नई दिल्ली: कई बार ऐसा होता है कि किसी खास संगीत की धुन को सुनकर, हमारी पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं. शायद इसलिए गीत-संगीत न सिर्फ मनोरंजन, बल्कि हमारे जीवन का भी अभिन्न अंग है. वक्त के साथ इसमें काफी बदलाव देखने को मिला है, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि इसकी महत्ता कम हुई हो. समाज में इससे जुड़े फनकारों का अलग ही रुतबा होता है, लेकिन बहुत ही कम लोग संगीत से जुड़ी विरासत को संजोकर रख पाते हैं. ऐसे ही लोगों में से एक हैं दिल्ली के रहने वाले जसपाल सिंह, जिन्होंने आज भी अपने वाद्य यंत्रों से जुड़ी पूर्वजों की विरासत को जीवंत रखा है. वर्ल्ड म्यूजिक डे के मौके पर आइए जानते हैं इस शख्सियत के बारे में..
होती थी फनकारों की पसंदीदा जगह: दरअसल पुरानी दिल्ली के दरियागंज मार्केट में लाहौर म्यूजिक हाउस के नाम से वाद्य यंत्रों की दुकान चलाने वाले जसपाल सिंह, वाद्य यंत्रों का निर्माण का काम करने वाली तीसरी पीढ़ी हैं. उनसे पहले यह काम उनके दादा और पिता ने भी किया है, जिनके साथ रहकर उन्होंने न सिर्फ वाद्य यंत्रों को बनाना, बल्कि बजाना भी सीखा. उनका परिवार सन् 1915 से इस कारोबार में हैं. भारत पाकिस्तान बंटवारे से पहले उनके पिता की दुकान लाहौर में हुआ करती थी, लेकिन बंटवारे के बाद वे दिल्ली आ गए. उनकी इस दुकान पर मेहंदी हसन, बड़े गुलाम अली खां, बेगम अख्तर, सितार वादक पं. रविशंकर और उस्ताद अमजद अली खान जैसे दिग्गज कलाकारों का आना जाना हुआ करता था.
सवाल: यह दुकान दिल्ली में कब खोली गई और पाकिस्तान में कहां हुआ करती थी?
जवाब: जसपाल सिंह ने बताया कि लाहौर म्यूजिक हाउस, बंटवारे के बाद दिल्ली में सन् 1948 में खुली. पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने अपने भाई और पिता के साथ दुकान को संभाला. पहले दुकान यह दुकान लाहौर के अनारकली इलाके में हुआ करती थी. आज हम हारमोनियम, ढोलक, तानपुरा, सितार, तबला मजीरा समेत अन्य वाद्य यंत्र बनाते हैं और जिनकी बिक्री विदेश तक होती है.
सवाल: लाहौर से क्या यादें जुड़ी हैं आपकी और किन वाद्य यंत्रों में आपकी स्पेशिएलिटी है?
जवाब: मेरे पिता का नाम सरदार हरचरण सिंहल है. लाहौर में हमारी दुकान 1915 से चल रही थी. मैं इस कारोबार को संभालने वाली तीसरी पीढ़ी हूं. अब दुकान में हम वेस्टर्न म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स भी रखने लगे हैं, लेकिन हमारी स्पेशिएलिटी हार्मोनियम तबला और ढोलक में है.
सवाल: वाद्य यंत्रों बनाने और बेचने के साथ आप म्यूजिशियन भी हैं. कहां से म्यूजिक सीखा?
जवाब: हमारे पिता लाहौर से थे और उन्होंने बड़े गुलाम अली के साथ बड़े गायकों से वाद्य यंत्रों को बजाना सीखा था. मैंने अपने पिता से तबला, हारमोनियम, सितार आदि बजाना सीखा. इससे ये फायदा होता है कि अपने यहां बनाए गए तबले, हार्मोनियम आदि को अच्छी तरह से परख पाता हूं.
सवाल: नामी संगीतकारों का आपकी दुकान पर आना जाना रहा है. कौन-कौन से कलाकार आपकी दुकान पर आ चुके हैं?
जवाब: हमारे यहां पाकिस्तान से गुलाम अली आया करते थे. साथ ही बेगम अख्तर, सितार वादक पं. रविशंकर, अमजद अली खां समेत अन्य बड़े म्यूजिशियन भी हमारे यहां आया करते थे. इसके अलावा विदेश से भी संगीतकारों का यहां आना जाना रहा है. मशहूर रॉक बैंड बीटल्स ने सन् 1966 में हमारे पास से वाद्ययंत्र खरीदने के बाद पं. रविशंकर से इसकी तालीम ली थी.
सवाल: संगीत में वाद्ययंत्र का कितना महत्व होता है?
जवाब: वाद्ययंत्र संगीत का अभिन्न अंग है. इसी की मदद से लोग संगीत सीखते हैं. पहले जो हार्मोनियम, सितार, सरंगी आती थी समय के साथ इनका कुछ खास विकास की नहीं हुआ है. हालांकि हमने इन्हें बनाने की क्वालिटी में सुधार जरूर किया है. भले ही हार्मोनियम की नकल कर कंपनियों ने वाद्य यंत्र बनाए, लेकिन जो बात हार्मोनियम में है, वह किसी में नहीं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि संगीत असल में हार्मोनियम पर ही सीखा जा सकता है.
सवाल: मानव जीवन में संगीत को कैसे देखते हैं?
जवाब: संगीत को कुछ लोग शौक में सीखते हैं. वहीं कुछ लोग इसकी पढ़ाई करते हैं. जो इसे गंभीरता से लेता है वह कलाकार बन जाता है. हर कोई किसी न किसी तरह से संगीत से जुड़ा हुआ है.
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