रीय कला मंचों पर गूंजने लगी. वह अपने फन के इस कदर माहिर थे कि उन्हें साल 2001 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया. वर्ष 1956 में बिस्मिल्लाह खां को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वर्ष 1961 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. वर्ष 1968 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. वर्ष 1980 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. वहीं, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें तानसेन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था.

अपनी कमाई गरीबों को करते थे दानः उनको जानने वाले लोगों ने बताया कि शहनाई बजाने के बाद उन्हें जो भी राशि मिलती थी, वे उस राशि को गरीबों में दान कर देते थे या फिर अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने में लगा देते थे. वे हमेशा दूसरों के बारे में सोचते थे. खुद के बारे में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं होता था. लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचने के बाद भी उनके अंदर जो सादगी थी, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है. ऐसा कहा जाता है कि जब बिस्मिल्लाह खां साहब के जन्म की खबर उनके दादा जी ने सुनी तो अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हुए 'बिस्मिल्लाह' कहा और तब से उनका नाम बिस्मिल्लाह पड़ गया. लेकिन बिस्मिल्लाह खां का बचपन का नाम कमरूद्दीन खान बताया जाता है.

पूरे जिले में नहीं है कोई प्रतीक चिन्हः भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने ही जन्म भूमि पर उपेक्षित हैं. 21 अगस्त 2006 में निधन होने के 16 साल बाद भी उनके यादों को संजोकर रखने के लिए अब तक ना तो जिला प्रशासन के अधिकारियों द्वारा और ना ही जनप्रतिनिधियों द्वारा कोई कदम उठाया गया. आज पूरे जिले में ना तो उनके नाम पर कहीं कोई भवन है और ना ही संग्रहालय. ना ही स्कूल, कॉलेज या संगीत अकादमी उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने ही जिले में उपेक्षित हैं. प्रशासनिक उदासीनता के कारण आने वाली पीढ़ियां अब उस्ताद सिर्फ को किताबों के पन्नों में ही पढ़ा करेंगी. उनकी यादों को संजोकर रखा जा सके, इस पर किसी ने अब तक ध्यान नहीं दिया. पूरे जिले में किसी ने भी उनके नाम पर कोई प्रतीक चिन्ह नहीं बनवाया. लोकसभा और विधानसभा चुनाव में ही उस्ताद राजनेताओं को याद आते हैं. चुनाव जीतने के साथ ही वादे जुमले हो जाते हैं.

ये भी पढ़ेंः बिस्मिल्ला खां के पोते की चिट्ठी, 'मोदी के नामांकन में शामिल होने की इच्छा'

जुमला साबित हुआ मंत्री का वादाः हालांकि बिस्मिल्ला खां की 106 वीं जयंती जिला प्रशासन द्वारा उनके पैतृक शहर डुमरांव में मनाई तो जा रही है लेकिन वो सिर्फ एक कोरम पूरा करने भर ही है. 5 साल पहले केंद्र सरकार की पहल पर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का जन्म शताब्दी समारोह डुमराव में ही मनाया गया था. उस समय कृषि महाविद्यालय के सभागार से कई घोषणाएं की गईं. लेकिन अब तक इस अनमोल धरोहर के यादों को बचाकर रखने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया. 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वर्ष 2018 में केंद्रीय स्वास्थ्य परिवार कल्याण राज्य मंत्री सह स्थानीय सांसद अश्विनी कुमार चौबे ने भी उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के यादों को संजोकर रखने के लिए कई घोषणाएं की थी. चुनावी लाभ लेने के लिए डुमराव स्टेशन के टिकट घर की दीवार पर शहनाई बजाते हुए चित्र बनवाया गया. लेकिन चुनाव जीतने के साथ ही सारे वादे चुनावी घोषणा बनकर रह गए. आलम ये है कि जिस अनुमंडल में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने जन्म लिया, उस अनुमंडल के अधिकांश बड़े अधिकारियों को उनके पैतृक आवास का रास्ता भी मालूम नहीं है.

ये भी पढ़ेंः बिस्मिल्लाह खां : शहनाई के सुरों से जीता जहां, बिहार के बक्सर में मिली उपेक्षा

क्या कहते हैं स्थानीय लोगः स्थानीय लोगों ने बताया कि आज भी हम सब देश के किसी भी कोने में बड़े गर्व से कहते हैं कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खां मेरे ही शहर के रहने वाले थे. लोग बड़े ही सम्मान की नजर से देखते हैं. लेकिन आज अपने ही घर में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां उपेक्षित हैं. लंबे समय से उनकी पुश्तैनी जमीन पर संगीत अकादमी खोलने की मांग प्रशासन एवं जनप्रतिनधियों से की जा रही है. लेकिन अब तक किसी ने ध्यान नहीं दिया. 21 अगस्त 2006 में उनका निधन हो गया. बिस्मिल्लाह खां के सम्मान में उनके इंतकाल के बाद उनके साथ शहनाई भी दफन की गई थी. उन्होंने कहा था- 'सिर्फ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहजीब को एकाकार करने की ताकत रखती है'.

गौरतलब है कि लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव के दौरान हर बार कई वादे जनप्रतिनधियों द्वारा किए जाते हैं. लेकिन चुनाव खत्म होने के साथ ही वह वादे भी खत्म हो जाते हैं. धीरे-धीरे अब भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां किताबों के पन्नों में ही सिमटते जा रहे हैं. जिला प्रशासन के अधिकारियों के द्वारा उस्ताद विस्मिल्ला खां महत्सव 2022 जरूर इसबार धूमधाम से मनाया जा रहा है. लेकिन उनके नाम पर पूरे जिले में कोई प्रतीक चिन्ह नहीं है.

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बक्सरः हिंदुस्तान में शहनाई को पहचान दिलाने वाले भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पहचान मिटती जा रही है. यादों में सिमटती वो शहनाई की गूंज आधुनिकता की चकाचौंध में खो गई है. लेकिन आज भी जब जिक्र शहनाई का होता है तो दिल व दिमाग में सिर्फ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का ही चेहरा घूमता है. उनकी 106 वीं जयंती (Bismillah Khan Birth Anniversary Celebrate In Dumraon) जिला प्रशासन द्वारा उनके पैतृक शहर डुमरांव में इस बार धूम-धाम से मनाई जा रही है. आज 21 मार्च 2022 को संगीत के इस विरले फनकार की जयंती के मौके पर हम आपको बताएंगे कुछ खास बातें...

ये भी पढ़ेंः Buxar News: कचरे के ढेर में तब्दील हुआ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का शहर डुमरांव

आज ही के दिन जन्मे थे उस्तादः उस्ताद का जन्म 21 मार्च, 1916 को बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव गांव के मुस्लिम परिवार में हुआ था. पिछली पांच पीढ़ियों से इनका परिवार शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा. उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे और उनके पिता बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई बजाया करते थे. आपको जानकर हैरानी होगी, बिस्मिल्लाह महज 6 साल के थे जब वे अपने पिता पैंगंबर ख़ां के साथ बनारस आ गए. बनारस में बिस्मिल्लाह खां को उनके चाचा अली बक्श ‘विलायती’ ने संगीत की शिक्षा दी. वे बनारस के पवित्र विश्वनाथ मंदिर में अधिकृत शहनाई वादक थे.

14 साल में इलाहाबाद संगीत परिषद में बजाई थी शहनाईः जब उस्ताद 14 वर्ष के थे तब उन्होंने पहली बार इलाहाबाद के संगीत परिषद में शहनाई बजाने का कार्यक्रम किया था. इस कार्यक्रम के बाद उन्हें यह आत्मविश्वास हुआ की वे शहनाई के साथ संगीत के क्षेत्र में आगे बढ़ सकते है. फिर उन्होंने ‘बजरी’, ‘झूला’, ‘चैती’ जैसी प्रतिष्ठित लोक धुनों में शहनाई वादन किया और अपने कार्य की एक अलग पहचान बनाई. 15 अगस्त 1947 को जब देश आज़ादी का जश्न मना रहा था, लाल किले पर भारत का तिरंगा फहरा रहा था. तब बिस्मिल्लाह खां की शहनाई ने उस वातावरण को और भी मधुर कर दिया था.

अंतरराष्ट्रीय कला मंचों पर गूंजने लगी शहनाईः उस्ताद बिस्मिल्लाह खान भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह हस्ती हैं, जो बनारस के लोक सुर को शास्त्रीय संगीत के साथ घोलकर अपनी शहनाई की स्वर लहरियों के साथ गंगा की सीढ़ियों, मंदिर के नौबतखानों से गुंजाते हुए न सिर्फ आजाद भारत के पहले राष्ट्रीय महोत्सव में राजधानी दिल्ली तक लेकर आए. उनकी शहनाई सरहदों को लांघकर दुनिया भर में अमर हो गई. इस तरह मंदिरों, विवाह समारोहों और जनाजों में बजने वाली शहनाई अंतरराष्ट्रीय कला मंचों पर गूंजने लगी. वह अपने फन के इस कदर माहिर थे कि उन्हें साल 2001 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया. वर्ष 1956 में बिस्मिल्लाह खां को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वर्ष 1961 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. वर्ष 1968 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. वर्ष 1980 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. वहीं, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें तानसेन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था.

अपनी कमाई गरीबों को करते थे दानः उनको जानने वाले लोगों ने बताया कि शहनाई बजाने के बाद उन्हें जो भी राशि मिलती थी, वे उस राशि को गरीबों में दान कर देते थे या फिर अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने में लगा देते थे. वे हमेशा दूसरों के बारे में सोचते थे. खुद के बारे में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं होता था. लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचने के बाद भी उनके अंदर जो सादगी थी, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है. ऐसा कहा जाता है कि जब बिस्मिल्लाह खां साहब के जन्म की खबर उनके दादा जी ने सुनी तो अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हुए 'बिस्मिल्लाह' कहा और तब से उनका नाम बिस्मिल्लाह पड़ गया. लेकिन बिस्मिल्लाह खां का बचपन का नाम कमरूद्दीन खान बताया जाता है.

पूरे जिले में नहीं है कोई प्रतीक चिन्हः भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने ही जन्म भूमि पर उपेक्षित हैं. 21 अगस्त 2006 में निधन होने के 16 साल बाद भी उनके यादों को संजोकर रखने के लिए अब तक ना तो जिला प्रशासन के अधिकारियों द्वारा और ना ही जनप्रतिनिधियों द्वारा कोई कदम उठाया गया. आज पूरे जिले में ना तो उनके नाम पर कहीं कोई भवन है और ना ही संग्रहालय. ना ही स्कूल, कॉलेज या संगीत अकादमी उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने ही जिले में उपेक्षित हैं. प्रशासनिक उदासीनता के कारण आने वाली पीढ़ियां अब उस्ताद सिर्फ को किताबों के पन्नों में ही पढ़ा करेंगी. उनकी यादों को संजोकर रखा जा सके, इस पर किसी ने अब तक ध्यान नहीं दिया. पूरे जिले में किसी ने भी उनके नाम पर कोई प्रतीक चिन्ह नहीं बनवाया. लोकसभा और विधानसभा चुनाव में ही उस्ताद राजनेताओं को याद आते हैं. चुनाव जीतने के साथ ही वादे जुमले हो जाते हैं.

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जुमला साबित हुआ मंत्री का वादाः हालांकि बिस्मिल्ला खां की 106 वीं जयंती जिला प्रशासन द्वारा उनके पैतृक शहर डुमरांव में मनाई तो जा रही है लेकिन वो सिर्फ एक कोरम पूरा करने भर ही है. 5 साल पहले केंद्र सरकार की पहल पर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का जन्म शताब्दी समारोह डुमराव में ही मनाया गया था. उस समय कृषि महाविद्यालय के सभागार से कई घोषणाएं की गईं. लेकिन अब तक इस अनमोल धरोहर के यादों को बचाकर रखने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया. 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वर्ष 2018 में केंद्रीय स्वास्थ्य परिवार कल्याण राज्य मंत्री सह स्थानीय सांसद अश्विनी कुमार चौबे ने भी उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के यादों को संजोकर रखने के लिए कई घोषणाएं की थी. चुनावी लाभ लेने के लिए डुमराव स्टेशन के टिकट घर की दीवार पर शहनाई बजाते हुए चित्र बनवाया गया. लेकिन चुनाव जीतने के साथ ही सारे वादे चुनावी घोषणा बनकर रह गए. आलम ये है कि जिस अनुमंडल में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने जन्म लिया, उस अनुमंडल के अधिकांश बड़े अधिकारियों को उनके पैतृक आवास का रास्ता भी मालूम नहीं है.

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क्या कहते हैं स्थानीय लोगः स्थानीय लोगों ने बताया कि आज भी हम सब देश के किसी भी कोने में बड़े गर्व से कहते हैं कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खां मेरे ही शहर के रहने वाले थे. लोग बड़े ही सम्मान की नजर से देखते हैं. लेकिन आज अपने ही घर में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां उपेक्षित हैं. लंबे समय से उनकी पुश्तैनी जमीन पर संगीत अकादमी खोलने की मांग प्रशासन एवं जनप्रतिनधियों से की जा रही है. लेकिन अब तक किसी ने ध्यान नहीं दिया. 21 अगस्त 2006 में उनका निधन हो गया. बिस्मिल्लाह खां के सम्मान में उनके इंतकाल के बाद उनके साथ शहनाई भी दफन की गई थी. उन्होंने कहा था- 'सिर्फ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहजीब को एकाकार करने की ताकत रखती है'.

गौरतलब है कि लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव के दौरान हर बार कई वादे जनप्रतिनधियों द्वारा किए जाते हैं. लेकिन चुनाव खत्म होने के साथ ही वह वादे भी खत्म हो जाते हैं. धीरे-धीरे अब भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां किताबों के पन्नों में ही सिमटते जा रहे हैं. जिला प्रशासन के अधिकारियों के द्वारा उस्ताद विस्मिल्ला खां महत्सव 2022 जरूर इसबार धूमधाम से मनाया जा रहा है. लेकिन उनके नाम पर पूरे जिले में कोई प्रतीक चिन्ह नहीं है.

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