पटना: 2022 में 5 राज्यों के लिए होने वाली सत्ता की हुकूमत की जंग के लिए बीजेपी (BJP) ने अपने शीर्ष कमांडरों की तैनाती कर दी है. उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के लिए बीजेपी ने चुनाव प्रभारियों को नियुक्त किया है. बात जिम्मेदारी की करें तो उत्तर प्रदेश में धर्मेंद्र प्रधान (Dharmendra Pradhan), गजेंद्र सिंह शेखावत को पंजाब, भूपेंद्र यादव (Bhupendra Yadav) को मणिपुर, प्रह्लाद पटेल को उत्तराखंड और देवेंद्र फडणवीस (Devendra Fadnavis) को गोवा का प्रभारी बनाया गया है.
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देश की राजनीति के लिए यह शब्द बड़ा सामान्य है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता यूपी से होकर जाता है और जिसने यूपी फतेह कर ली वह दिल्ली की गद्दी पर राज करेगा. 22 की लड़ाई 24 के उस सिंहासन के फतेह का आगाज है, जो नरेंद्र मोदी की 2024 में फिर से ताजपोशी करेगा और इसकी पूरी जिम्मेदारी धर्मेंद्र प्रधान के कंधों पर दी गई है.
ऐसा नहीं है कि धर्मेंद्र प्रधान को पहली बार ऐसी भूमिका दी गई है. 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर तैयार हो रहे थे तो देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक रूप से मजबूत राज्य बिहार की जिम्मेदारी धर्मेंद्र प्रधान के कंधे पर थी और वहां से उन्होंने नरेंद्र मोदी के लिए क्लीन स्वीप दिया था. 22 में यूपी का आधार कुछ इसी तरह से सोचा जा रहा है.
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2022 में जिन पांच राज्यों में चुनाव होना है और जिन लोगों के कंधे पर इसकी जिम्मेदारी दी गई है, उन तमाम लोगों की राजनीतिक परिपक्वता बिहार की उस राजनीतिक जमीन की जंग से बाहर निकली है, जहां से जीतने के लिए विश्वास और भरोसा दिया है.
बात धर्मेंद्र प्रधान की हो या फिर देवेंद्र फडणवीस की या फिर भूपेंद्र यादव की, बीजेपी के तमाम बड़े नेता जिन्हें 2022 के लिए बिहार फतेह का खेवनहार बनाया गया है सभी लोग बिहार की राजनीति से परिपक्व होकर निकले हैं. चुनाव से मिले परिणाम ने ही इन लोगों को नई जिम्मेदारी दिलवाई है.
2022 के लिए सज रहे नए सियासी मैदान में जीत के लिए जो योद्धा मैदान में उतरेंगे, उसमें एक मजबूत दखल बिहार की उस राजनीति का है जिसे सीख कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में उपयोग में लाना है. दरअसल 2022 के चुनाव के ऐन पहले बिहार से जाति जनगणना की उठी मांग ने उत्तर प्रदेश की सियासत को गरमा दिया है. इसके पीछे का तर्क भी यही है कि देश में जाति राजनीति को सबसे ज्यादा दिशा देने वाले मंडल आयोग की सिफारिशें बिहार की धरती पर तैयार हुई थी तो संभव है कि जाट की सियासत बिहार को छोड़े बगैर आगे जा नहीं पाती.
2014 में जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री के लिए तैयार हो रहे थे तो चुनौती बड़ी थी कि बिहार की सियासत किस तरफ जाएगी और ऐसे में बिहार की पूरी जिम्मेदारी धर्मेंद्र प्रधान को दी गई थी. 2014 में धर्मेंद्र प्रधान बिहार के चुनाव प्रभारी थे और जिस तरीके की चुनावी रणनीति वहां पर बनाई गई और जो 2014 के परिणाम आए, उसने देश की राजनीति में जाति को तोड़कर विकास की एक ऐसी धारणा खड़ी की जो 2019 में भी मोदी के पक्ष में ही रही. यह अलग बात है कि 2014 में नीतीश मोदी से नाराज थे, लेकिन 2019 में मोदी के साथ थे.
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2019 में नीतीश और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटों में से 39 सीटें जीत ली. 2014 में धर्मेंद्र प्रधान ने जिस राजनीतिक पिच को तैयार किया था, देवेंद्र फडणवीस की मजबूत राजनीतिक गोलबंदी की बैटिंग ने मोदी के खाते में पूरा बिहार ही डाल दिया. हालांकि 19 के बाद 2020 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में राजनीतिक हालात तेजी से बदले. नीतीश कुमार के विकास का मॉडल बहुत मजबूत नहीं रह पाया और यही वजह है कि हमेशा अर्धशतक से ऊपर सीटें लाने वाले नीतीश कुमार चार दहाई के आंकड़े में सिमट गए.
सियासत में गोलबंदी जीत के उस आंकड़े से तो खुश होती है जो सरकार बनाने के लिए जरूरी हो लेकिन सरकार बनवाने के लिए जरूरी आंकड़े अगर अपने हाथ में हैं तो वह भी किसी जीत से कम नहीं है और बिहार में देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में कुछ इसी तरह से जीत आई कि नीतीश को गद्दी तो जरूर मिली लेकिन बीजेपी के हाथ में गद्दी देने की जो कुंजी रही उसने बदलाव को लिखा और इसकी पूरी भूमिका देवेंद्र फडणवीस और भूपेंद्र यादव की थी.
2022 के लिए तैयार हो रहे पांच राज्यों के विधानसभा फतेह को लेकर फिर से गोलबंदी शुरू हुई है. दिल्ली से लेकर राज्य की राजधानी तक विकास के नारे लग रहे हैं कि जीत बीजेपी के खाते में आएगी. हालांकि उत्तराखंड के जो राजनैतिक हालात रहे हैं और जिस तरीके से मुख्यमंत्री बदले गए हैं, अब बीजेपी भी वहां बदलाव की नई राजनीति करना चाहती है.
सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो 5 सालों में योगी ने जो तपस्या की है, अब उसके फल को लेने की जिम्मेदारी धर्मेंद्र प्रधान को दे दी गई है. 2024 के लिए यहीं से राजनीतिक आधार खड़ा होगा कि 5 सालों में योगी की तपस्या और विकास के लिए तैयार हो रही नई राजनीति उत्तर प्रदेश में बीजेपी को किस रंग में ले जाती है.
2017 में उत्तर प्रदेश में खुद को गेरुआ रंग में ढाल लिया था और योगी गद्दी पर काबिज हो गए थे, हालांकि तब प्रभारी और उस समय की चुनौती दोनों अलग थी. इस बार विकास बनाम विकास की ही चुनौती है. जिसमें योगी बनाम मोदी का वजूद और विकास दोनों टीका पड़ा हुआ है. अब देखने वाली बात यह है कि बीजेपी ने अपने जिन 5 चुनावी पंडितों को मैदान में उतारा है, उनकी राजनीतिक तैयारी जीत को किस कैनवास में उतार पाती हैं.