बांका: रंगों का त्योहार होली आज पूरे देश में मनाया जा रहा है. इस दिन लोग जमकर एक दूसरे पर रंग और अबीर डालते हैं, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि बांका जिले की बड़ी आबादी होली के रंगों से दूर है. बौंसी, कटोरिया, बेलहर, चांदन और फुल्लीडुमर प्रखंड में फैली आदिवासियों की एक लाख से अधिक की आबादी को होली में रंग नहीं लगाती.
ये भी पढ़ेंः Holi 2023: सहरसा के बनगांव में ब्रज वाली होली, यहां की हुड़दंगी घुमौर होली नहीं देखी तो फिर क्या देखा..
रंग डालने से बुरा मानते हैं लोगः दरअसल बांका जिले के कई गांव के आदिवासी रंग की जगह पानी से होली खेलते हैं. पानी भी बिल्कुल सादा, अगर आपने किसी आदिवासी पर रंग डाल दिया तो पूरा समाज इसे बुरा मान जाता है. आदिवासी समाज के नेता बासुकी ने कहा कि खासकर अगर आपने किसी लड़की या महिला पर रंग डाल दिया तो समाज कड़ी सजा का प्रवधान करता है.
पानी की होली खेलने की परंपराः आदिवासियों की मान्यता है कि जलजला से विनष्ट हुए प्राणियों में जाहेर ऐरा देवी की अमृत वर्षा से आदिवासियों को नवजीवन की प्राप्ति हुई है. तभी से पूजा-अर्चना के साथ संताल आदिवासियों के महापर्व में पानी की होली खेलने की परंपरा है. पूर्व प्रमुख सह मांझी परगना के बाबूराम बास्की, सोनेलाल टुडू, कार्तिक मुर्मू ने संताल आदिवासी जनजातियों के पानी की होली खेलने की बात कही है.
ऐसी है धार्मिक मान्यताः बाबूराम बास्की ने बताते हैं कि प्राचीन काल में जंगल में निवास करने वाले वन क्षेत्र के अंचलों में अग्नि वर्षा से हाहाकार मचने से मानव, पशु-पक्षी सभी विनष्ट होने लगे थे. इस तरह प्राणियों के विलुप्त होने की संभावनाओं पर जनजीवन की मंगल कामनाओं को लेकर जाहेर ऐरा देवी (आदिवासियों का देवता) की पूजा-अर्चना की गई. देवी ने प्रसन्न होकर अमृत वर्षा की और विलुप्त हो रहे प्राणियों में नवजीवन का संचार हुआ.
पानी से तीन दिनों तक खेलते हैं होलीः मान्यताओं के अनुसार होली के चार रोज पहले फाल्गुन शुक्ल रंगभरी एकादशी से दो-तीन दिनों तक महापर्व मनाते हैं. पूजा-अर्चना के बाद गांव की आदिवासी पुरुष-महिलाओं ने हर्षोल्लास से नाचते-गाते और पानी की होली खेलते हैं. केमिकल युक्त रंगों से जहां लोगों के चेहरे पर बुरा प्रभाव पड़ता है, ऐसी स्थिति में पानी की होली मानव जीवन के लिए हितकर भी है.