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सरकारी खर्च को बढ़ाएं, लेकिन आखिर किस कीमत पर?

इस समय कारोबार जगत उदास हैं और उपभोक्ता मांग में भी गिरावट आयी है. सरकार पर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का तेज दबाव है. इस लेख में अर्थशास्त्री, रेणु कोहली बताती हैं कि सार्वजनिक व्यय को अर्थव्यवस्था में बदलाव के लिए आगे बढ़ाया जा सकता है और कैसे इसे स्थायी ट्रेंडेंड पर रखा जा सकता है?

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सरकारी खर्च को बढ़ाएं, लेकिन आखिर किस कीमत पर?
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Published : Jan 28, 2020, 11:52 AM IST

Updated : Feb 28, 2020, 6:29 AM IST

हैदराबाद: सरकार ने चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर पांच फ़ीसदी तक बढ़ने का अनुमान जताया है. पिछले वित्तीय वर्ष में इसकी विकास दर 6.8 फीसदी थी. वहीं, सरकारी खर्च में वृद्धि एक फरवरी के लिए निर्धारित बजट से आगे बढ़ गई है.

यह वित्तवर्ष 2017-18 के बाद से विकास में गिरावट का लगातार तीसरा साल है. इस साल वास्तविक जीडीपी विकास दर में 1.8 प्रतिशत की गिरावट आई है.

इस समय कारोबार जगत उदास हैं और उपभोक्ता मांग में भी गिरावट आयी है. सरकार पर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का तेज दबाव है.

वहीं, कुछ लोग इसके विपरीत तर्क देते हैं. संयम की वकालत करते हैं और कहते हैं कि बढ़ता खर्च लंबे समय के लिए उचित समाधान नहीं है और इससे भारत को नुकसान हो रहा है. अब सवाल यह है कि क्या सार्वजनिक खर्च को बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को गतिमान किया जा सकता है?

फिलहाल इसके लिए कोई आसान जवाब नहीं हैं. देश की अर्थव्यवस्था कई भागों में बंटी हुई है, जो हमेशा एक साथ नहीं बढ़ या घट नहीं सकती हैं.

किसानों के लिए पीएम-किसान योजना के माध्यम उच्च आवंटन देने से उनके हाथों में अधिक पैसा आएगा लेकिन यह सरकार के खर्च को काफी बढ़ा देगा.

इस तरह सरकारी खर्च के बाद रोजगार और आय में वृद्धि होती है और इसके बाद खपत बढ़ जाती है. लेकिन अगर हम हाल के वर्षों में मौजूदा खर्चों में जीडीपी वृद्धि को देखें तो इस तरह की योजनाएं अस्थायी हो जाती है और विकास धीमा हो जाता है और उपभोक्ता खर्च में गिरावट आ जाती है.

ये भी पढ़ें: 'मैं जीरो बजट खेती से सहमत नहीं हूं'

एक अन्य परिदृश्य यह है कि सरकार सड़कों, पुलों, बंदरगाहों इत्यादि के निर्माण पर अधिक खर्च करती है. जिससे सीमेंट, स्टील और अन्य निर्माण सामग्री की बिक्री को बढ़ावा मिलता है. इस तरह के निर्माण कार्य में कई मजदूरों को काम मिलता है. इस तरह के सरकारी खर्चों पर रिटर्न आम तौर पर खर्च की गई प्रारंभिक मात्रा से अधिक होता है.

लेकिन यहां भी हालिया अनुभव थोड़े कम उत्साहजनक है. सरकार ने 2014-19 के दौरान बुनियादी ढांचे में भारी निवेश किया. जिससे यह वित्त वर्ष 18 और वित्त वर्ष 19 में 4 ट्रिलियन रुपये तक बढ़ गया. फिर भी वास्तविक जीडीपी की वृद्धि दर इस साल के अंत तक 5 प्रतिशत तक गिर गई.

इस तरह के रुझान उल्लेखनीय हैं और आसानी से खारिज नहीं किए जा सकते हैं. सरकार के पास टैक्स और नॉन-टैक्स स्रोतों से अर्जित संसाधन सीमित है. इसलिए सरकार को सोच समझ कर खर्च करना होगा.

सरकारी बैलेंस शीट के लिए राजकोषीय घाटा बढ़ना एक खतरे की घंटी हो सकती है. राजस्व और व्यय के बीच की खाई अगर और बढ़ी तो यह खतरनाक हो सकता है. राजस्व की स्थिति इस वर्ष धीमी रही और कॉर्पोरेट कर कटौती से इसे काफी नुकसान हुआ.

कर राजस्व में 2 से 3 खरब रुपये की कमी आने की उम्मीद है. विशेषज्ञों का मानना है कि दो दशकों में पहली बार प्रत्यक्ष कर में इतनी गिरावट आई है. भारत पेट्रोलियम, कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और शिपिंग कॉरपोरेशन में दांव लगाने में देरी से गैर-कर राजस्व बहुत कम हो सकता है.

सरकार को आरबीआई से 100 बिलियन अंतरिम लाभांश (इस साल की शुरुआत में 1.5 ट्रिलियन सरप्लस ट्रांसफर) के अलावा तेल कंपनियों और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों से बड़ा लाभांश मिलने वाला है. वहीं, टेलीकॉम कंपनियों के पिछले बकाए के रूप में राजस्व प्राप्त हो सकता है. बहरहाल, राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.8-4.1% तक बढ़ जाने की उम्मीद है जो 3.3% थी.

फिर सवाल यह है कि क्या सरकार को मांग बढ़ाने के लिए और भी अधिक उधार लेना चाहिए. यह कोई मुफ्त भोजन नहीं है. अर्थव्यवस्था के कई निजी खंड ऋणग्रस्तता या अनसुलझे बुरे ऋणों से जूझ रहे हैं, चाहे वह बैंक हों या एनबीएफसी या बड़े कॉरपोरेट या एमएसएमई. इसलिए एक नरम ब्याज दर के वातावरण की आवश्यकता होती है और सरकार द्वारा कम उधार लेने से इसमें मदद मिल सकती है.

सरकार के लिए सबसे अच्छा यह रहेगा कि वह खुद को केवल बैंलेस शीट व्यय को संतुलित करने के लिए प्रतिबंधित करे. यह हालांकि, कुछ व्यय वस्तुओं को पुनर्निर्मित कर सकता है लेकिन मांग को बढ़ावा देने के लिए बेकार सब्सिडी खर्चों को कम किया जा सकता है.

(रेणु कोहली नई दिल्ली स्थित मैक्रो-अर्थशास्त्री हैं. ऊपर व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं)

हैदराबाद: सरकार ने चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर पांच फ़ीसदी तक बढ़ने का अनुमान जताया है. पिछले वित्तीय वर्ष में इसकी विकास दर 6.8 फीसदी थी. वहीं, सरकारी खर्च में वृद्धि एक फरवरी के लिए निर्धारित बजट से आगे बढ़ गई है.

यह वित्तवर्ष 2017-18 के बाद से विकास में गिरावट का लगातार तीसरा साल है. इस साल वास्तविक जीडीपी विकास दर में 1.8 प्रतिशत की गिरावट आई है.

इस समय कारोबार जगत उदास हैं और उपभोक्ता मांग में भी गिरावट आयी है. सरकार पर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का तेज दबाव है.

वहीं, कुछ लोग इसके विपरीत तर्क देते हैं. संयम की वकालत करते हैं और कहते हैं कि बढ़ता खर्च लंबे समय के लिए उचित समाधान नहीं है और इससे भारत को नुकसान हो रहा है. अब सवाल यह है कि क्या सार्वजनिक खर्च को बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को गतिमान किया जा सकता है?

फिलहाल इसके लिए कोई आसान जवाब नहीं हैं. देश की अर्थव्यवस्था कई भागों में बंटी हुई है, जो हमेशा एक साथ नहीं बढ़ या घट नहीं सकती हैं.

किसानों के लिए पीएम-किसान योजना के माध्यम उच्च आवंटन देने से उनके हाथों में अधिक पैसा आएगा लेकिन यह सरकार के खर्च को काफी बढ़ा देगा.

इस तरह सरकारी खर्च के बाद रोजगार और आय में वृद्धि होती है और इसके बाद खपत बढ़ जाती है. लेकिन अगर हम हाल के वर्षों में मौजूदा खर्चों में जीडीपी वृद्धि को देखें तो इस तरह की योजनाएं अस्थायी हो जाती है और विकास धीमा हो जाता है और उपभोक्ता खर्च में गिरावट आ जाती है.

ये भी पढ़ें: 'मैं जीरो बजट खेती से सहमत नहीं हूं'

एक अन्य परिदृश्य यह है कि सरकार सड़कों, पुलों, बंदरगाहों इत्यादि के निर्माण पर अधिक खर्च करती है. जिससे सीमेंट, स्टील और अन्य निर्माण सामग्री की बिक्री को बढ़ावा मिलता है. इस तरह के निर्माण कार्य में कई मजदूरों को काम मिलता है. इस तरह के सरकारी खर्चों पर रिटर्न आम तौर पर खर्च की गई प्रारंभिक मात्रा से अधिक होता है.

लेकिन यहां भी हालिया अनुभव थोड़े कम उत्साहजनक है. सरकार ने 2014-19 के दौरान बुनियादी ढांचे में भारी निवेश किया. जिससे यह वित्त वर्ष 18 और वित्त वर्ष 19 में 4 ट्रिलियन रुपये तक बढ़ गया. फिर भी वास्तविक जीडीपी की वृद्धि दर इस साल के अंत तक 5 प्रतिशत तक गिर गई.

इस तरह के रुझान उल्लेखनीय हैं और आसानी से खारिज नहीं किए जा सकते हैं. सरकार के पास टैक्स और नॉन-टैक्स स्रोतों से अर्जित संसाधन सीमित है. इसलिए सरकार को सोच समझ कर खर्च करना होगा.

सरकारी बैलेंस शीट के लिए राजकोषीय घाटा बढ़ना एक खतरे की घंटी हो सकती है. राजस्व और व्यय के बीच की खाई अगर और बढ़ी तो यह खतरनाक हो सकता है. राजस्व की स्थिति इस वर्ष धीमी रही और कॉर्पोरेट कर कटौती से इसे काफी नुकसान हुआ.

कर राजस्व में 2 से 3 खरब रुपये की कमी आने की उम्मीद है. विशेषज्ञों का मानना है कि दो दशकों में पहली बार प्रत्यक्ष कर में इतनी गिरावट आई है. भारत पेट्रोलियम, कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और शिपिंग कॉरपोरेशन में दांव लगाने में देरी से गैर-कर राजस्व बहुत कम हो सकता है.

सरकार को आरबीआई से 100 बिलियन अंतरिम लाभांश (इस साल की शुरुआत में 1.5 ट्रिलियन सरप्लस ट्रांसफर) के अलावा तेल कंपनियों और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों से बड़ा लाभांश मिलने वाला है. वहीं, टेलीकॉम कंपनियों के पिछले बकाए के रूप में राजस्व प्राप्त हो सकता है. बहरहाल, राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.8-4.1% तक बढ़ जाने की उम्मीद है जो 3.3% थी.

फिर सवाल यह है कि क्या सरकार को मांग बढ़ाने के लिए और भी अधिक उधार लेना चाहिए. यह कोई मुफ्त भोजन नहीं है. अर्थव्यवस्था के कई निजी खंड ऋणग्रस्तता या अनसुलझे बुरे ऋणों से जूझ रहे हैं, चाहे वह बैंक हों या एनबीएफसी या बड़े कॉरपोरेट या एमएसएमई. इसलिए एक नरम ब्याज दर के वातावरण की आवश्यकता होती है और सरकार द्वारा कम उधार लेने से इसमें मदद मिल सकती है.

सरकार के लिए सबसे अच्छा यह रहेगा कि वह खुद को केवल बैंलेस शीट व्यय को संतुलित करने के लिए प्रतिबंधित करे. यह हालांकि, कुछ व्यय वस्तुओं को पुनर्निर्मित कर सकता है लेकिन मांग को बढ़ावा देने के लिए बेकार सब्सिडी खर्चों को कम किया जा सकता है.

(रेणु कोहली नई दिल्ली स्थित मैक्रो-अर्थशास्त्री हैं. ऊपर व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं)

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हैदराबाद: सरकार ने चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर पांच फ़ीसदी तक बढ़ने का अनुमान जताया है. पिछले वित्तीय वर्ष में इसकी विकास दर 6.8 फीसदी थी. वहीं, सरकारी खर्च में वृद्धि  एक फरवरी के लिए निर्धारित बजट से आगे बढ़ गई है.

यह वित्तवर्ष 2017-18 के बाद से विकास में गिरावट का लगातार तीसरा साल है. इस साल वास्तविक जीडीपी विकास दर में 1.8 प्रतिशत की गिरावट आई है.

इस समय कारोबार जगत उदास हैं और उपभोक्ता मांग में भी गिरावट आयी है. सरकार पर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का तेज दबाव है.

वहीं, कुछ लोग इसके विपरीत तर्क देते हैं. संयम की वकालत करते हैं और कहते हैं कि बढ़ता खर्च लंबे समय के लिए उचित समाधान नहीं है और इससे भारत को नुकसान हो रहा है. अब सवाल यह है कि क्या सार्वजनिक खर्च को बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को गतिमान किया जा सकता है?

फिलहाल इसके लिए कोई आसान जवाब नहीं हैं. देश की अर्थव्यवस्था कई भागों में बंटी हुई है, जो हमेशा एक साथ नहीं बढ़ या घट नहीं सकती हैं.

किसानों के लिए पीएम-किसान योजना के माध्यम उच्च आवंटन देने से उनके हाथों में अधिक पैसा आएगा लेकिन यह सरकार के खर्च को काफी बढ़ा देगा.

इस तरह सरकारी खर्च के बाद रोजगार और आय में वृद्धि होती है और इसके बाद खपत बढ़ जाती है. लेकिन अगर हम हाल के वर्षों में मौजूदा खर्चों में जीडीपी वृद्धि को देखें तो इस तरह की योजनाएं अस्थायी हो जाती है और विकास धीमा हो जाता है और उपभोक्ता खर्च में गिरावट आ जाती है.

एक अन्य परिदृश्य यह है कि सरकार सड़कों, पुलों, बंदरगाहों इत्यादि के निर्माण पर अधिक खर्च करती है. जिससे सीमेंट, स्टील और अन्य निर्माण सामग्री की बिक्री को बढ़ावा मिलता है. इस तरह के निर्माण कार्य में कई मजदूरों को काम मिलता है. इस तरह के सरकारी खर्चों पर रिटर्न आम तौर पर खर्च की गई प्रारंभिक मात्रा से अधिक होता है.

लेकिन यहां भी हालिया अनुभव थोड़े कम उत्साहजनक है. सरकार ने 2014-19 के दौरान बुनियादी ढांचे में भारी निवेश किया. जिससे यह वित्त वर्ष 18 और वित्त वर्ष 19 में 4 ट्रिलियन रुपये तक बढ़ गया. फिर भी वास्तविक जीडीपी की वृद्धि दर इस साल के अंत तक 5 प्रतिशत तक गिर गई.

इस तरह के रुझान उल्लेखनीय हैं और आसानी से खारिज नहीं किए जा सकते हैं. सरकार के पास टैक्स और नॉन-टैक्स स्रोतों से अर्जित संसाधन सीमित है. इसलिए सरकार को सोच समझ कर खर्च करना होगा.  

सरकारी बैलेंस शीट के लिए राजकोषीय घाटा बढ़ना एक खतरे की घंटी हो सकती है. राजस्व और व्यय के बीच की खाई अगर और बढ़ी तो यह खतरनाक हो सकता है. राजस्व की स्थिति इस वर्ष धीमी रही और कॉर्पोरेट कर कटौती से इसे काफी नुकसान हुआ.

कर राजस्व में 2 से 3 खरब रुपये की कमी आने की उम्मीद है. विशेषज्ञों का मानना है कि दो दशकों में पहली बार प्रत्यक्ष कर में इतनी गिरावट आई है. भारत पेट्रोलियम, कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और शिपिंग कॉरपोरेशन में दांव लगाने में देरी से गैर-कर राजस्व बहुत कम हो सकता है.

सरकार को आरबीआई से 100 बिलियन अंतरिम लाभांश (इस साल की शुरुआत में 1.5 ट्रिलियन सरप्लस ट्रांसफर) के अलावा तेल कंपनियों और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों से बड़ा लाभांश मिलने वाला है. वहीं, टेलीकॉम कंपनियों के पिछले बकाए के रूप में राजस्व प्राप्त हो सकता है. बहरहाल, राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.8-4.1% तक बढ़ जाने की उम्मीद है जो 3.3% थी.

फिर सवाल यह है कि क्या सरकार को मांग बढ़ाने के लिए और भी अधिक उधार लेना चाहिए. यह कोई मुफ्त भोजन नहीं है. अर्थव्यवस्था के कई निजी खंड ऋणग्रस्तता या अनसुलझे बुरे ऋणों से जूझ रहे हैं, चाहे वह बैंक हों या एनबीएफसी या बड़े कॉरपोरेट या एमएसएमई. इसलिए एक नरम ब्याज दर के वातावरण की आवश्यकता होती है और सरकार द्वारा कम उधार लेने से इसमें मदद मिल सकती है.

सरकार के लिए सबसे अच्छा यह रहेगा कि वह खुद को केवल बैंलेस शीट व्यय को संतुलित करने के लिए प्रतिबंधित करे. यह हालांकि, कुछ व्यय वस्तुओं को पुनर्निर्मित कर सकता है लेकिन मांग को बढ़ावा देने के लिए बेकार सब्सिडी खर्चों को कम किया जा सकता है.

लेखक- रेणु कोहली,

Renu Kohli is a New Delhi based macroeconomist.   




Conclusion:
Last Updated : Feb 28, 2020, 6:29 AM IST
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