कोरबा: भारत में सिनेमा और थियेटर डिजिटल हो गया है. रुपहले पर्दे का सफर लगातार तेजी से विकसित होता जा रहा है. सिल्वर स्क्रीन में मल्टीप्लेक्स और ओटीटी की एंट्री हो चुकी है. भारत के डेढ़ सौ साल के सिनेमाई इतिहास के सफर और इस दौर में आज भी 70 एमएम का पर्दा याद आता है. इसने सिनेप्रेमियों के दिल में जो जगह बनाई थी उसकी जगह कोई भी दौर नहीं ले सकेगा. सिंगल स्क्रीन पर फिल्मों को देखने का जो मजा होता था वह आज के मोबाइल और मल्टीप्लेक्स युग में नहीं है. प्रोजेक्टर, फिल्म की रील और सिंगल स्क्रीन थियेटर अब सब सिमट कर रह गई है. एक ड्राइव में ही पूरी फिल्म आ जाती है और सैटेलाइट कनेक्ट डिजिटल प्रोजेक्टर के माध्यम से बेहद सुविधाजनक तरीके से इसे पर्दे पर दिखाया जाता है. लेकिन आज भी 70 एमएम की यादों और उस पर फिल्म देखने के अनुभव का कोई तोड़ नहीं है.
कोरबा में भी बदला दौर, सिंगल स्क्रीन थिएटर की जगह मल्टीप्लेक्स ने ली: दुनिया भर में 27 मार्च को वर्ल्ड थिएटर डे मनाया जाता है. इस खास अवसर पर हम आपको कोरबा जिले के दशकों पुराने चित्र टॉकीज के बारे में बताएंगे. यहां मल्टीप्लेक्स बन चुका है. जहां प्रवेश करते ही दरवाजे पर एक लोहे की मशीन किसी धरोहर की तरह रखी गयी है. खास तौर पर युवा सिनेप्रेमी इसे देखकर रुक जाते हैं और पूछने लगते हैं कि आखिर यह है क्या चीज? तो आज हम आपको इस पुराने प्रोजेक्टर की दुनिया में ले चलेंगे. 70 एमएम के उस सुनहरे दौर से रूबरू कराएंगे. जब पेटी में भरकर रील सिनेमा हॉल तक लाई जाती थी. तब के सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल की उस दीवानगी और क्रेज़ के समक्ष आज के मल्टीप्लेक्स भी फीके नज़र आते हैं.
ऐसे दिखाई जाती थी सिनेमा: डिजिटल दौर में सिनेमा दिखाने की पूरी तकनीक भी डिजिटल हो गई है. अब छोटे से डिजिटल प्रोजेक्टर से पूरे सिनेमा का फिल्मांकन हो जाता है, वह भी हफ्तों में, लेकिन पहले ऐसा नहीं था. चित्रा टॉकीज में पुरानी और नई दोनों ही मशीन चला चुके ऑपरेटर रवि सिंह ठाकुर बताते हैं कि इस डिजिटल तकनीक के आने के पहले पुरानी प्रोजेक्टर मशीन से सिनेमा हाल में फिल्म दिखाई जाती थी.फिल्म की रील दो अलग अलग चकरी में घूमती थी. फिल्म की इन रील की साइड स्ट्रिप पर साउंड ट्रेक रहता है. कार्बन लाइट से उन में घूमती निगेटिव रील जिसे प्रिंट भी कहा जाता है. उसपर रोशनी के बाद ये एक लेंस के जरिये सिनेमा हॉल में दिखाई जाती थी.
"एक पेटी में दो रील होते थे. जिसे अमरावती से टॉकीज तक पहुंचाना पड़ता था. 10 से लेकर 20 रील तक की फिल्में भी हमने दिखाई है. रील का क्रम भी होता था, एक के बाद एक सही क्रम के अनुसार रील चलना पड़ता था. यदि रील आगे पीछे हुई तो फिल्म के सीन के आगे पीछे होने का जोखिम रहता था.गुरुवार, शुक्रवार का दिन हमारे लिए बहुत प्रेशर वाला होता था. साउंड और प्रिंट पहले हम चेक कर लेते थे. इसके बाद ही इसे थिएटर में प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाते थे. जब तक फिल्म चल रही होती थी तब तक एक व्यक्ति को वहां तैनात रहना पड़ता था .जैसे ही फिल्म खत्म होने वाले होती थी, हम दूसरी रील तैयार रखते थे. लाइट चली गई या कुछ गड़बड़ी हुई तो लोग शोर मचाने लगते थे. अब वैसा बिलकुल भी नहीं है. चीजें काफी आसान हो चुकी है.": रवि सिंह ठाकुर, सिंगल स्क्रीन सिनेमा के ऑपरेटर
फिल्म हम आपके हैं कौन की यादें, जब 23 हफ्ते तक चली थी फिल्म: फिल्मों के उस दौर की बात करते हुए रवि यह भी बताते हैं कि "उस दौर के सामने आज का दौर बिल्कुल भी फीका है. तब लोग जमीन पर बैठकर भी फिल्में देखने को तैयार रहते थे. दर्शकों में इतनी दीवानगी रहती थी. टिकट ब्लैक में बेचे जाते थे. आज के मल्टीप्लेक्स में एक साथ 10 स्क्रीन में अलग-अलग फिल्में तो दिखाई जा सकती हैं, लेकिन वैसे दर्शक नहीं रहे. तब सिंगल सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमा हॉल हुआ करते थे. ऐसे कई पुराने टॉकीज अब बंद हो चुके हैं. हम अब भी इसी व्यवसाय से जुड़े हैं, लेकिन उस सिंगल स्क्रीन वाले दौर के सामने आज के मल्टीप्लेक्स वाला दौर भी फीका है. हम आपके हैं कौन फिल्म 23 सप्ताह तक लगातार चली थी. दिन के चारों शो फुल रहा करते थे जिसमें बालकनी और नीचे सभी जगह हाउसफुल रहता था. वह दिन मुझे आज भी याद है."
ड्राइव और सैटेलाइट से आसान हुआ फिल्म दिखाना: नए दौर के युवा लोकेश डिजिटल तकनीक से फिल्म दिखाने का काम करते हैं. लोकेश कहते हैं कि टॉकीज के पुराने कर्मचारी बताते हैं कि किस तरह से वह चकरी में रील घूमाते थे और 24 घंटे वहां खड़े रहकर रील बदलते हुए फिल्म दिखाते थे.हमें उन सब मुसीबत से छुटकारा मिल गया है.
"अब फिल्म रिलीज होने के 1 दिन पहले ड्राइव हमारे पास आ जाती है. जो की कोरियर या ट्रेन से भी पहुंचा दी जाती है. उस ड्राइव से फिल्म को डाउनलोड कर लेते हैं. हमारा डिजिटल प्रोजेक्टर सेटेलाइट से कनेक्ट रहता है. जिसमें डिजिटल कीवर्ड के तौर पर लाइसेंस डालना पड़ता है. इस लाइसेंस को डालकर हम फिल्म को एक हफ्ते के लिए अनलॉक करते हैं. एक बार या प्रक्रिया पूरी होने के बाद पूरे हफ्ते तक फिल्म चलती रहती है. यदि कोई फिल्म एक हफ्ते से ज्यादा चल गई तो दोबारा परमिशन लेना पड़ता है. ड्राइव को डाउनलोड करने और लाइसेंस लेने की इस प्रक्रिया में मुश्किल से दो से ढाई घंटे का समय लगता है. जिसके बाद कंट्रोल रूम में डिजिटल प्रोजेक्टर को ऑन करके छोड़ देते हैं. पर्दे पर फोकस करने का बाद मूवी चलती रहती है. वहां खड़े रहने की भी कोई आवश्यकता नहीं है. फिल्मों को दिखाना अब काफी आसान हो गया है.": लोकेश वैष्णव, डिजिटल प्रोजेक्टर ऑपरेटर
वो दौर दमदार था: चित्रा मल्टीप्लेक्स के मालिक गोपाल मोदी का कहना है कि अब तो एक साथ एक ही समय में सेटेलाइट से हजारों स्क्रीन पर फिल्में दिखाई जाती है. प्रोजेक्टर के दौर में अमरावती से फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर के एजेंट रील की पेटी ले कर आते थे. ऐसा भी एक दौर था जब हिट फिल्म को दो थिएटर में दिखाने के लिए शो के समय में अंतर रखा जाता था. बाइक से दो लोग रील को ले कर एक से दूसरे थिएटर पहुंचाते थे. हमारे मल्टीप्लेक्स में रखा ये प्रोजेक्टर सिनेमा के उसी सुनहरे दौर को याद दिलाता है. आज तो सौ करोड़ क्लब और एक वीकेंड फुल हाउस से फिल्म को हिट कहा जाता है. उस दौर में एक साल में किसी थिएटर में बहुत सीमित संख्या में फिल्में लगती थीं.
कुल मिलाकर सिल्वर स्क्रीन के सफर ने जितने भी पड़ाव पार किए हो लेकिन 70 एमएम का वो दौर आज भी दर्शकों को दीवानगी का एहसास करा देता है. फिल्मों को देखने का वह मजा लोगों की पुरानी यादें ताजा कर देता है.