गया: आज से बिहार के गया में विश्व प्रसिद्ध पितृ पक्ष मेला शुरू हो रहा है. इस साल 28 सितंबर से 14 अक्टूबर तक पितृपक्ष मेला (महालया पक्ष) चलेगा. माना जाता है कि पितृपक्ष में पितर स्वयं गयाजी चले आते हैं. पुत्र के आने के पूर्व ही पितर गयाजी तीर्थ आकर इंतजार करते हैं. पितृ पक्ष में श्राद्ध और तर्पण करने से पितर प्रसन्न होते हैं और अपना आशीर्वाद देते हैं. जिससे तमाम बाधाएं दूर होती है और जीवन की सभी समस्याों से मुक्ति मिलती है.
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28 सितंबर से 14 अक्टूबर तक पितृपक्ष मेला: इस वर्ष 28 सितंबर से 14 अक्टूबर तक पितृपक्ष मेला चलेगा. इस अवधि में पिंडदान और तर्पण करने से पितर प्रसन्न होते हैं. पहला दिन यानी 28 सितंबर को पुनपुन तट पर श्राद्ध और पितृपक्ष मेले का उद्घाटन होगा. दूसरे दिन यानी 29 सितंबर को फल्गु नदी के तट पर खीर के पिंड से श्राद्ध किया जाएगा. तीसरे दिन यानी 30 सितंबर को प्रेतशिला, रामकुंड रामशिला ब्रह्मकुंड काकबली पर श्रद्धा करना चाहिए. चौथा दिन यानी 1 अक्टूबर को उत्तर मानस, उदीची, कनखल, दक्षिण मानस, जिहवा लोल वेदी पर पिंडदान करना चाहिए.
हर दिन की अलग विधि: वहीं, पांचवें दिन यानी 2 अक्टूबर को धर्मारणय बोधगया में सरस्वती स्नान, मातंग वापी, बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे श्राद्ध करना चाहिए. छठे दिन यानी 3 अक्टूबर को ब्रह्म सरोवर पर श्राद्ध करना चाहिए. साथ ही आम्र सिचन काकबली पर पिंडदान श्राद्ध करना चाहिए. सातवें दिन- यानी 4 अक्टूबर को विष्णुपद मंदिर में रूद्र पद ब्रह्म पद और विष्णुपद में खीर के पिंड से श्राद्ध करना चाहिए. आठवें, नौवें और दसवें दिन यानी 5, 6 और 7 अक्टूबर को विष्णुपद मंदिर के 16 वेदी नामक मंडप में 14 स्थानों पर पिंडदान करना चाहिए.
पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण: 11वें दिन यानी 8 अक्टूबर को राम गया स्थित सीता कुंड में श्राद्ध करना चाहिए. 12वें दिन यानी 9 अक्टूबर को गया सिर और गया कूप में पिंडदान करना चाहिए. 13वें दिन यानी 10 अक्टूबर को मुण्ड पृष्ठा, आदि गया और धौत पद में खोवे या तिल गुड़ से पिंडदान करना चाहिए. 14वें दिन यानी 11 अक्टूबर को भीम गया गो प्रचार के पास पिंडदान करना चाहिए. 15वें दिन यानी 12 अक्टूबर को फल्गु में स्नान कर के दूध का तर्पण, गायत्री, सावित्री तथा सरस्वती तीर्थ पर क्रमशः प्रात: मध्याह्न साह और सायं स्नान एवं संध्या करना चाहिए.
देश के कोने-कोने से पिंडदानी पहुंचेंगे गयाजी: इसके अलावे 16वें दिन यानी 13 अक्टूबर को वैतरणी स्नान और तर्पण किया जाता है, जबकि 17वें दिन यानी 14 अक्टूबर को अक्षयवट के नीचे श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करना चाहिए. इसी जगह पर गयापाल पंडों द्वारा सुफल विदाई दी जाएगी. आस्था धर्म और प्राकृतिक सौंदर्य से अलंकृत है गयाजी धाम, जो कि वेद अनुसार सप्तपुरियों में से एक मुक्ति पद तीर्थ स्थल है. अंतः सलिला फल्गु नदी के पश्चिम के किनारे बसे मोक्ष धाम गया जी श्राद्ध एवं पिंडदान के लिए विख्यात है. इस धाम की महिमा अतुलनीय है. इसे संपूर्ण रूप से जानने तथा समझने के लिए इस धाम की संपूर्ण यात्रा करना अति आवश्यक है.
1780 ईस्वी में अहिल्याबाई ने कराया था निर्माण: सनातन आस्था के प्रतीक विष्णुपद मंदिर को इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा निर्माण कराया गया था. जीवित काले पत्थरों से निर्मित 100 फीट ऊंचे विश्व प्रसिद्ध विष्णु पद मंदिर का निर्माण 1780 ईस्वी में करवाया गया था. मंदिर के गर्भ गृह में भगवान गदाधर श्री विष्णु का 13 इंच का चरण चिन्ह अभी भी रक्षित है. यह ईश्वरीय मान्यता है कि सैकड़ो वर्षों से करोड़ों भक्तों द्वारा स्पर्श किए जाने के बावजूद चरण चिन्ह की आभा कायम है.
क्या है पौराणिक कथा?: इसके संबंध में प्राचीन समय की बात है, जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की. तब अनेक प्राणियों के साथ गयासुर को भी उत्पन्न किया. इसके बाद कोलाहल पर्वत पर जाकर गयासुर ने घोर तपस्या की. उसके तप से इंद्रदेव को भी भय सताने लगा कि कहीं उनके सिहासन न छीन जाए, तब इंद्रदेव भगवान भोले के पास इसका समाधान के लिए पहुंचे. भगवान भोलेनाथ ने उन्हें भगवान विष्णु से मिलने के लिए कहा. इंद्रदेव विष्णु जी के पास गए उनसे प्रार्थना की. इंद्र की बात सुन विष्णु जी ने उन्हें आश्वासन दिया और स्वयं गयासुर के पास गए.
गयासुर को मिला था वरदान: गयासुर ने प्रणाम कर कहा- हे भगवान आपके दर्शन करने हो गया तब भगवान विष्णु ने कहा, कोई वर मांगो. तब गया सूर्य ने वर मांगा भगवान मैं जिसे भी स्पर्श करूंगा, स्वर्ग धाम को जाए. विष्णु जी ने न चाहते हुए भी तथास्तु कहा. इस वरदान के बाद गयासुर सभी प्राणियों को अपना स्पर्श से स्वर्ग लोक भेजने लगा. परिणाम स्वरुप यमपुरी सूनी हो गई, तब सभी देव ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की. ब्रह्मा जी ने गयासुर से कहा कि मुझे यज्ञ हेतु धरती में कोई पवित्र स्थान नहीं मिला था, तुम अपना शरीर यज्ञ हेतु मुझे सौंप दो. यह सुन ब्रह्मा जी की बात सहर्ष स्वीकार की. गयासुर के शरीर पर धर्मशिला रख यज्ञ प्रारंभ किया गया.
"गयासुर का शरीर यज्ञ के बीच अनवरत हिलता रहा, तब उसे रोकने के लिए भगवान श्री नारायण ने अपने दाहिने पैर को गयासुर के शरीर पर रखा. नारायण जी के चरण स्पर्श से ही गयासुर का शरीर हिलना बंद हो गया. गयासुर ने कहा भगवान जिस स्थान पर मैं प्राण त्याग रहा हूं. वह शिला में परिवर्तित हो जाए और मैं उसमें सदा मौजूद रहूं और उस शिला पर आपके पवित्र चरण के चिन्ह रहें. तब से भगवान श्री हरि का 13 इंच का श्री चरण विराजमान है"- पंडित राजा आचार्य, मंत्रालय रामाचार्य वैदिक, विष्णुपद मंदिर, गया