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शीर्ष नेतृत्व पर निर्भरता और अनिर्णय की स्थिति ने प्रदेश में कांग्रेस को पहुंचाया पतन के गर्त में - UP Congress Politics

उत्तर प्रदेश में गठबंधन के बाद भी कांग्रेस (Congress Politics in UP) की राह आसान नहीं दिख रही है. ऐसा कांग्रेस की नीतियों से ही जाहिर हो रहा है. कांग्रेस का अपनी परंपरागत सीटों रायबरेली और अमेठी में उम्मीदवार घोषित न करना सियासी गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है. देखें विशेष रिपोर्ट...

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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Mar 28, 2024, 7:30 PM IST

जानकारी साझा करते राजनीतिक विश्लेषक योगेश मिश्रा.



लखनऊ : लंबी जद्दोजहद के बाद प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन हो गया और कांग्रेस को बंटवारे में सत्रह सीटें भी मिल गईं, लेकिन नामांकन का पहला चरण खत्म होने का बाद भी कांग्रेस अपनी परंपरागत रायबरेली और अमेठी सीटों के लिए प्रत्याशियों का ऐलान नहीं कर पाई है. सोनिया गांधी पहले ही राज्यसभा जा चुकी हैं, जिससे साफ है कि वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगी. ऐसे में कयास लगाए जा रहे थे कि शायद प्रियंका गांधी वाड्रा इस सीट से अपना भविष्य आजमाएं, लेकिन पार्टी निर्णय लेने में लगातार विलंब करती जा रही है. दरअसल पार्टी का प्रदेश नेतृत्व हर फैसले के लिए केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भर रहा है. इसीलिए फैसलों में हमेशा देरी हुई है. यही कारण है कि पार्टी लगातार अपना जनाधार खोती जा रही है और आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति.


वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव हों या वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव, यूपी में गांधी परिवार के शीर्ष नेताओं के दौरे सिर्फ चुनाव समय ही देखे गए. प्रियंका गांधी ने वर्ष 2022 में 'बेटी हूं, लड़ सकती हूं' का नारा दिया और चुनाव में पार्टी की पराजय के बाद उत्तर प्रदेश में घूमकर नहीं आईं. यही नहीं प्रदेश में संगठन को लेकर निर्णय करना हो या प्रदेश की राजनीति से जुड़ा कोई भी बड़ा निर्णय, गांधी परिवार या शीर्ष नेतृत्व की हामी के बिना कोई फैसला नहीं हो पाता. वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों में अपनी सीट भी न बचा पाए, तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने अपने पद से इस्तीफा दिया तो पार्टी नेतृत्व को नया अध्यक्ष देने में लंबा अरसा गुजर गया. पार्टी को ब्रजलाल खाबरी के रूप में नया अध्यक्ष देने में छह माह से ज्यादा का समय लग गया. इसके बाद भी खाबरी को अपनी टीम बनाने में काफी समय मिला.


खाबरी की ताजपोशी को 10 माह भी नहीं बीते थे कि शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें हटाकर अजय राय को अध्यक्ष बनाया. अजय राय वाराणसी से आते हैं और भूमिहार नेता के तौर पर उनकी पहचान है. अपनी ताजपोशी के सात माह बाद ही उनके सामने लोकसभा चुनाव की कठिन परीक्षा है. स्वाभाविक है कि सीटों के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य में बूथ स्तर तक नए सिरे से संगठन बनाना आसान नहीं होता है. यही नहीं उन्हें भी हर फैसले के लिए केंद्रीय नेतृत्व का मुंह देखना पड़ता है. पार्टी में रवानी तभी आती है, जब प्रदेश में गांधी परिवार का कोई नेता दौरे पर हो. ऐसे में प्रदेश संगठन के नेतृत्व परिवर्तन का कोई लाभ कांग्रेस को मिल पाएगा, यह कहना कठिन है. हां, इस गठबंधन के बाद भी यदि रायबरेली और अमेठी की अपनी परंपरागत सीटों से यदि गांधी परिवार का कोई नेता चुनाव में नहीं उतरता है तो यह मामले में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि कांग्रेस अच्छी स्थिति में नहीं है. वास्तव में पार्टी को किसी भी निर्णय में अनावश्यक विलंब नहीं करना चाहिए. इससे पार्टी का नुकसान ही होता है.



राजनीतिक विश्लेषक योगेश मिश्रा कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी के पास प्रदेश में कोई ऐसा नेता ही नहीं है जो पूरे यूपी को जानता हो. इनके दो पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भाजपा में जा चुके हैं. अभी वह प्रदेश के किसी एक अंचल पर पकड़ रखने वाले नेता को लेकर अपना कोरम पूरा कर रही है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस को भाजपा के सामने खड़े होने के लिए किसी न किसी दल की जरूरत है. प्रदेश में अखिलेश यादव तैयार हैं, जबकि मायावती राजी नहीं हैं. ऐसी स्थिति में भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस पार्टी सोच ही नहीं पा रही है कि उसकी रणनीति क्या हो, उसके प्रत्याशी कौन हों. उन्हें सपा से गठबंधन में 17 सीटें मिली हुई हैं, लेकिन उनके पास सत्रह गंभीर उम्मीदवार नहीं हैं. अखिलेश यादव से उनका जो गठबंधन है, अगल रायबरेली और अमेठी से गांधी परिवार के लोग नहीं उतरते हैं तो अखिलेश यादव को इस गठजोड़ का कोई लाभ नहीं होगा. ऐसे में अखिलेश यादव गठबंधन क्यों बनाए रखेंगे.



योगेश मिश्रा कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी के जहां-जहां गठबंधन हुए वहां टूट भी गए. चाहें आम आदमी पार्टी हो या तृणमूल कांग्रेस, यह किसी को भी साथ लेकर नहीं चल पाए. कांग्रेस पार्टी आज भी इस हैंगओवर से बाहर नहीं आ पा रही है कि वह नेशनल पार्टी है और उन पार्टियों के सामने भी है, जिन्होंने पूरे के पूरे राज्य को कब्जा कर रखा है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कोई भी नेता तभी सक्रिय दिखेगा, जबकि सोनिया, राहुल या प्रियंका में कोई प्रदेश में होगा. आप सोचिए इस राजनीतिक दल को लोग वोट क्यों दें. जब सोनिया गांधी रायबरेली का प्रतिनिधित्व कर रही थीं तो उन्होंने एक फोर लेन सड़क बनाई. यह सड़क लखनऊ से रायबरेली तक बनी. रायबरेली के बाद उनका कोई मतलब नहीं है, जबकि यदि वह चाहतीं तो लखनऊ से प्रयागराज को जोड़तीं. दोनों शहरों के बीच बड़ी संख्या में लोगों की आवाजाही है. जिस राजनीतिक दल की सोच इतनी छोटी हो, जिस दल की दिमाग में उत्तर प्रदेश हो ही नहीं, ऐसी पार्टी प्रदेश में कैसे बढ़ेगी, यह सोचने वाली बात है. प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने हौसला खो दिया है और पार्टी का ग्राफ निरंतर गिर रहा है.





यह भी पढ़ें : कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष अजय राय बोले- यूपी में कर्मचारियों का हक वापस देंगे, पुरानी पेंशन बहाल करेंगे

यह भी पढ़ें : लोकसभा चुनाव में आसान नहीं होगा सपा कांग्रेस में सीटों का बंटवारा

जानकारी साझा करते राजनीतिक विश्लेषक योगेश मिश्रा.



लखनऊ : लंबी जद्दोजहद के बाद प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन हो गया और कांग्रेस को बंटवारे में सत्रह सीटें भी मिल गईं, लेकिन नामांकन का पहला चरण खत्म होने का बाद भी कांग्रेस अपनी परंपरागत रायबरेली और अमेठी सीटों के लिए प्रत्याशियों का ऐलान नहीं कर पाई है. सोनिया गांधी पहले ही राज्यसभा जा चुकी हैं, जिससे साफ है कि वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगी. ऐसे में कयास लगाए जा रहे थे कि शायद प्रियंका गांधी वाड्रा इस सीट से अपना भविष्य आजमाएं, लेकिन पार्टी निर्णय लेने में लगातार विलंब करती जा रही है. दरअसल पार्टी का प्रदेश नेतृत्व हर फैसले के लिए केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भर रहा है. इसीलिए फैसलों में हमेशा देरी हुई है. यही कारण है कि पार्टी लगातार अपना जनाधार खोती जा रही है और आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति.


वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव हों या वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव, यूपी में गांधी परिवार के शीर्ष नेताओं के दौरे सिर्फ चुनाव समय ही देखे गए. प्रियंका गांधी ने वर्ष 2022 में 'बेटी हूं, लड़ सकती हूं' का नारा दिया और चुनाव में पार्टी की पराजय के बाद उत्तर प्रदेश में घूमकर नहीं आईं. यही नहीं प्रदेश में संगठन को लेकर निर्णय करना हो या प्रदेश की राजनीति से जुड़ा कोई भी बड़ा निर्णय, गांधी परिवार या शीर्ष नेतृत्व की हामी के बिना कोई फैसला नहीं हो पाता. वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों में अपनी सीट भी न बचा पाए, तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने अपने पद से इस्तीफा दिया तो पार्टी नेतृत्व को नया अध्यक्ष देने में लंबा अरसा गुजर गया. पार्टी को ब्रजलाल खाबरी के रूप में नया अध्यक्ष देने में छह माह से ज्यादा का समय लग गया. इसके बाद भी खाबरी को अपनी टीम बनाने में काफी समय मिला.


खाबरी की ताजपोशी को 10 माह भी नहीं बीते थे कि शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें हटाकर अजय राय को अध्यक्ष बनाया. अजय राय वाराणसी से आते हैं और भूमिहार नेता के तौर पर उनकी पहचान है. अपनी ताजपोशी के सात माह बाद ही उनके सामने लोकसभा चुनाव की कठिन परीक्षा है. स्वाभाविक है कि सीटों के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य में बूथ स्तर तक नए सिरे से संगठन बनाना आसान नहीं होता है. यही नहीं उन्हें भी हर फैसले के लिए केंद्रीय नेतृत्व का मुंह देखना पड़ता है. पार्टी में रवानी तभी आती है, जब प्रदेश में गांधी परिवार का कोई नेता दौरे पर हो. ऐसे में प्रदेश संगठन के नेतृत्व परिवर्तन का कोई लाभ कांग्रेस को मिल पाएगा, यह कहना कठिन है. हां, इस गठबंधन के बाद भी यदि रायबरेली और अमेठी की अपनी परंपरागत सीटों से यदि गांधी परिवार का कोई नेता चुनाव में नहीं उतरता है तो यह मामले में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि कांग्रेस अच्छी स्थिति में नहीं है. वास्तव में पार्टी को किसी भी निर्णय में अनावश्यक विलंब नहीं करना चाहिए. इससे पार्टी का नुकसान ही होता है.



राजनीतिक विश्लेषक योगेश मिश्रा कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी के पास प्रदेश में कोई ऐसा नेता ही नहीं है जो पूरे यूपी को जानता हो. इनके दो पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भाजपा में जा चुके हैं. अभी वह प्रदेश के किसी एक अंचल पर पकड़ रखने वाले नेता को लेकर अपना कोरम पूरा कर रही है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस को भाजपा के सामने खड़े होने के लिए किसी न किसी दल की जरूरत है. प्रदेश में अखिलेश यादव तैयार हैं, जबकि मायावती राजी नहीं हैं. ऐसी स्थिति में भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस पार्टी सोच ही नहीं पा रही है कि उसकी रणनीति क्या हो, उसके प्रत्याशी कौन हों. उन्हें सपा से गठबंधन में 17 सीटें मिली हुई हैं, लेकिन उनके पास सत्रह गंभीर उम्मीदवार नहीं हैं. अखिलेश यादव से उनका जो गठबंधन है, अगल रायबरेली और अमेठी से गांधी परिवार के लोग नहीं उतरते हैं तो अखिलेश यादव को इस गठजोड़ का कोई लाभ नहीं होगा. ऐसे में अखिलेश यादव गठबंधन क्यों बनाए रखेंगे.



योगेश मिश्रा कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी के जहां-जहां गठबंधन हुए वहां टूट भी गए. चाहें आम आदमी पार्टी हो या तृणमूल कांग्रेस, यह किसी को भी साथ लेकर नहीं चल पाए. कांग्रेस पार्टी आज भी इस हैंगओवर से बाहर नहीं आ पा रही है कि वह नेशनल पार्टी है और उन पार्टियों के सामने भी है, जिन्होंने पूरे के पूरे राज्य को कब्जा कर रखा है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कोई भी नेता तभी सक्रिय दिखेगा, जबकि सोनिया, राहुल या प्रियंका में कोई प्रदेश में होगा. आप सोचिए इस राजनीतिक दल को लोग वोट क्यों दें. जब सोनिया गांधी रायबरेली का प्रतिनिधित्व कर रही थीं तो उन्होंने एक फोर लेन सड़क बनाई. यह सड़क लखनऊ से रायबरेली तक बनी. रायबरेली के बाद उनका कोई मतलब नहीं है, जबकि यदि वह चाहतीं तो लखनऊ से प्रयागराज को जोड़तीं. दोनों शहरों के बीच बड़ी संख्या में लोगों की आवाजाही है. जिस राजनीतिक दल की सोच इतनी छोटी हो, जिस दल की दिमाग में उत्तर प्रदेश हो ही नहीं, ऐसी पार्टी प्रदेश में कैसे बढ़ेगी, यह सोचने वाली बात है. प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने हौसला खो दिया है और पार्टी का ग्राफ निरंतर गिर रहा है.





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