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बड़े दलों से अदावत में बिखरा कुनबा, 6 फीसदी वोट बैंक की सियासत से कैसे वापसी कर पाएंगे चिराग और सहनी?

पहले चिराग पासवान और अब मुकेश सहनी की पार्टी टूट चुकी है. दोनों अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसके साथ ही बिहार की सियासत में छोटे दलों का हस्तक्षेप भी धीरे-धीरे से सिमटता दिख रहा है. बड़े दल अब छोटे दलों के दबाव में आने को तैयार नहीं दिख रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि चिराग और सहनी के राजनीतिक भविष्य का क्या होगा. हालांकि दोनों की ओर से दावे बड़े-बड़े हो रहे हैं लेकिन सच ये भी है कि 6 फीसदी वोट बैंक की सियासत (Politics of 6 Percent Vote Bank) की बदौलत वापसी आसान नहीं होगी. पढ़े खास रिपोर्ट...

चिराग और सहनी में दर्द का रिश्ता
चिराग और सहनी में दर्द का रिश्ता
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Published : Mar 31, 2022, 5:21 PM IST

पटना: पिछले कुछ समय से बिहार की राजनीति में छोटे दलों की भूमिका (Role of Small Parties in Bihar Politics) सीमित होती जा रही है. खासतौर पर दलित और अति पिछड़ों की नुमाइंदगी करने वाले नेता एक-एक कर हाशिए पर जाते दिख रहे हैं. बड़े दलों से टकराव की वजह से छोटे दलों को खामियाजा भुगतना पड़ा है. पहले एलजेपीआर अध्यक्ष चिराग पासवान (LJPR President Chirag Paswan) और अब वीआईपी चीफ मुकेश सहनी (VIP Chief Mukesh Sahani) की पार्टी टूट चुकी है. सियासत में दोनों का दर्द एक जैसा है. दोनों नेता 6 फीसदी वोट बैंक की राजनीति करने का दावा करते हैं. चिराग जहां दलित सियासत के 'प्रतीक' बन गए हैं, वहीं सहनी अति पिछड़ा वोट बैंक पर अपना दावा करते हैं.

ये भी पढ़ें: नीतीश को मछुआरों के 'जाल' में फंसने का डर, कहीं इसलिए तो नहीं मुकेश सहनी की बर्खास्तगी को BJP के मत्थे डाला!

6 फीसदी वोट बैंक की सियासत: बिहार में निषाद और पासवान वोट करीब-करीब 6 प्रतिशत. दलित वोट बैंक जहां चिराग की ताकत है तो वहीं मुकेश सहनी निषादों के वोट के आसरे आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि दोनों की सियासत में अंतर है. चिराग पासवान को विरासत में सियासत मिली लेकिन मुकेश सहनी ने खुद की बदौलत सियासी जमीन तैयार की है. चिराग को जहां नीतीश कुमार से दुश्मनी महंगी पड़ी तो वहीं सहनी को बीजेपी से पंगा लेना महंगा पड़ा. दोनों ही नेताओं को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) छोड़ना पड़ा और आज की तारीख में उनकी राजनीतिक नैया मझधार में फंसी है. बिहार की राजनीति का कड़वा सच यह भी है कि जिस वोट बैंक का दावा मुकेश सहनी और चिराग पासवान करते हैं, उस वोट बैंक के सहारे बिहार में विधानसभा की एक भी सीट नहीं जीती जा सकती है. ऐसे में दोनों नेताओं को किसी मजबूत कंधे के सहारे की जरूरत है. 'एकला चलो रे' की राह पर चलना दोनों नेताओं के लिए अग्निपथ पर चलने से भी ज्यादा कठिन साबित होगा.

नीतीश से अदावत, एलजेपी में दो फाड़: रामविलास पासवान के निधन के तुरंत बाद बिहार में विधानसभा चुनाव के दौरान चिराग ने जेडीयू से दो-दो हाथ किया था और उसको जमकर नुकसान भी पहुंचाया. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो बन गई लेकिन उनकी पार्टी महज 43 सीट ही जीत पाई. बाद में जेडीयू ने इसका बदला लिया और लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) को दो टुकड़ों में बांट दिया गया. चिराग पार्टी में अकेले सांसद रह गए और पशुपति पारस को नीतीश कुमार की मदद से केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया.

बीजेपी से दुश्मनी सहनी को महंगी पड़ी: उधर, मुकेश सहनी को बीजेपी से दुश्मनी महंगी पड़ी. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ना और उस दौरान खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सीएम योगी आदित्यनाथ की मुखालफत बीजेपी को नागवार गुजरी. ऊपर से बोचहां विधानसभा उपचुनाव में मुकेश सहनी की ओर से उम्मीदवार खड़ा करना आत्मघाती साबित हुआ. बिना देरी किए बीजेपी ने वीआईपी के तीनों विधायकों को पार्टी में शामिल करा लिया. इतना ही नहीं सहनी को नीतीश मंत्रिमंडल से भी बाहर कर दिया गया.

चिराग अभी भी मजबूत नेता: एलजेपी (आर) प्रवक्ता चंदन सिंह दावा करते हैं कि चिराग पासवान बिहार के मजबूत नेता हैं और सभी वर्गों में उनकी पकड़ है. उनके मुताबिक आशीर्वाद यात्रा के दौरान उन्हें व्यापक जन समर्थन भी मिला है. चंदन कहते हैं कि बिहार की जनता जानती है कि नीतीश कुमार और ललन सिंह ने मिलकर एलजेपी में बंटवारा करवाया लेकिन इसके बावजूद चिराग पासवान मजबूती से बिहार की राजनीति में उभर कर सामने आए हैं.

हाशिये पर चिराग पासवान: चिराग की सियासत पर जेडीयू नेता और पूर्व विधायक अशोक सिंह कहते हैं कि चिराग पासवान को अपने पिता रामविलास पासवान से सीखना चाहिए था. हमलोगों उनके साथ रहे हैं, उनका स्वभाव और उनकी जानकारी अलग किस्म की थी लेकिन लगता है कि चिराग ने अपने पिताजी से राजनीति नहीं सीखी, जिसका नुकसान उनको हुआ है. वे यह भी कहते हैं कि आज की तारीख में चिराग हाशिये पर हैं.

मुकेश सहनी का सियासी भविष्य: मुकेश सहनी को लेकर बीजेपी विधायक और पूर्व मंत्री राणा रणधीर सिंह कहते हैं कि वो बड़े नेता हैं. लिहाजा उनके बारे में हमारी पार्टी के कोई बड़े नेता ही कुछ कह सकते हैं लेकिन ये जरूर कह सकता हूं कि जिस तरह वह लगातार बीजेपी विरोधी मुहिम में लगे थे, वैसे में बीजेपी के पास कोई विकल्प नहीं था. आखिरकार हमें उनको एनडीए से अलग करना ही पड़ा. हालांकि वीआईपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव मिश्रा कहते हैं कि हमें किसी सहारे की जरूरत नहीं है. हमलोग मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं. उनका दावा है कि मुकेश साहनी के नेतृत्व में बिहार में पार्टी बेहतर करेगी. वैसे भी बीजेपी ने हमें ऑफर देकर गठबंधन में बुलाया था.

छोटे दलों पर बड़े दलों की नजर: एनडीए में चिराग पासवान और मुकेश सहनी के साथ हुए बर्ताव पर विपक्ष को हमला करने का मौका मिल गया है. आरजेडी प्रवक्ता रामानुज प्रसाद ने कहा कि ये बात सच है कि बड़े दल छोटे दलों को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बड़े दलों ने पहले एलजेपी और अब वीआईपी को किनारे कर दिया. उन्होंने कहा कि राजनीति में ऐसा होता है कि बड़ी मछलियां अक्सर छोटी मछलियों को खा जाती है, बिहार में भी वैसा ही देखने को मिला है.

ये भी पढ़ें: बोले सांसद चिराग पासवान- 'सीएम नीतीश के इशारे पर मुकेश सहनी को बनाया गया बलि का बकरा'

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पटना: पिछले कुछ समय से बिहार की राजनीति में छोटे दलों की भूमिका (Role of Small Parties in Bihar Politics) सीमित होती जा रही है. खासतौर पर दलित और अति पिछड़ों की नुमाइंदगी करने वाले नेता एक-एक कर हाशिए पर जाते दिख रहे हैं. बड़े दलों से टकराव की वजह से छोटे दलों को खामियाजा भुगतना पड़ा है. पहले एलजेपीआर अध्यक्ष चिराग पासवान (LJPR President Chirag Paswan) और अब वीआईपी चीफ मुकेश सहनी (VIP Chief Mukesh Sahani) की पार्टी टूट चुकी है. सियासत में दोनों का दर्द एक जैसा है. दोनों नेता 6 फीसदी वोट बैंक की राजनीति करने का दावा करते हैं. चिराग जहां दलित सियासत के 'प्रतीक' बन गए हैं, वहीं सहनी अति पिछड़ा वोट बैंक पर अपना दावा करते हैं.

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6 फीसदी वोट बैंक की सियासत: बिहार में निषाद और पासवान वोट करीब-करीब 6 प्रतिशत. दलित वोट बैंक जहां चिराग की ताकत है तो वहीं मुकेश सहनी निषादों के वोट के आसरे आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि दोनों की सियासत में अंतर है. चिराग पासवान को विरासत में सियासत मिली लेकिन मुकेश सहनी ने खुद की बदौलत सियासी जमीन तैयार की है. चिराग को जहां नीतीश कुमार से दुश्मनी महंगी पड़ी तो वहीं सहनी को बीजेपी से पंगा लेना महंगा पड़ा. दोनों ही नेताओं को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) छोड़ना पड़ा और आज की तारीख में उनकी राजनीतिक नैया मझधार में फंसी है. बिहार की राजनीति का कड़वा सच यह भी है कि जिस वोट बैंक का दावा मुकेश सहनी और चिराग पासवान करते हैं, उस वोट बैंक के सहारे बिहार में विधानसभा की एक भी सीट नहीं जीती जा सकती है. ऐसे में दोनों नेताओं को किसी मजबूत कंधे के सहारे की जरूरत है. 'एकला चलो रे' की राह पर चलना दोनों नेताओं के लिए अग्निपथ पर चलने से भी ज्यादा कठिन साबित होगा.

नीतीश से अदावत, एलजेपी में दो फाड़: रामविलास पासवान के निधन के तुरंत बाद बिहार में विधानसभा चुनाव के दौरान चिराग ने जेडीयू से दो-दो हाथ किया था और उसको जमकर नुकसान भी पहुंचाया. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो बन गई लेकिन उनकी पार्टी महज 43 सीट ही जीत पाई. बाद में जेडीयू ने इसका बदला लिया और लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) को दो टुकड़ों में बांट दिया गया. चिराग पार्टी में अकेले सांसद रह गए और पशुपति पारस को नीतीश कुमार की मदद से केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया.

बीजेपी से दुश्मनी सहनी को महंगी पड़ी: उधर, मुकेश सहनी को बीजेपी से दुश्मनी महंगी पड़ी. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ना और उस दौरान खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सीएम योगी आदित्यनाथ की मुखालफत बीजेपी को नागवार गुजरी. ऊपर से बोचहां विधानसभा उपचुनाव में मुकेश सहनी की ओर से उम्मीदवार खड़ा करना आत्मघाती साबित हुआ. बिना देरी किए बीजेपी ने वीआईपी के तीनों विधायकों को पार्टी में शामिल करा लिया. इतना ही नहीं सहनी को नीतीश मंत्रिमंडल से भी बाहर कर दिया गया.

चिराग अभी भी मजबूत नेता: एलजेपी (आर) प्रवक्ता चंदन सिंह दावा करते हैं कि चिराग पासवान बिहार के मजबूत नेता हैं और सभी वर्गों में उनकी पकड़ है. उनके मुताबिक आशीर्वाद यात्रा के दौरान उन्हें व्यापक जन समर्थन भी मिला है. चंदन कहते हैं कि बिहार की जनता जानती है कि नीतीश कुमार और ललन सिंह ने मिलकर एलजेपी में बंटवारा करवाया लेकिन इसके बावजूद चिराग पासवान मजबूती से बिहार की राजनीति में उभर कर सामने आए हैं.

हाशिये पर चिराग पासवान: चिराग की सियासत पर जेडीयू नेता और पूर्व विधायक अशोक सिंह कहते हैं कि चिराग पासवान को अपने पिता रामविलास पासवान से सीखना चाहिए था. हमलोगों उनके साथ रहे हैं, उनका स्वभाव और उनकी जानकारी अलग किस्म की थी लेकिन लगता है कि चिराग ने अपने पिताजी से राजनीति नहीं सीखी, जिसका नुकसान उनको हुआ है. वे यह भी कहते हैं कि आज की तारीख में चिराग हाशिये पर हैं.

मुकेश सहनी का सियासी भविष्य: मुकेश सहनी को लेकर बीजेपी विधायक और पूर्व मंत्री राणा रणधीर सिंह कहते हैं कि वो बड़े नेता हैं. लिहाजा उनके बारे में हमारी पार्टी के कोई बड़े नेता ही कुछ कह सकते हैं लेकिन ये जरूर कह सकता हूं कि जिस तरह वह लगातार बीजेपी विरोधी मुहिम में लगे थे, वैसे में बीजेपी के पास कोई विकल्प नहीं था. आखिरकार हमें उनको एनडीए से अलग करना ही पड़ा. हालांकि वीआईपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव मिश्रा कहते हैं कि हमें किसी सहारे की जरूरत नहीं है. हमलोग मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं. उनका दावा है कि मुकेश साहनी के नेतृत्व में बिहार में पार्टी बेहतर करेगी. वैसे भी बीजेपी ने हमें ऑफर देकर गठबंधन में बुलाया था.

छोटे दलों पर बड़े दलों की नजर: एनडीए में चिराग पासवान और मुकेश सहनी के साथ हुए बर्ताव पर विपक्ष को हमला करने का मौका मिल गया है. आरजेडी प्रवक्ता रामानुज प्रसाद ने कहा कि ये बात सच है कि बड़े दल छोटे दलों को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बड़े दलों ने पहले एलजेपी और अब वीआईपी को किनारे कर दिया. उन्होंने कहा कि राजनीति में ऐसा होता है कि बड़ी मछलियां अक्सर छोटी मछलियों को खा जाती है, बिहार में भी वैसा ही देखने को मिला है.

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