हैदराबाद: रिखुली देवी अपनी पंचायत की प्रधान हैं. वो दूसरी बार अपनी पंचायत की प्रधान बनी हैं लेकिन पंचायत का कामकाज उनके पति ही संभालते हैं. चुनाव भले रिखुली देवी ने जीता हो लेकिन पंचायत के सभी लोग उनके पति को ही सरपंच मानते हैं. यहां प्रधान का नाम भले काल्पनिक हो लेकिन ये किस्सा देश की वास्तविकता का वो हिस्सा है. जहां पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण मिलने के करीब 30 बरस बाद भी महिला जनप्रतिनिधि हाशिये पर ही खड़ी हैं. करीब एक दशक बाद ही सही देश की सबसे बड़ी पंचायत में एक बार फिर महिला आरक्षण की गूंज है. लेकिन सवाल है कि महिला आरक्षण बिल को नारी शक्ति वंदन अधिनियम कहने या फिर इस बिल के पास होने से क्या बदल जाएगा ? क्योंकि यहां सवालों में वही सियासत और सियासतदान हैं जो महिलाओं की पैरोकारी पर चर्चा कर रहे हैं.
बिल से क्या बदलेगा- वैसे महिला आरक्षण बिल अगर पास भी हो गया तो 2024 लोकसभा चुनाव में तो लागू नहीं हो पाएगा लेकिन जब भी लागू होगा तो देश की संसद और विधानसभाओं में महिला सांसदों और विधायकों की संख्या 33.33 फीसदी हो जाएगी. मौजूदा समय में 543 सांसदों वाली लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 181 हो जाएगी.
इसी तरह SC-ST महिलाओं को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों में से हिस्सेदारी मिलेगी. मौजूदा समय में लोकसभा की 84 सीटें एससी और 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. महिला आरक्षण लागू होने के बाद इन कुल 131 सीटों की एक तिहाई यानी 44 सीटें SC-ST महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. 543 में से इन 181 सीटों को छोड़ बाकी 362 सीटों पर महिला या पुरुष कोई भी चुनाव लड़ सकता है. हालांकि महिला आरक्षण का ये कानून सिर्फ लोकसभा और प्रदेश की विधानसभाओं के लिए होगा. राज्यसभा और विधानपरिषद इसके दायरे से बाहर रहेंगी.
सियासी दलों के लिए आइना- मौजूदा समय में महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं है. इतना ही बड़ा सच ये भी है कि देश का समाज पुरुष प्रधान रहा है और सियासत भी इससे अछूती नहीं है. अप्रैल 1993 में देश के संविधान में संशोधन कर पंचायत स्तर पर महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिया गया लेकिन इसके 30 साल बाद भी 'सरपंच पति' की व्यवस्था मानो प्रथा बन गई है. क्योंकि कई राज्यों में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जहां चुनाव तो महिला प्रतिनिधि के चेहरे पर हुआ लेकिन जीतने के बाद फैसला पुरुषों का होता है. पंचायत से लेकर नगर पालिका और नगर परिषद तक महिलाओं को आरक्षण है. पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण 33 फीसदी से 50 फीसद तक पहुंच गया, जिससे पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी तो बढ़ गई लेकिन भागीदारी पर पुरुषों का ही दबदबा है. सवाल है कि ऐसे सिस्टम का फायदा क्या है ?
ये सवाल उन सियासी दलों पर भी उठता है जिन्होंने इस सिस्टम का कभी भी खुलकर विरोध नहीं किया. वैसे सियासत ने भी कभी महिलाओं को सियासी अखाड़ों में आगे बढ़ाने की पैरवी उस तरह से नहीं की, जैसा मौजूदा महिला आरक्षण के बिल की हो रही है. आज हर सियासी दल मानों महिलाओं का असली पैरोकार बना बैठा है लेकिन सच्चाई संसद से लेकर विधानसभाओं तक में महिला प्रतिनिधियों की तादाद बता देती है. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 78 महिला सांसद संसद पहुंची, जो कुल 543 सीटों का 14 फीसदी है. राज्यों की विधानसभा के आंकड़े तो सियासी दलों को आइना दिखाते हैं. 28 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं में से ज्यादातर में 'आधी आबादी' का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से कम है और जहां आंकड़ा इससे बेहतर है वहां महिलाओं की हिस्सेदारी 15 फीसदी तक पहुंचते-पहुंचते हांफने लगती है.
क्या परिवारवाद खत्म होगा ?- ये एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सियासी दल एक-दूसरे पर लांछन तो लगाते हैं लेकिन परिवारवाद के दाग जैसे सभी के लिए अच्छे हैं. सवाल है कि क्या महिला आरक्षण के बाद परिवारवाद खत्म हो पाएगा ? दरअसल जानकार मानते हैं कि महिला आरक्षण लागू होने के बाद देशभर में लोकसभा और विधानसभा की सीटें महिलाओं की जनसंख्या, आरक्षण रोस्टर और फिर परिसीमन के बाद बदलती रहेंगी. ऐसे में हो सकता है कि एक सीट लगातार दो चुनाव में महिला के लिए आरक्षित ना हो ऐसे में परिवारवाद का मसला खत्म होने की राह नजर आती है. लेकिन ये भी सियासी दलों पर निर्भर होगा. ऐसा ना हो कि सियासी दल एक बार नेताजी और उनके बेटे को टिकट दें और अगली बार महिला आरक्षण की रस्म अदायगी के लिए नेताजी की पत्नी और बेटी को टिकट दे दिया जाए.
महिलाओं के लिए 15 साल का आरक्षण काफी है ?- महिला आरक्षण बिल कानून बनकर लागू होगा तो महिलाओं को अगले 15 साल के लिए आरक्षण मिलेगा. सवाल उठ रहा है कि क्या 15 साल के लिए आरक्षण महिलाओं के लिए पर्याप्त होगा ? छत्तीसगढ़ राज्य निर्वाचन आयोग के पूर्व आयुक्त और रिटायर्ड आईएएस डॉ सुशील त्रिवेदी के मुताबिक महिला आरक्षण को आरक्षण की तरह समाप्त करना शायद संभव ना हो. सुशील त्रिवेदी कहते हैं कि महिला आरक्षण बिल 15 साल के लिए लाया जा रहा है. एक तिहाई आरक्षण के तहत पांच-पांच साल के तीन टर्म के बाद एक सर्कल पूरा हो जाएगा. इसके बाद इस कानून को आगे बढ़ाने का फैसला संसद द्वारा लिया जाएगा. जैसा कि आरक्षण को लेकर हर 10 साल में लिया जाता है. जब संविधान बना था तो आरक्षण 10 साल के लिए लागू किया गया था और बाद में पुनर्विचार की बात कही गई थी, लेकिन वह समाप्त नहीं हुआ और आज तक चला आ रहा है. आज आरक्षण भारतीय राजनीति और समाज का जैसे अभिन्न अंग बन गया है. सुशील त्रिवेदी के मुताबिक इसी तरह एक बार आरक्षण लागू हो जाता है तो उसे समाप्त करना संभव नहीं होता है.
आदर्श बदलाव या अस्थायी समाधान- देश और प्रदेश की सरकार चुनने में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों जितनी ही है और कई राज्यों में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा मतदान करती हैं. पंचायत से लेकर स्थानीय निकायों में महिलाओं को आरक्षण दिया गया है लेकिन पहली बार देश और प्रदेश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद और विधानसभा में आधी आबादी की हिस्सेदारी और भागीदारी की बात हो रही है लेकिन आज जिस तरह से ज्यादातर सियासी दल महिला आरक्षण के समर्थन में नजर आ रहे हैं और एक अच्छी नीति पर चर्चा कर रहे हैं. उसी अंदाज में इसे अच्छी नीयत के साथ लागू करने की जरूरत भी है. क्योंकि ये भारतीय राजनीति के पास एक आदर्श बदलाव लाने का मौका है जिससे सियासत पर लगते पुरुष प्रधान या लैंगिग असमानता और परिवारवाद जैसे दागों को धोया जा सकता है. जानकार मानते हैं कि संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी कम होने के पीछे सियासी दल ही जिम्मेदार हैं और इसे एक आदर्श बदलाव लाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर है. एक अच्छी नीति को अच्छी नीयत से लागू करेंगे तो एक तीर से कई शिकार हो सकते हैं वरना ये पहल भी एक अस्थायी समाधान बनकर ही रह जाएगा.
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