लखनऊ: यूपी में अब बड़े पैमाने पर केले की खेती होती है. यूपी के प्रमुख केला उत्पादक बेल्ट में उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है. इसी के साथ ही इन दिनों ये बेल्ट एक घातक बीमारी से जूझ रही है. इस बीमारी का इलाज भी यूपी में खोज लिया गया है. बताया जा रहा है कि कुछ जिलों में तो किसानों ने इस बीमारी की वजह से केले की खेती तक छोड़ दी थी. दावा है कि इस बेल्ट की अब इस बड़ी समस्या से नहीं जूझना पड़ेगा. इस बीमारी का इलाज खोज लिया गया है.
यूपी में कहां पैदा होता केलाः केला उत्पादन के क्षेत्र में कुशीनगर, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, महाराजगंज, अयोध्या, बहराइच, अंबेडकरनगर, बाराबंकी, प्रतापगढ़ और कौशाम्बी आदि जिले बढ़िया काम कर रहे हैं. सीतापुर और लखीमपुर जिलों में भी केले का रकबा बढ़ रहा है.
कितना रकबा है: यूपी में केले के उत्पाद का रकबा 70000 हेक्टेयर है. साल में केले का उत्पादन 3.172 लाख मीट्रिक टन से अधिक होता है. यह आंकड़ा बेहद बड़ा है.
कौन सा रोग लगाः अयोध्या का सोहावल ब्लॉक जो केले की खेती के लिए जाना जाता है, वहां 2021 में केले का व्यापक प्रकोप हुआ था. वहीं प्रदेश के प्रमुख केला उत्पादक क्षेत्रों महाराजगंज, संत कबीर नगर, बाराबंकी, अंबेडकर नगर और कुशीनगर जिलों में केले की फसल पर फ्यूजेरियम विल्ट रोग (टी आर 4) का गंभीर प्रकोप सामने आया था. हाल के सर्वेक्षणों में भी लखीमपुर और बहराइच जिलों में व्यापक रूप से रोग के संक्रमण की पुष्टि हुई है.
किसने इलाज खोजाः भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से संबद्ध केंद्रीय उपोषण बागवानी संस्थान (सीआईएसएच) लखनऊ और करनाल स्थित केंद्रीय लवणता शोध संस्थान से संबद्ध क्षेत्रीय शोध केंद्र लखनऊ ने मिलकर इसका इलाज खोजा. पेटेंट होने के साथ अब कृषि विज्ञान केंद्र अयोध्या के माध्यम से इसके प्रयोग के लिए किसानों को प्रोत्साहित भी किया जा रहा है. अब इसके नतीजे भी अच्छे रहे हैं. सोहावल के जिन किसान ने केले की खेती बंद कर दी थी, वह अब फिर से केला लगाने लगे हैं. गौरतलब है कि इस रोग का संक्रमण केले के तने के भीतरी भाग में होता है. संक्रमित केले के पौधे के तने का भीतरी हिस्सा मटमैला न होकर कत्थई या काले रंग का हो जाता है.
कृषि वैज्ञानिकों ने क्या सलाह दीः उल्लेखनीय है कि डॉ. टी. दामोदरन के नेतृत्व में रोग की रोकथाम के लिए बायो एजेंट, आईसीएआर फ्यूसिकोंट (ट्रायकोडर्मा आधारित सूत्रीकरण) और टिशू कल्चर पौधों के जैव-टीकाकरण का उपयोग कर एक प्रबंधन प्रोटोकॉल विकसित किया गया. किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में उत्पादन और आपूर्ति के लिए आईसीएआर द्वारा इसका वाणिज्यीकरण भी किया गया है. कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि केला उत्पादकों को फसल चक्र में बदलाव करते रहना चाहिए. पहले साल की फसल में इस रोग के संक्रमण की संभावना कम होती है, पर उसी फसल की पुत्ती से दूसरी फसल लेने पर संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है. बेहतर हो कि केले के बाद धान, गेंहू, प्याज, लहसुन आदि की फसल ली जाए. फिर केले की फसल की जाए. इससे मिट्टी का संतुलन भी बना रहता है और संक्रमण का खतरा भी कम हो जाता है.
ऐसे कर सकते हैं रोग से बचावः संस्थान के निदेशक डॉ. टी. दामोदरन के अनुसार संस्थान द्वारा तैयार बायो एजेंट (फ्यूसिकोंट फॉर्मूलेशन) पानी में पूरी तरह घुलनशील होता है. रोग से बचाव के लिए एक किलो बायो एजेंट को 100 लीटर पानी में मिला लें और एक-एक लीटर पौधों की जड़ों में रोपाई के 3, 5, 9, और 12 महीने के बाद डालें. अगर रोग के लक्षण फसल पर दिखाई दें, तो 100 लीटर पानी में तीन किलो फ्यूसिकोंट फॉर्मूलेशन 500 ग्राम गुड़ के साथ घोले लें और दो दिन बाद एक- दो लीटर पौधों की जड़ों में रोपाई के 3, 5, 9, और 12 महीने के बाद प्रयोग करें.
ये सलाह दीः संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक पीके शुक्ल के मुताबिक जब कोई फसल गैर परंपरागत क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर प्रचलित होती है, तो इस तरह के रोगों के संक्रमण का खतरा भी होता है. केले के साथ भी यही हुआ. हाल ही में डॉ. पीके शुक्ल ने अमेठी, बाराबंकी, अयोध्या, गोरखपुर, महाराजगंज, संत कबीर नगर जिलों में स्थित 144 केले के खेतों के निरीक्षण में पाया गया कि केले के जड़ क्षेत्र में पादप परजीवी सूत्रकृमि की कई प्रजातियां मौजूद थीं. यह सूत्रकृमि फसल की उपज क्षमता में प्रत्यक्ष कमी के अलावा फसल को कवक जनित रोगों के प्रति संवेदनशील बनाती हैं.
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