जयपुर. 8 मई को विश्व थैलेसीमिया दिवस के रूप में मनाया जाता है. थैलेसीमिया एक ब्लड डिसॉर्डर से जुड़ी बीमारी है, जो माता-पिता से बच्चे में ट्रांसफर होती है. थैलेसीमिया बीमारी से पीड़ित मरीज में खून की कमी होती है. खून की कमी के चलते मरीज में पर्याप्त हीमोग्लोबीन नहीं बन पाता और हर 2-3 सप्ताह के अंदर मरीज को रक्त चढ़ाने की जरूरत होती है. सवाई मान सिंह मेडिकल कॉलेज की डिपार्टमेंट ऑफ ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन की सहायक आचार्य डॉक्टर सरिता शर्मा का कहना है कि आम तौर पर थैलेसीमिया से पीड़ित माता-पिता से यह बीमारी बच्चे में पहुंचती है. हालांकि, माता-पिता में इसके लक्षण दिखाई नहीं देते, लेकिन बच्चों में थैलेसीमिया के लक्षण दिखाई देते हैं. ऐसे में विवाह से पूर्व यदि माता और पिता की जांच की जाए और दोनों में से कोई भी थैलेसीमिया का वाहक है, तो बच्चे को इस बीमारी से बचाया जा सकता है, लेकिन भारत में आज भी अवेयरनेस की कमी के चलते थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है.
थैलेसीमिया के लक्षण : डॉ सरिता शर्मा का कहना है की थैलेसीमिया से पीड़ित मरीज में कुछ लक्षण दिखाई देते हैं, जिनमें बार-बार बीमारी होना, सर्दी जुकाम बने रहना, कमजोरी और उदासी रहना, आयु के अनुसार शारीरिक विकास न होना, शरीर में पीलापन बना रहना, दांत बाहर की ओर निकल आना, सांस लेने में तकलीफ होना ऐसे कई तरह के संक्रमण होना शामिल है. ऐसे में यदि किसी बच्चे में यह लक्षण दिखाई देते हैं, तो वह थैलेसीमिया से पीड़ित हो सकता है. इसके साथ ही गर्भावस्था में जांच के दौरान भी थैलेसीमिया बीमारी का पता लगाया जा सकता है और समय रहते इससे बचाव भी संभव है.
स्टेम सेल ट्रांसप्लांट से इलाज संभव : डॉक्टर सारिता शर्मा का कहना है कि कुछ समय पहले थैलेसीमिया का इलाज संभव नहीं था, लेकिन अब स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के माध्यम से थैलेसीमिया के मरीजों का इलाज हो रहा है. आमतौर पर इस इलाज का खर्च 40-45 लाख रुपए तक आता है, लेकिन सवाई मानसिंह अस्पताल में यह नि:शुल्क किया जा रहा है और हाल ही में स्टेट कैंसर इंस्टीट्यूट में थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चे का सफलतापूर्वक इलाज भी किया गया था.
क्या है प्रक्रिया : थैलेसीमिया बीमारी से जूझ रहे मरीज के स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के लिए सबसे पहले डोनर की आवश्यकता होती है. इसके बाद मरीज और डोनर को चिकित्सक लगभग 5 दिनों तक कुछ दवाइयां देते हैं. इसके बाद डोनर के बोन मैरो में मल्टीपल स्टेम सेल्स बनना शुरू हो जाती हैं. चिकित्सक उपयोगी स्टेम सेल्स को पहचान कर उसे रक्त से अलग करते हैं. यह पूरी प्रक्रिया एक मशीन की सहायता से की जाती है और डोनर को किसी तरह का दर्द नहीं होता है. इस पूरी प्रक्रिया को करने में करीब 3 से 4 घंटे का समय लगता है. डोनर के डोनेट किए ब्लड में से स्टेम सेल्स को अलग कर लिया जाता है. इसके बाद इन सेल्स को मरीज के शरीर में ट्रांसफ्यूज किया जाता है. डॉ सरिता शर्मा का कहना है कि स्टेम सेल्स आमतौर पर मूल कोशिकाएं होती हैं, जो शरीर में कोशिकाओं के निर्माण में सहायक होती हैं. यह एक रीजेनरेटिव मेडिसिन का पार्ट है और इसके माध्यम से ऐसे अंगों को ठीक किया जा सकता है जो खराब हो चुके हैं.