जयपुर : जयपुर से 160 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद बीसलपुर बांध सालों पहले से चर्चाओं में रहा है. रियासत काल का एक दौर था, जब बीसलपुर अंग्रेज हाकिमों की पसंदीदा आरामगाह थी. यहां राजस्थान की तीन बरसाती नदियों से जमा पानी के किनारे, सर्दियों की शाम और नए साल का जश्न मनाने के साथ-साथ अंग्रेज शिकार के लिए आते थे. राजपूताना के ब्रिटिश रेजीडेंट जयपुर राजपरिवार के मेहमान बनकर बीसलपुर में डेरा डालते थे. राजपूताना के एडिशनल गवर्नर जनरल मोरलैंड के बीसलपुर पहुंचने पर उनकी मेहमाननवाजी में राजा और सांमतों ने पलक पांवड़े बिछा दिए थे.
साल 1899 में भीषण छप्पनिया अकाल को झेलने के बाद सवाई माधो सिंह द्वितीय ने रामगढ़ बांध के साथ बीसलपुर और ईसरदा के बांध बनाने की योजना बनाई थी. रियासत के चीफ इंजीनियर कर्नल एस. जैकब ने बीसलपुर बांध के निर्माण का खाका भी तैयार कर लिया था. थोड़े दिन बाद रामगढ़ के बांध के निर्माण की योजना का क्रियान्वयन होने लगा, तब बीसलपुर में बांध के निर्माण की योजना को निरस्त कर दिया था.
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बीसलपुर में मराठाओं के साथ लड़ी थी जयपुर की सेना : बीसलपुर के पास राजमहल में मराठों और मेवाड़ की फौज से जयपुर की सेना का भीषण युद्ध हुआ था. इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत के मुताबिक महाराजा जय सिंह द्वितीय के निधन के बाद जयपुर की गद्दी पर मेवाड़ राजघराने में अपने भांजे माधो सिंह प्रथम को काबिज करने के लिए मराठों और हाड़ौती की संयुक्त सेना के साथ चढ़ाई की थी. इस युद्ध में विजय मिलने की खुशी में ईश्वरी सिंह ने त्रिपोलिया बाजार में विजय स्तंभ ईसरलाट बनवाई थी, जिसे आज सरगासूली के नाम से जानते हैं. जयपुर में ऐसा पहली बार हुआ था, जब स्थानीय सामंतों ने जेष्ठ पुत्र को परंपरा के अनुसार राजा बनाने के लिए परिजनों और रिश्तेदारों से युद्ध किया था.
ये थी युद्ध की वजह : इतिहासकार जितेंद्र सिंह के मुताबिक जयसिंह ने मेवाड़ की राजकुमारी चंद्र कंवर सिसोदिया से विवाह किया था. तब मेवाड़ से समझौता किया गया कि सिसोदिया रानी का पुत्र जयपुर का राजा बनेगा. इस वजह से खुद को जयपुर की गद्दी का अधिकारी मानने वाले माधो सिंह ने सौतेले भाई ईश्वरी सिंह के खिलाफ युद्ध का मोर्चा खोल दिया. उन्होंने मेवाड़ी सेना के साथ मराठों और हाड़ौती के बूंदी की संयुक्त सेना के साथ संवत 1804 के फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में जयपुर पर हमला कर दिया था.
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मराठा सेना का नेतृत्व खांडेराव होलकर और हाड़ौती की सेना की कमान बूंदी के राव उम्मेद सिंह के पास थी. इस लड़ाई में जयपुर की सेना का नेतृत्व मुख्य दीवान हर गोबिंद नाटाणी कर रहे थे. युद्ध इतिहास में रावल नरेंद्र सिंह, जोबनेर ने लिखा है कि जयपुर की सेना ने दुश्मन की सेना का भीलवाड़ा तक पीछा किया. जयपुर की विजय के बाद ईश्वरी सिंह ने गाजेबाजे के साथ जयपुर में नगर प्रवेश किया.
रावण लेकर आया था बीसलपुर से कांवड़ : बीसलपुर बांध के किनारे स्थित गोकर्णेश्वर महादेव मंदिर के बारे शास्त्रों में मान्यता है कि यहां लंकापति रावण ने घोर तपस्या की थी. रावण ने इसी जगह पर अपने दसों सिर भगवान शिव के चरणों में चढ़ा कर महादेव को प्रसन्न कर लिया था. जितेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि भारत के द्वादस ज्योतिर्लिंगों और 108 उप ज्योतिर्लिंगों में बीसलपुर के गोकर्णेश्वर शिव की विशेष मान्यता रही है. यह भी मान्यता है कि सावण माह में लंकापति रावण नदियों का जल कांवड़ में उठाकर यहां जल अभिषेक करने आता था. रावण की कुलदेवी निकुंबला माता का मंदिर भी यहां पर है.
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गो भक्त रहे महात्मा गोकर्ण ने अपने भाई राक्षस घुंधकारी के मोक्ष की कामना से बीसलपुर में भागवत कथा करवाई थी. इस वजह से इस मंदिर को मोक्षदायक मानकर लोग अस्थि विसर्जन करने के साथ पाप मुक्ति के लिए कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान भी करते हैं. अजमेर राजवंश के चौहान नरेश बीसलदेव उर्फ विग्रह राज चतुर्थ ने संवत 1244 में यहां शिव मंदिर की नींव रखी थी. गुफा में जयपुर के तत्कालीन महाराजा सवाई जयसिंह ने कांच की कलात्मक जड़ाई का मंदिर बनाया था.
नीलम से बने शिवलिंग का किस्सा : बीसलपुर का नीलम शिवलिंग गायब होने का मुद्दा विधानसभा में छाया था. राजधानी जयपुर सहित कई जिलों की प्यास बुझाने वाले बीसलपुर के पौराणिक शिव मंदिर से लगा नीलम का दुर्लभ शिवलिंग गायब होने और दूसरा शिवलिंग स्थापित करने का मामला बहुत चर्चित रहा था. साल 1987 के दौर में यह मुद्दा राजस्थान विधान सभा में उठा था. इस पर सदन में बहस भी हुई थी. उन दिनों यह मुद्दा अखबारों और जनता में खूब चर्चित रहा था.
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जयपुर के राज वैद्य ने बीसलपुर में ली थी जल समाधि : जयपुर रियासत की मालपुरा निजामत के तहत बीसलपुर नदी के जल में जयपुर के राज वैद्य युगल किशोर शास्त्री ने जल समाधि ली थी. साल 1949 के ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को बाल कृष्ण के पद का गायन करते हुए उन्होंने समाधि ली थी. इतिहासकार शेखावत ने बताया कि समाधि के बाद जल में डूबे युगल शास्त्री को गोताखोरों और ग्रामीणों ने बहुत ढूंढा, लेकिन वे नहीं मिले. तीन दिन बाद उनका शरीर सुगन्धित फूलों के साथ ऊपर तैरने लगा.
गौरतलब है कि जयपुर की तत्कालीन रियासत ने बीसलपुर से जुड़े दूणी राजमहल ठिकाने में युगल शास्त्री को राजवैद्य नियुक्त किया था. जयलाल मुंशी का रास्ता निवासी युगल शास्त्री ने वर्ष 1940 में भगवान कृष्ण के बाल स्वरूप भक्ति का प्रचार करने के लिए प्रेम भाया मंडल की स्थापना की थी और ढूंढाड़ी भाषा में कृष्ण भजनों की अलख जगाई थी. बीसलपुर, अजमेर और टोंक की सीमा का गांव था.