हैदराबादः देश के पांच राज्यों में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव का परिणाम कल यानी गुरुवार 10 मार्च को आ जाएगा. लेकिन सभी कंटेस्टेंट की धड़कनें बढ़ी हुई हैं. 2022 के लिए हुकूमत की जंग के परिणाम के साथ किसके हाथ हुकूमत की चाबी लगेगी और किसकी सियासत हिचकोले खाएगी, ये नई सुबह के बाद पता चल जाएगा. इसमें अब काफी कम वक्त बचा है और महज एक रात का फासला है. लेकिन इसका एक-एक पल काटना राजनेताओं के लिए मुश्किल हो रहा है. लोगों के जेहन में प्रसिद्ध सीरियल महाभारत का गीत भी है..यही रात अंतिम, यही रात भारी. निश्चित तौर पर 10 मार्च से पहले वाली रात काफी कशमकश भरी है. क्योंकि इसी के बाद अगले दिन की सुबह कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए उम्मीदों का उजाला लेकर आने वाली है तो कुछ के लिए कसक दे जाने वाली है. बहरहाल, इस रात को लेकर हर राजनीतिक दल अपने-अपने मन में कई-कई मंसूबे पाले बैठा है.
बुधवार की रात यानी 10 मार्च को होने वाली विधानसभा चुनाव की मतगणना से पहले वाली रात है. इसको लेकर नफा-नुकसान का गणित तो लगाया ही जा रहा है, भविष्य का आकलन भी किया जा रहा है. चूंकि इलेक्शन से देश की राजनीति की दिशा तय होनी है, अगले समीकरणों का रसायन तय होना है. जिसे जुटाना होगा तो उसके संतुलन के उपाय भी तलाशने होंगे. इसलिए इस पर नजर ऐसे राजनीतिक दलों की भी है जो यहां कंटेस्टेंट नहीं हैं और भविष्य में देश की दिशा को लेकर तमाम गणितबाजों की भी धुकधुकी लगी हुई है. इधर एक्जिट पोल ने उलझन बढ़ा दी है, जिससे यह रात काटनी मुश्किल हो गई है.
यह पक्का है कि उत्तर प्रदेश 2022 के चुनाव परिणाम से देश की नई राजनीतिक की दिशा तय होगी. सत्ता पर आसीन योगी आदित्यनाथ की बात करें तो अगर योगी आदित्यनाथ की सरकार फिर से उत्तर प्रदेश में बनती है तो यह नई बीजेपी वाली नया यूपी होगा, जिसमें योगी बीजेपी का चेहरा होंगे. यूपी योगी का होगा और योगी के जिम्मे यूपी की सियासत का हर स्वरूप होगा. दरअसल, योगी आदित्यनाथ भाजपा के लिए दूसरे राज्यों में बीजेपी के एक ऐसे ब्रांड अंबेस्डर हो गए हैं, जिनका हर चुनाव प्रचार में होना जरूरी भी है. क्योंकि ये बीजेपी की भगवा धार के दूसरे खेवैय्या हैं. अगर पांच राज्यों में हुए चुनाव से पहले वाले चुनाव की बात कर लें तो चाहे बात पश्चिम बंगाल की हो या बिहार की, योगी आदित्यनाथ ने इन दोनों जगहों पर जमकर प्रचार किया था.
2017 में जब बीजेपी उत्तर प्रदेश में बंपर सीट जीती थी और सरकार बनाने की स्थिति में आई थी तो चेहरा साफ नहीं था लेकिन इस बार चेहरा बिल्कुल साफ है तो अगर योगी फिर यूपी की गद्दी पर आसीन होते हैं तो उनके तेवर भी नए होंगे. मामला यह भी है कि 2022 में होने वाले बाकी राज्यों के चुनाव और 2023 में राजस्थान मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की गोलबंदी से 2024 के फतह की तैयारी होगी और यह भी उत्तर प्रदेश की यही राजनीति तय करेगी. इतनी बड़ी जिम्मेदारी का बोझ 10 मार्च को यूपी बीजेपी के सबसे बड़े चेहरे योगी आदित्यनाथ पर आना है तो संभव है कि वहां भी बचे हुए समय को काटना भारी तो पड़ ही रहा होगा.
बात अखिलेश यादव की करें तो उत्तर प्रदेश की सियासत में जिस तरीके से अखिलेश यादव ने सब कुछ ला दिया है. अगर सत्ता की चाबी उनके पास आती है तो पूरे देश में नेतृत्व और राजनीतिक बदलाव की एक नई कहानी उत्तर प्रदेश लिख देगा. अखिलेश यादव ने जिस राष्ट्रीय स्तर के मोदी विरोधी फ्रंट और योगी के विरोध की राजनीति से जीत हासिल करेंगे. इसी के साथ राष्ट्रीय फलक पर अखिलेश यादव की सियासी कद और बढ़ेगा. लेकिन अगर किसी कारण से सपा जीत का आंकड़ा नहीं पार कर पाती है तो अखिलेश यादव पर सियासी संकट इस रूप में भी होगा कि नेतृत्व की जिस नाव में अखिलेश यादव अपने पिता को हटाकर खुद सवार हुए थे, शिवपाल यादव नाराज हुए थे हालांकि अब साथ आ गए. लेकिन पारिवारिक खटपट फिर सुनाई दे सकती है. फिलहाल भले ही अर्पणा यादव नाराज होकर बीजेपी में चली गईं, अखिलेश को बड़ी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा.
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लेकिन यूपी चुनाव परिणाम अगर उनके मनमुताबिक नहीं रहा तो यह तमाम चीजें बिखराव की और बड़ी-बड़ी कहानी लिख देंगे. जिसे समेट पाना शायद अगले 5 सालों में अखिलेश यादव के लिए आसान नहीं होगा. आज की सियासत में अखिलेश यादव के लिए भले ही ममता बनर्जी बनारस पहुंच गईं लेकिन इसके बाद की सियासत में कोई और गठजोड़ या जोड़ जैसा दिखेगा. यह सियासत के किसी एंगल से दिख नहीं रहा है और एक बड़ी वजह यह भी है अखिलेश यादव के लिए बचे हुए समय और आज की बिताने वाली रात काफी भारी है.
बीजेपी और सपा के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो बचे हैं या तो साथ रहेंगे और साथ चलेंगे. क्योंकि इसके बाद की राजनीति में उनके पास कुछ बचा नहीं रहेगा. मायावती की बात करें तो पिछले चुनाव में वोट परसेंट तो बहुत नहीं घटा था. लेकिन सत्ता के करीब जाने की दूर-दूर तक गुंजाइश नहीं रही. इस बार भी क्या होगा कहना मुश्किल है क्योंकि बुआ और भतीजे की जो जोड़ी 2019 के लोकसभा चुनाव में बनी थी. वह कुछ दिनों बाद ही टूट गई और अब जिस चीज को जोड़ने की कवायद हो रही है उसमें जनता जुड़ती कितना है यह मायावती के भी सियासी हालात को तय करेगा.
बात कांग्रेस की करें तो राजनीतिक जमीन और जनाधार को खोजने में उतरी प्रियंका गांधी सोनभद्र में किसान आंदोलन और किसान विरोध को लेकर काफी मुखर हुईं थीं. उन्होंने आधी आबादी को भी रिझाने की कोशिश की. उत्तर प्रदेश में मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने का दावा भी करती रहीं. प्रियंका गांधी ने नारा भी दिया कि लड़की हूं लड़ सकती हूं. लेकिन चुनाव के अंतिम दौर तक आते-आते प्रियंका गांधी ने कह दिया है कि अगर भाजपा की सरकार उत्तर प्रदेश में नहीं बनती है तो किसी और दूसरी पार्टी की सरकार बगैर कांग्रेस के नहीं बनेगी.
मामला साफ है कि कांग्रेस सरकार अपने बूते नहीं बना पाएगी और बगैर कांग्रेस की सरकार बनेगी भी नहीं तो इस सियासी गणित में प्रियंका गांधी का राजनीतिक कद भी दांव पर होगा. 10 मार्च को आने वाले परिणाम से कांग्रेस कार्यकर्ता और राजनीति सिर्फ इससे संतुष्ट नहीं होगी कि प्रियंका गांधी का राजनीतिक कद बढ़ गया और जमीन और कब्जे में आ गई. बल्कि राजनीति यह जवाब भी मांगेगी कि लड़की होकर लड़ाई में उतरी प्रियंका गांधी कि कांग्रेस को सत्ता के शिखर की मुख्य प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं बना सकीं.
सत्ता की हुकूमत के लिए हुए 2022 के 5 राज्यों के जंग ने एक नए राजनीतिक समीकरण को खड़ा किया है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की राजनीति बीजेपी से जुड़ी हुई है पंजाब में बदलाव के बयार की बात कही जा रही है. गोवा में किस तरह की हवा चलेगी. यह सब कुछ 10 मार्च को सामने आएगा लेकिन सभी दलों की राजनीतिक हस्तियों को बचे हुए समय को काटना बड़ा भारी पड़ रहा है. यह तो साफ-साफ हर नेता के चेहरे बयान कर रहे हैं. यह दीगर बात है कि एग्जिट पोल ने कई राजनीतिक दलों के चेहरे पर एक हंसी ला दी है तो कुछ के चेहरे की हवाइयां उड़ा रही हैं. लेकिन सवाल यही है कि एग्जिट पोल अगर एग्जैक्ट पोल में नहीं बदलता, बदलाव की नई कोई कहानी जो अपने मन की है, वह बदलती दिखेगी और यही वजह है कि 10 मार्च से पहले वाला बचा हर समय काफी भारी कट रहा है. सभी नेताओं का चाहे वह लखनऊ में हो या दिल्ली में.