रांची: रांची लोकसभा सीट को लेकर एक धारणा बन गई है कि यहां से भाजपा प्रत्याशी की जीत तय है. क्योंकि इसे भाजपा के गढ़ की भी संज्ञा दी जाने लगी है. लेकिन ऐसा नहीं है. इस सीट पर कांग्रेस का भी दबदबा रहा है. अलग बात है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के पीएम कैंडिडेट घोषित किए जाने के बाद से अबतक हुए दो चुनावों में भाजपा प्रत्याशी की जीत होती आ रही है. वर्तमान में संजय सेठ रांची से भाजपा के सांसद हैं. इसबार भी पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया है. लेकिन थोड़ा पीछे मुड़कर देखेंगे तो पता चलेगा कि सुबोधकांत सहाय ने यहां से दो बार चुनाव जीतकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में कई मंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली थी.
समीकरण और परिस्थिति में है अंतर
सच यह है कि रांची में कांग्रेस के पास सुबोधकांत सहाय के अलावा कोई दूसरा चेहरा नहीं है. इस बार भी उन्हीं के दावेदारी की चर्चा है. सुबोधकांत सक्रिय भी हो गये हैं. रांची लोकसभा क्षेत्र के अलग-अलग इलाकों में जनता के बीच जा रहे हैं. उनके पास इसबार एचईसी का मुद्दा है, जहां के कर्मी हाशिए पर चले गये हैं और सड़कों पर आंदोलनरत हैं. वैसे विधानसभावार रांची सीट का आंकलन करने पर कुछ और ही तस्वीर नजर आती है.
रांची लोकसभा क्षेत्र में हटिया, खिजरी, रांची, कांके, सिल्ली और ईचागढ़ विधानसभा क्षेत्र आते हैं. इन छह विधानसभा सीटों में से रांची, हटिया, कांके पर भाजपा और सहयोगी दल आजसू का सिल्ली सीट पर कब्जा है. शेष दो सीटों में ईचागढ़ में झामुमो और खिजरी में कांग्रेस की जीत हुई थी. जाहिर है कि एनडीए का पलड़ा भारी है. लेकिन ख्याल रखना चाहिए कि संजय सेठ का सामना एंटी इनकम्बेंसी से भी हो सकता है. महंगाई को कांग्रेस ने बड़ा मुद्दा बनाया है. वहीं कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने न्याय यात्रा निकालकर पूरे देश में अपनी अलग पहचान बनाई है.
रांची में कांटे की टक्कर के आसार
वरिष्ठ पत्रकार शंभू नाथ चौधरी ने संजय सेठ और सुबोधकांत के बीच के प्लस और माइनस फैक्टर पर अपनी राय दी है. उनके मुताबिक संजय सेठ सांसद बनने के बाद लगातार सक्रिय हैं. सहज तौर पर उपलब्ध हैं. मोदी का चेहरा और भाजपा के साथ शहरी कोर वोटर उनकी जीत का कारण रहा है. उनके साथ ओबीसी वोट खासकर वैश्य वोट बैंक है. कमजोरी के रुप में एंटी इनकम्बेंसी एक स्वाभिक फैक्टर है. गैर भाजपाई वोटरों की गोलबंदी की तीव्रता की संभावना है.
वरिष्ठ पत्रकार शंभू नाथ चौधरी के मुताबिक सुबोधकांत भी सहज रुप से उपलब्ध रहते हैं. जनता के बीच सक्रिय रहते हैं. इनकी जनता के बीच पुरानी पकड़ है. कांग्रेस से अलग निजी संगठनों के साथ उनका अच्छा तालमेल रहता है. पार्टी में उनके नाम पर कोई विरोध नहीं है. उनके सामने कोई दावेदार नहीं हैं. अगर ट्राइबल इलाकों में कल्पना सोरेन वोट मांगती हैं तो सुबोधकांत सहाय को मजबूती मिलेगी. जहां तक कमजोरी की बात है तो हिन्दुत्ववादी वोटरों को सुबोधकांत नहीं भाते हैं. लगातार दो बार हारने से राजनीतिक प्रभाव कम हुआ है. इसकी वजह से धमक कमजोर हुई है.
एक बात तो सही है कि कांग्रेस में लोकप्रिय चेहरों की कमी है. बंधु तिर्की के जुड़ने से कांग्रेस मजबूत जरुर हुई है. इस दिशा में काम करने से कांग्रेस चूकती आ रही है. रांची सीट से बन्ना गुप्ता के नाम की भी चर्चा हुई है. लेकिन रांची में बन्ना गुप्ता का कोई जनाधार नहीं है. अगर सुबोधकांत को झामुमो नेताओं का समर्थन मिलता है तो उनका पक्ष मजबूत हो सकता है. लिहाजा, रांची सीट पर इसबार एकतरफा जीत की बात नहीं की जा सकती है.
रांची में कांग्रेस और भाजपा में होती रही है कांटे की टक्कर
रांची लोकसभा सीट को बेशक भाजपा के गढ़ कहा जाता है लेकिन यहां कांग्रेस का भी दबदबा रहा है. 1980 से 2019 तक हुए 11 लोकसभा चुनावों की बात करें तो छह बार भाजपा, चार बार कांग्रेस और एक बार जनता दल की जीत हुई है. 1980 और 1984 में कांग्रेस के शिवप्रसाद साहू जीते थे. इसके बाद जनता दल की टिकट पर सुबोधकांत सहाय ने 1989 का चुनाव जीता. लेकिन 1991 से 1999 के बीच चार चुनावों में भाजपा के रामटहल चौधरी जीतते रहे.
2009 और 2014 में कांग्रेस की टिकट पर सुबोधकांत सहाय ने भाजपा को हराकर अपना लोहा मनवाया. हालांकि 2014 में रामटहल चौधरी और 2019 में भाजपा के संजय सेठ से चुनाव हार गये. पिछले चुनाव में भाजपा के संजय सेठ की एकतरफा जीत हुई थी. उन्होंने सुबोधकांत सहाय को दो लाख से ज्यादा वोट के अंतर से हराया था. लेकिन इस बार की परिस्थिति बदली बदली है. मुकाबला कांटे का हो सकता है.
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