वाराणसी: अपनी लेखनी से गांव की सोंधी माटी की महक दुनियाभर में फैलाने वाले, अपने कलम से आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने वाले, समाज की कुरीतियों और रूढ़ीवादी परंपराओं को तोड़ने वाले उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद की 140वीं जयंती 31 जुलाई को मनाई जाएगी. जिले में स्थित उनके गांव लमही में इस बार उनकी जयंती पर कोरोना संक्रमण के कारण होने वाला महोत्सव स्थगित कर दिया गया है. वर्षों से चली आ रही परंपरा का निर्वहन करते हुए डिजिटल माध्यम से जयंती उत्सव मनाया जाएगा.
मुंशी प्रेमचंद ने निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि जैसे 15 उपन्यास और लगभग 300 से ज्यादा कहानियों के साथ तीन नाटक समेत 10 पुस्तकों का अनुवाद, सात बाल साहित्य सहित न जाने कितनी किताबें लिखी हैं. इन्हें मुंशी, प्रेमचंद और धनपत राय के नाम से भी जाना जाता है.
अंग्रेजों ने जलवा दी थी मुंशी की किताबें
वाराणसी से लगभग 15 किलोमीटर दूर लमही गांव में मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ था. आजादी की लड़ाई में हर कोई अपना योगदान दे रहा था. प्रेमचंद ने भी अपनी लेखनी के जरिए आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने का काम किया. अंग्रेजी हुकुमता को उनकी लेखनी से डर लग गया और उनके लिखे गए पत्रों और किताबों को जला दिया गया. इसके बाद भी उन्होंने लिखना जारी रखा. आजादी की लड़ाई के बाद समाज की कुरीतियों और रूढ़ीवादी परंपरा को तोड़ने के लिए कई उपन्यास और किताबें लिखी.
घर से निकाल दिए गए थे प्रेमचंद
विधवा विवाह जैसी रूढ़ीवादी परंपरा के खिलाफ प्रेमचंद ने आवाज उठाई. इस प्रथा को समाज से खत्म करने के लिए उन्होंने एक विधवा महिला से शादी कर ली, जिसके बाद उन्हें घर से निकाल दिया गया था. कायस्थ परिवार में जन्मे मुंशी प्रेमचंद की माता का नाम आनन्दी देवी था और पिता का नाम मुंशी अजायबराय था, जो लमही में डाकमुंशी थे. आजादी के पहले भारत की हकीकत का जैसा चित्रण प्रेमचंद ने किया वैसा किसी अन्य लेखक के साहित्य में नहीं मिलता है.
घर दिलाता है मुंशी की मौजूदगी का एहसास
गांव लमही में आज भी प्रेमचंद का पैतृक आवास मौजूद है. जिस कमरे में बैठकर वह लेखनी करते थे, वह कमरा भी है. ग्रामीणों ने बताया कि उनका घर और आंगन आज भी उनके होने का एहसास दिलाता है. उनके घर और स्मारक के व्यवस्थापक सुरेश दुबे ने बताया कि दुख इस बात का है कि सिर्फ जयंती के अवसर पर ही उन्हें याद किया जाता है. उनके घर के बगल में एक संग्रहालय भी है, जहां पर उनकी लिखी किताबें और उपन्यास मौजूद हैं.
स्थानीय प्रशासन और सरकार से निराश हैं ग्रामीण
संग्रहालय में मुंशी का हुक्का और चरखा भी रखा है. उनकी स्मृतियों को संजोने का काम ग्रामीण खुद अपने स्तर से करते हैं. स्थानीय प्रशासन और सरकार की ओर से गांव को विकसित नहीं करने से ग्रामीण निराशा हैं. इंटरनेट के इस जमाने में सब कुछ डिजिटल किया जा रहा है, लेकिन उनकी रचनाएं अभी तक केवल किताबों में ही सिमट कर रह गई हैं. ग्रामीण गांव को लंबे समय से विकसित करने की मांग करते आ रहे हैं. ग्रामीणों का कहना है कि जिस तरह से विलियम शेक्सपियर के गांव को अलग पहचान दी गई है. उसी तरह से मुंशी के गांव को भी विकसित कर अलग पहचान दी जाए. हालांकि उनके पैतृक गांव की फाइल अभी भी संस्कृति मंत्रालय में घूम रही है.