हैदराबाद: फागुन के महीने में पड़ने वाली होली हमारी सभ्यता और संस्कृति की एक ऐसी धरोहर है जो सजीव रूप में अपने इष्ट को खुश करने के लिए पूरा समाज प्रेम और सौहार्द के रंग में जुड़ कर के गीत गाता था. हंसी ठिठोली करता था, गांव की चौपाल हो या नदी का किनारा. मंदिर का प्रांगण हो या फिर घर का दलान, हर जगह फागुन का राग होता था. आंचलिकता ने जिस धरोहर को इतने दिनों तक सजाए रखा उसके सबसे बड़े खेवनहार फगुआ के गाने वाले वह फनकार थे जिनकी कला आज विलुप्त होती जा रही है.
फाग का राग समाज को जोड़ता था और इसके लिए विधिवत तैयारी भी होती थी, लेकिन अब इस तैयारी को आधुनिक भारत में वैश्विक गतिविधि की तरफ जा रही पूरी बाजार वाली संस्कृति ने पूरी तरह भटका दिया है. अब तो डीजे पर बजने वाले गाने होली में भी गाए जाते हैं, डिस्को वाले दीवाने हो गए और भोजपुरी में गाने वाले शायद परिवार के साथ सुना ना जा सके, लेकिन यह भी एक गाना है, 'लस लस करता...' अब एक बार फिर इस विषय पर विचार करने की जरूरत है कि जो हमारी संस्कृति है, हमारी धरोहर है जिससे हमारा समाज जुड़ता है प्रेम और सौहार्द की नई नीव खड़ी होती है. कला संस्कृति समाज का सोपान बनता है और इसे बनाने वाले वह फनकार अगर नहीं रहे तो देश नई संस्कृति को तो जरूर अपना लेगा, लेकिन हमारे पुराने संस्कार जिसमें हिंदुस्तान की आत्मा दिखती है, लगभग खत्म हो जाएगा.
निश्चित तौर पर आज की जरूरत है और आधुनिकता की बातें किसी भी देश के लिए जरूरी यह भी है कि अगर वैश्विक बाजार में मजबूती से खड़ा नहीं रहा, तो बहुत कुछ अपने देश को नहीं मिल पाएगा. लेकिन देश को जो मिला है, अगर उसे भी देश ने छोड़ दिया तो देश की आत्मा जिंदा नहीं रह पाएगी. फगुआ का राग सिर्फ एक गीत नहीं होता था बल्कि एक बड़े समाज की जीविकोपार्जन का साधन भी था जो, चैता से शुरू होता था और कजरी के गीतों तक लगातार चलता था. अगर ब्रज को छोड़ कर के अवध की बात करें तो अवध के गंगा जमुनी तहजीब से लेकर के मिथिलांचल के आंचल तक सिमटा उत्तर भारत फाग के राग में आज भी डूब जाता है, लेकिन ऐसे लोगों की कमी जरूर खलती है जिनके आने का इंतजार सबको होता था.
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कई लाख लोगों का गया रोजगार: उत्तर भारत में फगुआ गाने वालों की आबादी करीब 10 लाख से ऊपर होती थी और इतने लोगों को रोजगार सिर्फ आंचलिकता में गाया जाने वाला गाना देता था. वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय के अनुसार जब हमारा समाज अपनी संस्कृति को गाता था, तो इसके लिए विधिवत साटा दिया जाता था. फगुआ गाने वाली मंडली बुक की जाती थी और वह लोग आकर गाना गाते थे. एक मंडली में 7 से 10 लोग हुआ करते थे और उत्तर भारत की अगर बात कर ले तो ऐसी लाखों मंडलिया हुआ करती थी. जिनके जीविकोपार्जन का साधन मनोरंजन का यह आंचलिक गाना हुआ करता था, जिसमें समाज और संस्कृति जिंदा रहती थी. क्योंकि होली अवध में श्री रामचंद्र खेलते थे जो लोग गाने आते थे उनके लिए जो साज सज्जा का इंतजाम होता था उसमें भी एक बड़ा रोजगार था. चाहे ढोलक पर चमड़ा चढ़ाने वाले की बात हो या फिर मंजीरे को आवाज देने वाले की नगाड़े की लकड़ी बनाने वाले की बात हो या फिर मृदंग के लिए गुटका बढ़ने की.
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यह एक इतनी बड़ी आबादी थी जो समाज में समाज के रंग को गा करके सामाजिकता को जिंदा रखती थी, लेकिन आधुनिकता ने इसको पूरे तौर पर खत्म कर दिया. यह कहा जा सकता है कि आज सिर्फ फाग का राग नहीं खत्म हुआ बल्कि एक युग का अंत हो गया, जिसमें रोजगार 4 लाख लोगों का गया कि 10 लाख लोगों का यह आंकड़ा किसी के पास है ही नहीं सरकार के पास भी शायद इसके आंकड़े नहीं होंगे, क्योंकि हाल के दिनों कोरोना काल में ये साफ हो गया कि किस राज्य के कितने लोग अपने राज्य से बाहर जाकर काम कर रहे हैं इसके सही-सही आंकड़े किसी सरकार के पास नहीं थे. ऐसे में फगुआ के फनकार के गुम होने से कितने लोग बेरोजगार हुए इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. लेकिन यह बिल्कुल सही है कि लाखों की आबादी की कमाई इस फगुआ और चैता की राग से चलता था, जो खत्म हो गया.
रामचंद्र शुक्ल, भिखारी ठाकुर और होली हुड़दंग: आंचलिकता की हनक का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि होली को विधिवत फगुआ के उस रंग से सराबोर किया जाता था जिसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आंचलिकता की गीतें, जिसमें विभेद भी हालांकि बहुत रहा, समाज का प्रेम अपने इष्ट का गायन, देवर भाभी के मजाक वाले गीत, कीचड़ से खेली जाने वाली होली सब कुछ होता था और उसमें गुलाल का उस रूप में उड़ना जो पूर्वी भारत में लवंडा नाच के तौर पर होली को चार चांद लगाता था, यह फगुआ के फनकार ही पूरा कर पाते थे.
आज समाज जरूर बदला है और कई मंच पर लड़के लड़कियों के कपड़े पहनकर लोगों को हंसाने का काम कर रहे हैं और करोड़ों कमा ले रहे हैं, लेकिन जिसने इस विधा को शुरू किया उस भिखारी ठाकुर की आंचलिकता का पूरा स्वरूप इसलिए था कि समाज और संस्कृति बनी रहे और संस्कार स्वरूप में जिंदा रहेगी. हम कह सकें कि हम हिंदुस्तानी हैं और यही रंग भिखारी ठाकुर का होली के इस गीत के साथ शुरू होता था. इसमें कहा जाता था जोगीरा सारारारा... जोगी जी धीरे धीरे...
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काहे खातिर राजा रूसे काहे खातिर रानी।
काहे खातिर बकुला रूसे कइलें ढबरी पानी॥ जोगीरा सररर....
राज खातिर राजा रूसे सेज खातिर रानी।
मछरी खातिर बकुला रूसे कइलें ढबरी पानी॥ जोगीरा सररर....
केकरे हाथे ढोलक सोहै, केकरे हाथ मंजीरा।
केकरे हाथ कनक पिचकारी, केकरे हाथे अबीरा॥
राम के हाथे ढोलक सोहै, लछिमन हाथ मंजीरा।
भरत के हाथ कनक पिचकारी, शत्रुघन हाथ अबीरा॥
फगुआ को लेकर जिन बातों को कहा गया दरअसल होली को बताने के लिए और होली को समझाने के लिए जो कुछ कहा जाता है, वही फगुआ है. अगर होली जलाई जाती है होली में रंग और अबीर गुलाल लगाया जाता है, तो इसी बात को फगुआ में गाया जाता है या ऐसे भी कह सकते हैं जो फगुआ में गाया जाता है वही होली में किया जाता है. होली में रंग जितना उड़ता है फगुआ का राग भी उतना मजबूत होता है, लेकिन आज के आधुनिक दौर में बदली हुई व्यवस्था का जो स्वरूप खड़ा हो रहा है उसमें फगुआ पूरे तौर पर गुप्त होता जा रहा है. ऐसे में इस बात को सोचना जरूर होगा कि अगर होली है तो फगुआ होना चाहिए और समाज के हर व्यक्ति को इस विषय पर सोचना भी पड़ेगा. क्योंकि जिस फगुआ के फनकार के समाज से गायब होने की बात हो रही है, अगर इसका रंग नहीं रहा तो होली का हर रंग चाहे जैसा हो लेकिन राग जिसमें चौताल, उलारा, डेढ़ ताल, बेलवईया, फगुआ, चैता गाया जाता है ये वाला रंग तो खत्म हो जाएगा.