रांचीः पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के अपमान वाले भावनात्मक संदेश से झारखंड की राजनीति में खलबली मची हुई है. भाजपा के सभी बड़े नेता सीधे तौर पर इस अपमान के लिए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं. वहीं झामुमो ने भी संभावित डैमेज को कंट्रोल करना शुरु कर दिया है. पार्टी ने सोशल मीडिया पर अपने पोस्ट में लिखा है कि "झारखंड भाजपा में मुख्यमंत्री की भरमार है. अब लग रहा है कि एक-दो और पूर्व को गवर्नर बना राज्य निकाला दिया जाएगा".
मौजूदा हालात में झामुमो के इस इशारे का मतलब कोई भी समझ सकता है. लिहाजा, सोशल मीडिया पर भी खींचतान मची हुई है. कोई चंपाई के प्रति सहानुभूति जता रहा है तो कोई उनकी तुलना भस्मासुर से कर रहा है. लेकिन सवाल है कि चंपाई सोरेन के इस स्टैंड का झारखंड की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा. कोल्हान के टाइगर कहे जाने वाले चंपाई सोरेन क्या अपने प्रमंडल पर असर डाल पाएंगे. क्या वाकई अपमान की वजह से चंपाई को अलग रास्ता खोजना पड़ा.
वरिष्ठ पत्रकार आनंद कुमार का कहना है कि अगर चंपाई सोरेन को अपमानित किया जा रहा था तो दर्द बयां करने में इतना वक्त क्यों लगा दिए. उनपर विश्वास था, तभी तो जेल जाते वक्त हेमंत सोरेन ने उन्हें सत्ता की कमान दी थी. इसका मतलब है कि चंपाई सोरेन के स्तर पर कुछ तो खिचड़ी पक रही थी जिसकी भनक हेमंत सोरेन को लग गई थी. इसको समझने के लिए 28 जून को हेमंत सोरेन की जेल से रिहाई और उसके बाद के घटनाक्रम को जोड़कर देखना होगा.
बकौल आनंद कुमार, जब हेमंत सोरेन जेल से बाहर निकले तो कायदे से चंपाई सोरेन को रिसिव करने जाना चाहिए था. लेकिन वे कैबिनेट की बैठक में मशगूल रहे. जबकि बैठक टाली जा सकती थी. दूसरी बात ये कि हेमंत सोरेन ने 7 जुलाई को शपथ ग्रहण की तैयारी की थी. लेकिन अचानक 4 जुलाई को शपथ लेना पड़ा. जब 3 जुलाई को विधायक दल की बैठक में साफ हो गया था कि हेमंत सोरेन फिर से सत्ता संभालेंगे तो चंपाई ने चुनिंदा ट्रांसफर-पोस्टिंग को क्यों स्वीकृति दी.
सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि 1 जुलाई से आईपीसी, सीआरपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह तीन नये कानून लागू हुए थे. गैर भाजपाई राज्य इसपर सवाल उठा रहे थे. इसके बावजूद चंपाई सरकार ने बड़े बड़े विज्ञापन निकाले. उसी समय सोनिया गांधी की हेमंत सोरेन से फोन पर बात हुई थी. इन घटनाक्रमों से साफ लग रहा है कि चंपाई सोरेन के स्तर पर कुछ खिचड़ी पक रही थी. इसी वजह से हेमंत सोरेन को समय से पहले शपथ लेना पड़ा. यह भी गौर करना चाहिए कि चंपाई सोरेन के कामकाज की तारीफ भाजपा के सभी नेता कर रहे थे. लिहाजा, ऐसा लगता है कि अचानक हेमंत सोरेन को जमानत मिलने की वजह से पूरा खेल बिगड़ गया.
अब सवाल है कि क्या चंपाई सोरेन के भाजपा में जाने से कोल्हान में कोई असर पड़ेगा. इसपर वरिष्ठ पत्रकार आनंद कुमार का कहना है कि चंपाई सोरेन झामुमो की कृपा पर जीतते रहे हैं ना कि अपने बल पर. 2019 में हेमंत सोरेन ने उनके लिए जोर लगाया था. तब वह करीब 15 हजार वोट के अंतर से जीते थे. इससे पहले उनकी जीत का मार्जिन बेहद मामूली रहा था. 2005 में सिर्फ 882 वोट से जीते थे. 2009 में 3,246 वोट से, और 2014 में 1,115 वोट से जीते थे. खास बात है कि अगर चंपाई सोरेन की कोल्हान में इतनी मजबूत पकड़ है, जैसा भाजपा समझ रही है तो फिर 2019 के जमशेदपुर लोकसभा चुनाव में वह तीसरे स्थान पर कैसे रहे.
वरिष्ठ पत्रकार आनंद कुमार के मुताबिक चंपाई सोरेन अपने पुत्र बाबूलाल सोरेन को चुनाव लड़ाना चाहते हैं. लेकिन हेमंत सोरेन उनके पक्ष में नहीं हैं. चंपाई सोरेन की घाटशिला विधायक रामदास सोरेन और पोटका विधायक संजीव सरदार से भी नहीं बनती है. खरसावां विधायक दशरथ गगराई तो खुलकर चंपाई से संबंध का खंडन कर चुके हैं. यह भी समझना होगा कि प्रदेश भाजपा में पहले से ही कई कद्दावर आदिवासी नेता मौजूद हैं. जाहिर है कि भाजपा में उनकी एंट्री तालमेल पर असर डालेगी. इसी तरह का एक एक्सपेरिमेंट भाजपा ने दुमका में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन को टिकट देकर किया था. नतीजा, सबके सामने है. वरिष्ठ पत्रकार आनंद कुमार का कहना है कि चंपाई सोरेन के भावनात्मक संदेश से फौरी तौर पर सहानुभूति तो मिलेगी लेकिन जब झामुमो की ओर से सच्चाई को सामने लाया जाएगा तो फिर क्या होगा. इसका मतलब है कि हेमंत सोरेन के स्तर पर उनके लिए एक सेफ पैसेज छोड़ा गया है और कुछ नहीं.
संथाल के बाद कोल्हान को कहा जाता है झामुमो का गढ़
चंपाई सोरेन के बदले रुख से कोल्हान में राजनीतिक समीकरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो चुनाव के वक्त पता चलेगा. लेकिन सच यह है कि कोल्हान में झामुमो बहुत मजबूत स्थिति में है. संथाल के बाद कोल्हान झामुमो का दूसरा गढ़ बन चुका है. कोल्हान में कुल 14 विधानसभा सीटें हैं. इनमें नौ सीटें एसटी के लिए रिजर्व हैं. 2019 के विस चुनाव में यहां की एक भी सीट भाजपा नहीं जीत पाई. जबकि झामुमों 14 में से 11 सीटें जीतने में कामयाब रहा. शेष तीन सीटों में जगन्नाथपुर और जमशेदपुर पश्चिमी सीट कांग्रेस के पास तो जमशेदपुर पूर्वी सीट सरयू राय के खाते में गई थी. जबकि 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कोल्हान की पांच सीटों पर जीत दर्ज की थी.
संथाल में कुल 18 विधानसभा सीटें हैं. इनमें से सिर्फ चार यानी राजमहल, सारठ, देवघर और गोड्डा सीट भाजपा के पास है. शेष 14 में से 9 सीट पर झामुमो और पांच सीट पर कांग्रेस का कब्जा है. खुद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन संथाल के बरहेट विधानसभा सीट से विधायक हैं. दोनों प्रमंडलों की तुलना करने पर साफ दिखता है कि झामुमो की संथाल से ज्यादा मजबूत पकड़ कोल्हान पर है.
सत्ता में कोल्हान की रही है जबरदस्त पैठ
झारखंड बनने के बाद से अब तक कोल्हान ने राज्य को सबसे ज्यादा चार मुख्यमंत्री दिए हैं. रघुवर दास एक मात्र ऐसे गैर आदिवासी मुख्यमंत्री रहे हैं जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. उनसे पहले कोल्हान से आने वाले अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा सीएम रह चुके हैं. इस लिस्ट में अब चंपाई सोरेन का भी नाम जुड़ गया है.
कोल्हान में 1932 आधारित स्थानीयता पर उठते रहे हैं सवाल
कोल्हान में 1932 के खतियान को आधार बनाकर स्थानीयता तय करने के हेमंत सरकार के फैसले पर सवाल उठते रहे हैं. कोल्हान की राजनीति में धाक रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा खुले तौर पर कह चुके हैं कि 1932 के खतियान को आधार बनाने से कोल्हान जल उठेगा. क्योंकि कोल्हान के ज्यादातर लोग सर्वे सेटलमेंट 1934, 1958, 1964-65 और 1970-72 के जमीन पट्टा और खतियान धारक हैं. 1932 के कारण सिंहभूम और सरायकेला के लाखों लोग स्थानीयता के लाभ से वंचित हो जाएंगे. लिहाजा, 1932 की जगह केवल खतियान आधारित स्थानीयता तय करना चाहिए.
लेकिन सभी जानते है कि राजनीति परसेप्शन पर चलती है. कोल्हान में मजबूत पकड़ रखने वाला भाजपा से जुड़ चुका है. हालांकि गीता कोड़ा को लोकसभा चुनाव में फायदा नहीं मिला. अब चंपाई सोरेन के भाजपा में आने पर परिवारवाद के खिलाफ राजनीतिक मुहिम कितना रंग लाएगा, यह वक्त ही बताएगा.
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