आराः बिहार के भोजपुर में मोहर्रम (Moharram In Bhojpur) को लेकर तमाम इमामबाड़ो में मजलिस (कथा वाचन) का सिलसिला जारी है. इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक आज मोहर्रम की तीसरी तारीख है. आरा के महादेवा स्थित डिप्टी शेर अली, हुसैन मंजिल, हादी मार्केट, फाटक (धर्मन चौक) और बाबे हैदर (मिल्की मोहल्ला) के इमामबाड़े में बूढ़ों से लेकर बच्चों तक का हुजूम है, जो इमाम हुसैन की याद में मरसियाखानी (शोक कथा) और नौहेखानी करने में मश्गूल हैं. मजलिस का ये सिलसिला 9 मोहर्रम तक चलेगा और दसवीं तारीख को ताजिया पहलाम किया जाएगा.
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एक दिन में 72 लोग हुए थे शहीदः इतिहासकारों के मुताबिक हजरत इमाम हुसैन (Hazrat Imam Hussain) 2 मोहर्रम को अपने छोटे से काफिले के साथ कर्बला की सरजमीन पर पहुंचे थे, जो इराक में स्थित है. जहां मोहर्रम की दसवीं तारीख को यजीद की फौज ने इमाम हुसैन के साथ 72 अन्य लोगों को तीन दिनों तक भूखा प्यासा रख कर शहीद कर दिया था.
इनमें 6 माह के उनके बेटे अली असगर भी शामिल थे. शहीद होने वालों में हुसैन के करीबियों में उनके बेटे, भतीजे, भाई, भांजे, और कई दोस्त और गुलाम समेत 71 लोग शामिल थे. एक दिन में इमाम के पूरे खानदान का कत्ल कर दिया गया था. सच्चाई और जुल्म के खिलाफ सन 61 हिजरी में लड़ी गई ये जंग आज भी लोगों को मानवता और जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद रखने की सीख देती है.
'इमाम हुसैन मानवता की सबसे बड़ी मिसाल': आरा के डिप्टी शेर अली के इमामबाड़े में ईरान से आए मौलाना हाफिज हसन असगर ने एक मजलिस में लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि इमाम हुसैन के बताए हुए रास्ते पर चल कर आज दुनिया में अमन और चैन स्थापित किया जा सकता है. इमाम हुसैन और उनके परिवार पर जो जुल्म हुए वो दुनिया में मनावता को शर्मसार करने वाली सबसे बड़ी घटना है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता.
इतने जुल्म के बावजूद इमाम हुसैन, उनके परिवार वालों और दोस्तों ने सच्चाई और मानवता का दामन नहीं छोड़ा, बर्बता के खिलाफ लड़ते-लड़ते जान दे दी और यही वजह है कि आज इतने सालों बाद भी इमाम हुसैन हर कौम के लोगों के लिए मानवता की सबसे बड़ी मिसाल हैं.
"हजरत इमाम हुसैन ने शाम (सिरिया) के क्रूर शासक यजीद के खिलाफ इस आंनदोलन दौरान कई जगहों पर मानवता का भरपूर परिचय दिया था, उनमें से एक ये है कि अपने काफिले में पानी की कमी होने के बावजूद हुसैन ने सारा पानी एक जगह पर यजीद की फौज और उनके जानवरों को पिलवा दिया. उस वक्त यजीद की फौज में पानी खत्म हो चुका था और उसके सैनिक प्यास से तड़प रहे थे. ऐसी कितनी घटनाएं हैं, जिसमें इमाम हुसैन ने मानवता की मिसालें पेश की हैं. करबला की ये जंग हर दौर के लोगों के लिए प्रसांगिक है"- हाफिज हसन असगर, मौलाना (ईरान)
क्यों मनाया जाता है मोहर्रमः करबला में इमाम हुसैन की शहादत को याद करके मुसलमान मोहर्रम में गम मनाते है. मोहर्रम के महीने की शुरूआत होते ही मुसलमान शोक में डूब जाते हैं. ज्यादातर घरों में शादी और अन्य शुभ काम नहीं होते है. शिया समुदाय के लोग तो 2 महीने 8 दिन तक शोक मनाते हैं. इस दौरान इस समुदाय के लोग चमकदार कपड़ों से परहेज करते हैं. ज्यादातर लोग काला कपड़ा पहनते हैं. 2 महीने 8 दिन तक अपने घरों में शादी-ब्याह सहित अन्य खुशियों वाला कोई आयोजन नहीं करते हैं. यही नहीं वे लोग किसी अन्य समुदाय की खुशियों में शरीक होने से बचते हैं. इसके अलावा शिया समुदाय की महिलाएं इस दौरान श्रृंगार से भी परहेज करती हैं.
इस्लाम के मुताबिक मोहर्रम साल का पहला महीनाः इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक नए साल की शुराआत मोहर्रम महीने से ही होती है. दरअसल इस्लाम की शुरुआत जहां से हुई यानी मदीना से कुछ दूरी पर माआविया नाम के खलिफा का शासन था. माआविया की मौत के बाद उनके बेटे यजीद को शाही उत्तराधिकारी के तौर पर राजगद्दी पर बैठने का मौका मिला. जो निहायत ही अमार्यादित किस्म के इंसान था. शराब और शबाब में हर समय डूबा रहता है. लोगों के दिलों में यजीद का इतना खौफ था कि लोग यजीद के नाम से कांपते थे.
अपने तरीके से इस्लाम को चलाना चाहता था यजीदः पैगंबर मोहम्मद की मौत के बाद यजीद इस्लाम को अपने तरीके से चलाना चाहता था. जिसके लिए यजीद ने पैगंबर मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन से कहा कि वह उसका अनुसरण करें और खुद को उसका खलीफा स्वीकार करें. यजीद को लगता था कि अगर इमाम हुसैन उसे अपना खलीफा स्वीकार कर लेंगे तो वह इस्लाम और इस्लाम के अनुयायियों पर शासन कर सकेगा. लेकिन इमाम हुसैन ने उसको खलीफा मानने से इंकार कर दिया. यही वजह थी कि यजीद ने अपनी तीस हजार की फौज को करबला के मैदान में भेज कर इमाम हुसैन और उनके पूरे परिवार को भूखा प्यासा शहीद कर दिया. ये जंग दुनिया के इतिहास में ऐसी जंग है, जिसकी मिसाल आज भी नहीं मिलती.