पटना : बिहार विधानसभा उपचुनाव (Bihar Assembly By Election) के लिए राजद ने दोनों सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दी है. बात 2020 के विधानसभा चुनाव की करें तो उसमें तारापुर (Tarapur) सीट पर जेडीयू, जबकि कुशेश्वरस्थान (Kusheshwarsthan) से कांग्रेस के उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे.
माना यही जा रहा था कि उपचुनाव में भी 2020 के विधानसभा चुनाव के लिए जो फार्मूला कांग्रेस और राजद के बीच में हुआ था वही रहेगा. लेकिन, उपचुनाव में यह फार्मूला राजद ने बदलते हुए दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम का ऐलान कर दिया.
कुशेश्वरस्थान को कांग्रेस अपनी परंपरागत सीट मानती है. यही लग रहा था कि कांग्रेस कुशेश्वरस्थान से चुनाव लड़ेगी, लेकिन अब जबकि राजद ने दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए हैं, बिहार में कांग्रेस और राजद के बीच एक नई सियासी जंग तैयार हो गई है. जो गठबंधन को लेकर कई सवाल खड़े कर रही है.
बिहार में चल रहा राजद और कांग्रेस का गठबंधन जरूरत, मजबूरी और समझौते में सिर्फ उसी रूप में है जिसमें अपने-अपने फायदे की राजनीति हो. 2004 में केंद्र में सरकार बनी तो लालू यादव को इसलिए शामिल किया गया कि जितने संख्या बल की जरूरत मनमोहन सिंह को थी, वह लालू यादव के साथ होने के बाद ही पूरी होती.
लेकिन 2009 में जब चुनाव हुए और केंद्र में दूसरी बार मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो लालू यादव (Lalu Yadav) की पार्टी को उसमें शामिल नहीं किया गया, क्योंकि जरूरत उस समय नहीं थी. लेकिन उसके बाद भी बिहार की राजनीति में राजद और कांग्रेस का गठबंधन बरकरार रहा.
2010 के विधानसभा चुनाव में यह चीजें साफ तौर पर दिखी और नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के चुनाव मैदान में आ जाने के बाद 2014 में यह गठबंधन और मजबूत हो गया. यह कांग्रेस की मजबूरी थी या फिर राजद की जरूरत इसे सीधे तौर पर तो नहीं कहा जा सकता. सियासतदान अपने तरीके से इसे कहते रहते हैं. लेकिन यह सही है कि जरूरत कांग्रेस को भी थी और मजबूर राजद भी थी.
2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने मजबूत दावेदारी पेश किया. नीतीश कुमार (Nitish Kumar) महागठबंधन का हिस्सा बने तो चुनाव में कांग्रेस की साझेदारी और सीटों की संख्या भी बढ़ी. परिणाम यह हुआ कि 1990 के बाद सियासत में हाशिए पर चली गई कांग्रेस सत्ता में गद्दी पर आ गई.
इसका पूरा श्रेय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक चौधरी को गया. संबंधों में और सीटों को लेकर जिस तरीके की साझेदारी हुई उसमें कांग्रेस इतना मजबूत होकर उभरी कि नीतीश कुमार के साथ बनी सरकार में कांग्रेस के लोगों को भी मंत्री पद मिला.
2017 में बदली सियासत में जब नीतीश को एक बार फिर भाजपा के खाते में डाल दिया तो कांग्रेस और राजद का गठबंधन फिर उसी रूप में चल निकला. 2020 के विधानसभा चुनाव में जो समझौता हुआ उसमें आज तारापुर और कुशेश्वरस्थान में तारापुर सीट राजद के खाते में गई और कुशेश्वरस्थान पर कांग्रेस चुनाव लड़ी थी. लेकिन दोनों जगहों पर जीत जदयू की हुई थी. अब उपचुनाव में इसी फार्मूले को कांग्रेस चाह रही थी लेकिन तेजस्वी इसे मानने से इंकार कर दिए.
तेजस्वी यादव के इस निर्णय के बाद निश्चित तौर पर कांग्रेस और राजद के बीच जंग की सियासी जमीन तैयार हो गई है. इसके पीछे की वजह भी राजनीति में चर्चा का विषय बन गई है. तेजस्वी यादव दबदबे की राजनीति करना चाहते हैं और कांग्रेस को अपनी अंगुलियों पर नचाना भी चाह रहे हैं. यह बातें अब चर्चा का रूप लेनी शुरू कर दी है.
उत्तर प्रदेश के चुनाव में अखिलेश यादव और कांग्रेस के बीच बहुत कुछ बनता नहीं दिख रहा है. चूंकि तेजस्वी यादव उत्तर प्रदेश चुनाव में भी अखिलेश के साथ खड़े हैं ऐसे में एक दबाव और दबदबे की राजनीति इसलिए भी होनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश में तेजस्वी कुछ कहना चाहें तो उसका भी असर कांग्रेस पर जाए.
कांग्रेस से तेजस्वी की नाराजगी की बड़ी वजह कन्हैया का कांग्रेस में जाना है, माना यह भी जा रहा था कि युवा राजनीति में एक चेहरा कन्हैया का भी है. जो तेजस्वी के सामने सियासत में युवा चेहरे का टक्कर दे रहा है. अब वह कांग्रेस में चला गया है तो संभव है कि तेजस्वी की हर नीति को माना जाए यह जरूरी नहीं.
तो तेजस्वी यह भी मान कर चल रहे हैं कि दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतारकर के कांग्रेस पर दबाव वाली राजनीति लाद दी जाए. अब जिस सियासत में कांग्रेस और राजद उपचुनाव की राजनीति को लेकर फंसी है, इसका परिणाम क्या होगा? यह तो राजद के बाद जब कांग्रेस अपने सीटों का ऐलान करेगी तब साफ होगा.
एक बात तो बिल्कुल तय है कि राजद ने दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतारकर के कांग्रेस को साफ रखने या कांग्रेस के साथ नहीं होने का वह फार्मूला साफ कर दिया जिसमें आज भी राजद यह चाहती है कि बिहार में कांग्रेस उसके पीछे ही बैठे.
हालांकि जरूरत की बात इसलिए भी कही जा रही है कि 2009 में जब सरकार बनने की बात थी तो लालू यादव सोनिया के घर पूरे दिन बैठे रहे, लेकिन सोनिया ने उन्हें मिलने तक का समय नहीं दिया.
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ऐसे में बदले राजनीतिक हालात में जब कांग्रेस जमीन और जनाधार खोज रही है. शायद सियासत में राजनीति के जरूरत का अवसर और अवसर की राजनीति का तकाजा भी यही है कि जो जितना मजबूती से जमीन अपनी बना ले जाए वही विजेता होता है. यही तेजस्वी का मूल फार्मूला भी दिख रहा है.