श्योपुर: श्योपुर जिले में एक ऐसा गांव है, जहां पर सांप्रदायिक सद्भाव एक नजीर है. श्योपुर से खतौली मार्ग पर प्रेमसर के समीप ग्राम निमोद स्थित दरगाह में न केवल पीर की मजार है बल्कि भगवान शिव का मंदिर भी है. खास बात ये है कि दरगाह और मंदिर की सेवा व पूजा मांगीलाल मीणा करते हैं. वह विधिविधान से भगवान शिव की पूजा करते हैं और मजार पर चादर भी चढ़ाते हैं. गुरुवार को प्रेत बाधा से पीड़ित लोग यहां पहुंचते हैं, जहां फकीर पीर के सामने पीड़ित का इलाज होता है.
यहां लगे अभिलेखों से मिलती है पूरी जानकारी
इस दरगाह के बारे में बताया जाता है "निमोदा में अजमेर के पीर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने तपस्या की थी. यहां बने मजार को उन्हीं का प्रतिरूप माना जाता है. मजार पर सन् 1648 ई. का एक शिलालेख लगा है, जिसमें शाहजहां के शासनकाल में राजा विठ्ठल दास का नाम अंकित है, जो श्योपुर के शासक मनोहर दास के बड़े बेटे थे. मजार की दूसरी ओर शिव मंदिर है, जिस पर एक अभिलेख लिखा है जो सन् 1658. ई. का है यानी मंदिर और मजार लगभग एक ही समय के हैं. इस मजार का अजमेर के ख्वाजा के संबंध होने के कारण यहां भी उसी समय उर्स भरता है, जब अजमेर में भरता है. इसके आयोजन के लिए एक समिति बनाई गई है. इसके लिए चंदा होता है. जिससे आने वाले यात्रियों को भोजन कराया जाता है. यहां कव्वाली के आयोजन किए जाते हैं.
मीणा परिवार के दो भाई करते हैं पूजा और सेवा
मजार की साफ सफाई मांगीलाल मीणा और उनके भाई द्वारा की जाती है जो एक-एक वर्ष क्रम से सेवा करते हैं. दरगाह की व्यवस्था के लिए 45 बीघा भूमि है. इसकी खेती मांगीलाल और उसके भाई द्वारा एक-एक वर्ष की जाती है. फातिहा पढ़ने के बाद चार फकीर दरगाह के पास ही निवास करते हैं. व्यवस्थापन समिति प्रति वर्ष दो फकीरों को फातिहा पढ़ने की जिम्मेदारी दी जाती है. लोग चिराग के लिए जो तेल लेकर आते हैं उसके लिए बर्तन रखे हैं, यह तेल पिरान्हा या मीणा परिवार को मिलता है.
प्रेत-बाधा से पीड़ित मरीजों को मिलता है आराम
खास बात यह है कि राजस्थान के खतौली दरबार भी निमोदा पीर में आता है. ग्रामीणों ने बताया "एक बार खातौली दरबार ने कहा था कि हिंदू धर्म के लोग मजार की कैसे सेवा कर सकते हैं तो उन्हें हटाने के लिए काफी प्रयास किया गया. फिर राजा ने उनकी परीक्षा लेने के लिए मंदिर पर दो बड़े-बड़े नगाड़े रखे, जिसको एक हिंदू धर्म के लिए दूसरा मुस्लिम धर्म के लिए बनाया गया." गुरुवार को यह मेला लगता है. प्रेत बाधा से पीड़ित व्यक्ति को मजार के सामने लाया जाता है. लोहवान जलाया जाता है. फकीर नगाड़ा बजाता है. नगाड़े की आवाज के साथ थी वह व्यक्ति घूमने लगता है. चीखने लगता है. थोड़ी देर बाद वह शांत हो जाता है, उसे ठीक होने तक वहां आना होता है.
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यहां कुछ मान्यताओं का सख्ती से पालन करना होता है
यहां लगे शिलालेख के अनुसार खतौली के राजा भोपाल सिंह द्वारा दरगाह में एक तिवारा तथा उनकी पत्नी राणावत द्वारा गांव में श्री जी का मंदिर बनाए जाने का उल्लेख है. यहां बहुत सारी मान्यताएं हैं, जिनका लोगों को पालन करना पड़ता है. यहां दरगाह और मंदिर के अलावा कोई भी पक्का मकान नहीं बनता. जिन्होंने कोशिश की उनमें दरारें आ गईं. दरगाह के सामने से कोई घोड़े पर बैठकर नहीं निकलता. कोई महिला सिर पर मटका लेकर नहीं निकलती. दरगाह में जमीन पर बैठना पड़ता है.
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हिंदू-मुस्लिम के बीच सद्भाव की मिसाल है ये गांव
बताया जाता है कि आज भी दरगाह के ऊपर की गुम्मद पर सोने के कलश रखे हैं. ग्रामीणों का कहना है "एक बार डकैतों ने यहां डकैती का प्रयास किया तो वे अंधे हो गए, तब से ही यहां कोई गंदी नियत से नहीं जाता." मजार व मंदिर की एक सेवा करने वाले मांगीलाल मीणा बताते हैं "यहां 700 साल से ऐसा ही चला आ रहा है." वहीं, स्थानीय शम्भू का कहना है "यहां हिंदू और मुसलमान एक साथ पूजा व सजदा करते हैं." जमील मोहम्मद बताते हैं "यहां इंसान में कोई भेद नहीं है. गांव के लोग भी बहुत सद्भाव से मिलते हैं."