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इन्हें है थैलेसीमिया होने का ज्यादा खतरा, शादी से पहले कराएं ये जांच ताकि बच्चे को न हो ये बीमारी - World Thalassaemia Day 2024

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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : May 8, 2024, 6:31 AM IST

World Thalassaemia Day 2024
विश्व थैलेसीमिया दिवस 2024 (ETV Bharat GFX)

Thalassaemia Symptoms, विश्व थैलेसीमिया दिवस 8 मई को मनाया जाता है. थैलेसीमिया बीमारी जन्म से होती है. इसके लक्षण बच्चों में तीन माह से दिखने लगते हैं. गंभीर स्थिति में पीड़ित बच्चे को महीने में दो बार खून चढ़ाना पड़ता है. जानिए कैसे होती है ये बीमारी और कैसे इसका इलाज हो सकता है?

बूंदी. थैलेसीमिया अनुवांशिक तौर पर बच्चों को माता-पिता से मिलने वाला रोग है, जिसके कारण शरीर में हीमोग्लोबिन निर्माण प्रक्रिया ठीक से काम नहीं करती है. इससे शरीर में रक्त की कमी होने लगती है और बार-बार रक्त चढ़ाने की जरूरत पड़ती है. वर्तमान में बूंदी जिले में थैलेसीमिया पीड़ित लगभग 60 बच्चे हैं, जिनमें 3 माह से लेकर 12 साल के बच्चे हैं. थैलेसीमिया बीमारी के कारण प्रत्येक पीड़ित बच्चे को माह में 2 बार रक्त चढ़ाना पड़ता है.

क्या है थैलेसीमिया : यह आनुवांशिक बीमारी है, जो जन्म से होती है. किसी महिला और पुरुष में थैलेसीमिया वाहक जीन हैं और उन दोनों की शादी होती है, तो उनसे थैलेसीमिया पीड़ित बच्चा होने की आशंका होती है. ऐसे बच्चों को 10 से 15 दिन में खून चढ़ाना पड़ता है.

बीमारी पता करने के लिए उपाय : शादी से पहले महिला-पुरुष का एचपीएलसी ब्लड टेस्ट कराना चाहिए. इससे रोग वाहक जीन का पता लगता है. पुरुष-महिला में से किसी एक में यह जीन है तो कोई खतरा नहीं रहता. दोनों में यह जीन होने वाले बच्चे को थैलेसीमिया होने का खतरा रहता है. देश में करीब 10 से 12 फीसदी लोगों में यह जीन पाया जाता है.

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इस तरह थैलेसीमिया से हो सकता है बचाव : बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. जी.एस. कुशवाह ने बताया कि खून की जांच करवाकर रोग की पहचान कर सकते हैं. शादी का रिश्ता तय करने से पहले लड़के और लड़की के खून की जांच कराई जा सकती है. नजदीकी रिश्ते में शादी करने से बचना और गर्भ ठहरने के 4 माह के अंदर भ्रूण की स्वास्थ्य जांच करवाकर भी बीमारी से बच सकते हैं.

3 माह बाद नजर आते हैं लक्षण : जिला अस्पताल के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. पंकज जैन का कहना है कि थैलेसीमिया बीमारी से ग्रसित बच्चों में जन्म के 3 माह बाद ही लक्षण नजर आते हैं. कुछ बच्चों में 5-10 साल के बीच लक्षण दिखाई देते हैं. सामान्य लक्षणों में त्वचा, आंख, जीभ और नाखून पीले पड़ने लगते हैं. दांतों के उगने में दिक्कत और बच्चे का विकास धीमा हो जाता है. थैलेसिमिया की गंभीर अवस्था में खून चढ़ाना जरूरी हो जाता है. उन्होंने बताया कि बूंदी में लगभग 60 बच्चें थैलेसीमिया बीमारी से ग्रसित हैं, जिनमें से 45 बच्चे बूंदी जिला अस्पताल में पंजीकृत हैं. शेष कोटा, टोंक, सवाई माधोपुर में भी पंजीकृत हैं.

रक्तदान के लिए किया प्रोत्साहित : जिला अस्पताल सहित सभी ब्लड बैंकों में थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों को प्राथमिकता से रक्त उपलब्ध करवाया जाता है. फिर भी कई बार ब्लड बैंक में ही रक्त की कमी हो जाती है, इससे परिजनों के सामने समस्या आ जाती है. ऐसे में स्वास्थ्य विभाग सामाजिक संस्थाओं से संपर्क करके रक्तदान के लिए प्रोत्साहित करता है. इसके लिए रक्तदान शिविरों का आयोजन किया जाता है. रक्तदान जागरूकता कार्यक्रमों के चलते भी युवा वर्ग आगे आकर स्वैच्छिक रक्तदान करने लगा है.

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हमेशा के लिए मिली बीमारी से मुक्ति : ऐसे बच्चे जिसकी माता-पिता से बोन-मैरो मैच हो जाता है, उसे थैलेसीमिया से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सकती है. नगर परिषद में पार्षद प्रेमप्रकाश एवरग्रीन का पुत्र वंश एवरग्रीन का 2017 में बोन मैरो ट्रांसप्लांट किया गया, जिसके बाद उसे इस बीमारी से हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई. प्रेमप्रकाश एवरग्रीन ने बताया कि वंश के बोनमैरो ट्रांसप्लांट के लिए जांच करवाई गई, जिसमें उसकी माता के बोनमैरो से मैच हो गया. इसके बाद आगे की प्रक्रिया शुरू की गई और जयपुर के हॉस्पिटल में बेटे का बोनमैरो ट्रांसप्लांट किया गया. लगभग 2 साल की देखरेख के बाद वंश पूरी तरह से स्वस्थ है और वर्तमान में बी.ए. सेकंड ईयर के छात्र हैं.

बोनमैरो ट्रांसप्लांट पर 7 लाख रुपए खर्च : बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. जी.एस. कुशवाह ने बताया कि राज्य सरकार बोनमैरो ट्रांसप्लांट पर प्रति बालक 7 लाख रुपए देती है. ये उन परिवारों के लिए है, जिनकी वार्षिक आय 2.50 लाख रुपए या इससे कम है. पीड़ित बच्चे का उसके भाई-बहन से एचएलए शत प्रतिशत और माता-पिता से 50 फीसदी मैच होने पर ट्रांसप्लांट करीब 85 फीसदी सफल होता है. बोनमैरो लेने से शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. चार माह बाद ये रिकवर हो जाता है.

ब्लड कंपोनेंट यूनिट चालू हो तो बच्चों को राहत : बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. पंकज जैन ने बताया कि अभी वर्तमान में पीड़ित बच्चों को ब्लड बैंक से मिलने वाला संपूर्ण ब्लड (आरबीसी, डब्ल्यूबीसी, प्लेटलेट्स और प्लाज्मा सम्मिलत) चढ़ाया जाता है. यदि यहां पर ब्लड कंपोनेंट यूनिट की सुविधा चालू हो जाए तो आवश्यकतानुसार पैक्ड ब्लड सेल्स ही चढ़ाया जा सकेगा. इससे भविष्य में संपूर्ण ब्लड चढ़ाए जाने से होने वाले साइड इफेक्ट से बचा जा सकेगा. जिला अस्पताल के ब्लड बैंक प्रभारी डॉ. ऋषि कच्छावा ने बताया कि बूंदी ब्लड बैंक में कंपोनेंट यूनिट उपलब्ध हैं, लेकिन लाइसेंस के अभाव में संचालित नहीं हो पा रही हैं. इसके लाइसेंस की प्रक्रिया पूरी की जा चुकी है. उम्मीद है जल्दी ही यह सुविधा शुरू हो जाएगी.

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