बस्तर: बस्तर में दशहरा के अवसर पर रविवार को एक विशेष बंदूक की पूजा की गई है. इस बंदूक का इतिहास 200 साल पुराना है. बस्तर राजपरिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने राजमहल के अंदर कालबान बंदूक की पूजा की और अस्त्र पूजन की रस्म को पूरा किया. अष्टमी और नवमी एक ही दिन की पड़ने की वजह से बस्तर दशहरे में मावली परघाव नवमी और विजयदशमी के दिन धूमधाम से पूरी की गई.
कालबान बंदूक की विधि विधान से पूजा: विजयदशमी की तिथि रविवार को बस्तर के राजपरिवार ने मनाई. इस दिन बस्तर राज परिवार ने शस्त्र पूजा की. इस शस्त्र पूजा में अंग्रेजों के खिलाफ चलाई गई कालबान बंदूक की विशेष विधि विधान से पूजा की गई. इस कालबान बंदूक को काकतीय चालुक्य राजवंश के लोग वर्षों से अपने पास रखे हुए हैं. इस दौरान बस्तर राजपरिवार के सदस्य और अन्य लोग मौजूद रहे.
आज के दिन भीतर रैनी रस्म के तहत मंदिर में रखे गए शस्त्रों की पूजा की गई. इसके साथ रणभूमि में अपनी आहुति देने वाले हाथी, घोड़े की भी पूजा का विधान पूरा किया गया. यह एक ऐसा दिन होता है जब राजपरिवार के सभी सदस्य एकजुट होकर एक साथ पूजा करते हैं. देवी की पूजा पाठ करके नए वस्त्र के साथ उपहार दिया जाता है. उसके बाद भोग लगाया जाता है. इस दिन कामना की जाती है कि बस्तर में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है: कमलचंद भंजदेव, बस्तर राजपरिवार के सदस्य
नए रथ की होती है शुरुआत: बस्तर राजपरिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने बताया कि आज के दिन नए रथ की शुरुआत होती है. आज से राजा नए रथ में सवार होते हैं. इसके साथ ही आज से भीतर रैनी की रस्म शुरू होती है. भीतर रैनी से आशय है कि राजा आज राजमहल के भीतर रहेंगे और अपनी प्रजा को दर्शन देंगे. दर्शन से पहले राजा अपनी कुलदेवी, शस्त्र, अश्व और अपने पितरों की पूजा करते हैं.
प्राचीन काल के हथियार मौजूद: बस्तर के मंदिरों में प्राचीन काल के हथियार मौजूद है. इसी में से एक कालबान बंदूक है. भारतीय भरमार बंदूक के तर्ज पर बनाई गई यह बंदूक उस वक्त कागज, छर्रे बारूद को भरकर इस्तेमाल में लाया जाता था. इसकी दूरी और मारक क्षमता भी ज्यादा थी. एक बार गोली चलने पर काफी दूर तक दुश्मनों को जाकर छर्रे लगते थे. इसलिए इसका नाम कालबान रखा गया. आज भी बस्तर के राजपरिवार के सदस्यों के पास यह बंदूक एक धरोहर और निशानी की तरह है.