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झारखंड के आदिवासी क्यों माने जाते हैं सत्ता की कुंजी, झारखंड की एसटी सीटों पर पक्ष-विपक्ष की नजर - Jharkhand Assembly Election

ST seats in Jharkhand assembly. झारखंड विधानसभा चुनाव की तैयारी में सभी पार्टियां जोर-शोर से लगी हुई हैं. इस बार महगठबंधन और एनडीए दोनों की नजर एसटी रिजर्व सीटों पर है और एसटी सीटें जीतने के लिए दोनों ओर से रणनीति बनाई जा रही है. जानिए सत्ता के लिए क्यों अहम मानी जा रही हैं एसटी सीटें.

Jharkhand Assembly Election
झारखंड के आदिवासी. (फोटो-ईटीवी भारत)
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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Jul 26, 2024, 6:24 PM IST

गोड्डा: झारखंड की कुल 81 विधानसभा सीटों में 28 सीटें एसटी के लिए सुरक्षित हैं.ऐसे में आदिवासी वोटर ही सत्ता की चाबी माने जाते हैं. ऐसे में आदिवासी वोटरों को साधे बगैर झारखंड की सत्ता पर महागठबंधन हो या एनडीए कोई काबिज नहीं हो सकता है.

2019 विधानसभा चुनाव में 28 में से 26 एसटी रिजर्व सीटें महागठबंधन के खाते में गई थी

पिछले 2019 के विधानसभा चुनाव में एसटी रिजर्व 28 में से 26 सीटें महागठबंधन के हिस्से में गई थी. सिर्फ दो सीट तोरपा और खूंटी ही भाजपा जीत पाई थी. दक्षिणी छोटानागपुर में सिर्फ तोरपा से कोचे मुंडा और खूंटी से नीलकंठ मुंडा की जी हुई थी. वहीं संथाल परगना की कुल 18 सीटों में एसटी की सभी नौ सीटें झामुमो के खाते में गई थी. साथ ही कोल्हान में भी सभी सीटों पर जेएमएम की जीत हुई थी.

बड़ा सवाल? आदिवासियों का झुकाव किस पार्टी की ओर

ऐसे में आम लोगों के बीच चर्चा है कि आखिर आदिवासियों का झुकाव किस पार्टी की ओर है और आदिवासी क्यों भाजपा से दूर हैं. झारखंड के आदिवासी सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से कई तरह के हैं.साथ ही राजनीति रूप से देखें तो आदिवासी समाज का अलग-अलग पार्टियों की ओर झुकाव है.

संथाल में आदिवासी शुरु से झामुमो पर जताते रहे हैं भरोसा

पत्रकार हेमचंद्र बताते हैं कि संथाल परगना में संथाली आदिवासियों का विश्वास दिशोम गुरु झामुमो सुप्रीमो की ओर शुरू से ही ज्यादा रहा है. यही वजह है कि एक समय झारखंड के अलावा ओडिशा और बिहार के उन क्षेत्रों से झामुमो के विधायक चुनकर आए जहां बड़ी संख्या में आदिवासी थे. इसके अलावा कुछ इलाके ऐसे हैं जहां क्रिश्चियन धर्म अपना चुके आदिवासियों की संख्या ज्यादा है वहां धार्मिक संस्था से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति की दिशा और दशा भी तय होती है.

राजमहल और दुमका में संथाली आदिवासियों की आबादी अधिक

वहीं लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम की समीक्षा करें तो काफी कुछ तस्वीर साफ होती है. जैसे संथाल में राजमहल और दुमका सुरक्षित सीट पर संथाली आदिवासियों की आबादी अधिक है. इस कारण यहां के आदिवासियों का स्वाभाविक रूप से झुकाव झामुमो की ओर है. वहीं इस क्षेत्र में धर्म परिवर्तन कर चुके आदिवासियों का मूल भी संथाली ही रहा है. साथ ही इनके बड़े नेता स्टीफेन मरांडी पूर्व उप मुख्यमंत्री का संबंध भी झामुमो से ही है. हालांकि वे कांग्रेस में भी रह चुके हैं और इसी का प्रमाण है कि संथाल की सभी एसटी रिजर्व सीट झामुमो के हिस्से में है.

कोल्हान भी माना जाता है आदिवासियों का गढ़

वहीं झामुमो का दूसरा गढ़ कोल्हान माना जता है. इन इलाकों से पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन आते हैं. यह इलाका भी आदिवासी बहुल माना जाता है. इस कारण कांग्रेस ने अपनी सीटिंग सीट सिंहभूम झामुमो को दी थी. इसके बाद जोबा मांझी इस सीट से जीत कर आईं, जबकि यह सीट इससे पहले कांग्रेस की गीता कोड़ा के पास थी और उन्होंने चुनाव से ठीक पहले पलटी मार कर भाजपा का दामन थाम लिया था, लेकिन दाव उल्टा पड़ा.

जानिए खूंटी और लोहरदगा में क्यों है महागठबंधन मजबूत, क्या कहते हैं जानकार

पत्रकार शम्भू सिंह बताते हैं कि दक्षिणी छोटानागपुर की दो अहम सीट खूंटी और लोहरदगा में क्रमशः 60 से 70 प्रतिशत मतदाता आदिवासी हैं. इनमें से बड़ा तबका क्रिश्चियन धर्म अपना चुके आदिवासियों की है. खूंटी लोकसभा में खूंटी और सिमडेगा है. जानकारों के अनुसार क्षेत्र की राजनीति में धार्मिक संस्था की बड़ी दखल होती है. इस कारण कांग्रेस को इन क्षेत्रों में अधिक फायदा होता है. वहीं प्रकृति पूजक आदिवासियों का झुकाव झामुमो की ओर माना जाता है.इस कारण प्रकृति पूजक आदिवासियों की आस्था शिबू सोरेन के प्रति है. जिसका परिणाम रहा कि अर्जुन मुंडा पिछले लोकसभा चुनाव में महज महज 1500 मतों से जीते थे, लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में 1.5 लाख मतों से हार गए.

ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों का कांग्रेस की ओर झुकाव!

पत्रकार शम्भू सिंह बताते हैं कि लोहरदगा में भी 60 प्रतिशत आबादी आदिवासी की है. इस लोक सभा क्षेत्र में गुमला और लोहरदगा दो जिले हैं. इस इलाके की सर्वाधिक विधानसभा सीटों पर महागठबंधन के ही विधायक हैं. पत्रकार शम्भू सिंह के अनुसार इसका एक बड़ा कारण यह है कि इलाके में ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों की संख्या अधिक है. ऐसे में स्वाभाविक रूप से यहां के आदिवासियों का झुकाव कांग्रेस की ओर है. क्षेत्र के बिशुनपुर विधानसभा से चमरा लिंडा विधायक हैं. चमरा झामुमो से विधायक हैं, लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में उन्होंने पार्टी से बगावत कर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे थे. लेकिन जनता को मैसेज नहीं दे सके. नतीजतन उन्हें हार का सामना करना पड़ा.

सिमडेगा और गुमला में राजनीति का केंद्र धार्मिक संस्थाः शंम्भू सिंह

इस संबंध में सिमडेगा और गुमला की राजनीति पर पकड़ रखने वाले पत्रकार शम्भू सिंह बताते हैं कि इन जिलों में क्रिश्चियन आदिवासी की राजनीति का केंद्र उनकी धार्मिक संस्था होती है. धर्मिक संस्था ही तय करती है कि वोट किसे देना है. ऐसे में उनकी पहली पसंद कांग्रेस ही होती है. लेकिन कई बार लोगों ने झापा को भी अपना समर्थन दिया है. इस कारण एनोस एक्का जीतते थे.

संथाल में सोरेन परिवार और तीर-धनुष का सिंबल ही काफीः हेमचंद्र

वहीं संथाल परगना की राजनीति के संबंध में पत्रकार हेमचंद्र बताते हैं संथाल के लिए सोरेन परिवार का नाम और तीर-धनुष का सिंबल ही काफी है. रही बात भाजपा की तो जब-जब आदिवासी सोरेन परिवार से थोड़ा गुस्सा होते हैं तो संथाली वोटों का थोड़ा बंटवारा हो जाता है, जो भाजपा के लिए संजीवनी का काम करती है और भाजपा कुछ सीटें जीत जाती हैं.

लोकसभा चुनाव में कई सीटों पर भाजपा का दाव पड़ा था उल्टा

हाल के दिनों में भाजपा का सारा दाव संथाल में उल्टा पड़ गया. चाहे सीता सोरेन को दुमका से चुनाव लड़ना या फिर गीता कोड़ा को पार्टी में लाना या सुदर्शन को बदलना या फिर पिछला चुनाव बमुश्किल जीते अर्जुन मुंडा पर दुबारा दाव लगाना.

भाजपा ने विधानसभा चुनाव में 10 से 12 एसटी सीट जीतने का रखा है लक्ष्य

अब इसकी भरपाई के लिए भाजपाई दिग्गजों को मैदान में उतारने की बात कह रहे हैं. इनमें अर्जुन मुंडा, बाबूलाल मरंडी समेत कई बड़े नाम शामिल हैं, जो चुनाव में हारे हैं. मतलब साफ है एसटी रिजर्व 28 सीटों में कम से कम 10-12 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा गया है, ताकि राज्य की सत्ता पर बीजेपी काबिज हो सके.

ऐसे में अब विधानसभा चुनाव सामने है और भाजपा का फोकस आदिवासी सीटों पर है. वहीं दूसरी ओर झामुमो भी लोकसभा चुनाव के परिणाम से उत्साहित अपनी जीती हुई तमाम आदिवासी सीटों को बचाने की जुगत में है.

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गोड्डा: झारखंड की कुल 81 विधानसभा सीटों में 28 सीटें एसटी के लिए सुरक्षित हैं.ऐसे में आदिवासी वोटर ही सत्ता की चाबी माने जाते हैं. ऐसे में आदिवासी वोटरों को साधे बगैर झारखंड की सत्ता पर महागठबंधन हो या एनडीए कोई काबिज नहीं हो सकता है.

2019 विधानसभा चुनाव में 28 में से 26 एसटी रिजर्व सीटें महागठबंधन के खाते में गई थी

पिछले 2019 के विधानसभा चुनाव में एसटी रिजर्व 28 में से 26 सीटें महागठबंधन के हिस्से में गई थी. सिर्फ दो सीट तोरपा और खूंटी ही भाजपा जीत पाई थी. दक्षिणी छोटानागपुर में सिर्फ तोरपा से कोचे मुंडा और खूंटी से नीलकंठ मुंडा की जी हुई थी. वहीं संथाल परगना की कुल 18 सीटों में एसटी की सभी नौ सीटें झामुमो के खाते में गई थी. साथ ही कोल्हान में भी सभी सीटों पर जेएमएम की जीत हुई थी.

बड़ा सवाल? आदिवासियों का झुकाव किस पार्टी की ओर

ऐसे में आम लोगों के बीच चर्चा है कि आखिर आदिवासियों का झुकाव किस पार्टी की ओर है और आदिवासी क्यों भाजपा से दूर हैं. झारखंड के आदिवासी सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से कई तरह के हैं.साथ ही राजनीति रूप से देखें तो आदिवासी समाज का अलग-अलग पार्टियों की ओर झुकाव है.

संथाल में आदिवासी शुरु से झामुमो पर जताते रहे हैं भरोसा

पत्रकार हेमचंद्र बताते हैं कि संथाल परगना में संथाली आदिवासियों का विश्वास दिशोम गुरु झामुमो सुप्रीमो की ओर शुरू से ही ज्यादा रहा है. यही वजह है कि एक समय झारखंड के अलावा ओडिशा और बिहार के उन क्षेत्रों से झामुमो के विधायक चुनकर आए जहां बड़ी संख्या में आदिवासी थे. इसके अलावा कुछ इलाके ऐसे हैं जहां क्रिश्चियन धर्म अपना चुके आदिवासियों की संख्या ज्यादा है वहां धार्मिक संस्था से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति की दिशा और दशा भी तय होती है.

राजमहल और दुमका में संथाली आदिवासियों की आबादी अधिक

वहीं लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम की समीक्षा करें तो काफी कुछ तस्वीर साफ होती है. जैसे संथाल में राजमहल और दुमका सुरक्षित सीट पर संथाली आदिवासियों की आबादी अधिक है. इस कारण यहां के आदिवासियों का स्वाभाविक रूप से झुकाव झामुमो की ओर है. वहीं इस क्षेत्र में धर्म परिवर्तन कर चुके आदिवासियों का मूल भी संथाली ही रहा है. साथ ही इनके बड़े नेता स्टीफेन मरांडी पूर्व उप मुख्यमंत्री का संबंध भी झामुमो से ही है. हालांकि वे कांग्रेस में भी रह चुके हैं और इसी का प्रमाण है कि संथाल की सभी एसटी रिजर्व सीट झामुमो के हिस्से में है.

कोल्हान भी माना जाता है आदिवासियों का गढ़

वहीं झामुमो का दूसरा गढ़ कोल्हान माना जता है. इन इलाकों से पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन आते हैं. यह इलाका भी आदिवासी बहुल माना जाता है. इस कारण कांग्रेस ने अपनी सीटिंग सीट सिंहभूम झामुमो को दी थी. इसके बाद जोबा मांझी इस सीट से जीत कर आईं, जबकि यह सीट इससे पहले कांग्रेस की गीता कोड़ा के पास थी और उन्होंने चुनाव से ठीक पहले पलटी मार कर भाजपा का दामन थाम लिया था, लेकिन दाव उल्टा पड़ा.

जानिए खूंटी और लोहरदगा में क्यों है महागठबंधन मजबूत, क्या कहते हैं जानकार

पत्रकार शम्भू सिंह बताते हैं कि दक्षिणी छोटानागपुर की दो अहम सीट खूंटी और लोहरदगा में क्रमशः 60 से 70 प्रतिशत मतदाता आदिवासी हैं. इनमें से बड़ा तबका क्रिश्चियन धर्म अपना चुके आदिवासियों की है. खूंटी लोकसभा में खूंटी और सिमडेगा है. जानकारों के अनुसार क्षेत्र की राजनीति में धार्मिक संस्था की बड़ी दखल होती है. इस कारण कांग्रेस को इन क्षेत्रों में अधिक फायदा होता है. वहीं प्रकृति पूजक आदिवासियों का झुकाव झामुमो की ओर माना जाता है.इस कारण प्रकृति पूजक आदिवासियों की आस्था शिबू सोरेन के प्रति है. जिसका परिणाम रहा कि अर्जुन मुंडा पिछले लोकसभा चुनाव में महज महज 1500 मतों से जीते थे, लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में 1.5 लाख मतों से हार गए.

ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों का कांग्रेस की ओर झुकाव!

पत्रकार शम्भू सिंह बताते हैं कि लोहरदगा में भी 60 प्रतिशत आबादी आदिवासी की है. इस लोक सभा क्षेत्र में गुमला और लोहरदगा दो जिले हैं. इस इलाके की सर्वाधिक विधानसभा सीटों पर महागठबंधन के ही विधायक हैं. पत्रकार शम्भू सिंह के अनुसार इसका एक बड़ा कारण यह है कि इलाके में ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों की संख्या अधिक है. ऐसे में स्वाभाविक रूप से यहां के आदिवासियों का झुकाव कांग्रेस की ओर है. क्षेत्र के बिशुनपुर विधानसभा से चमरा लिंडा विधायक हैं. चमरा झामुमो से विधायक हैं, लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में उन्होंने पार्टी से बगावत कर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे थे. लेकिन जनता को मैसेज नहीं दे सके. नतीजतन उन्हें हार का सामना करना पड़ा.

सिमडेगा और गुमला में राजनीति का केंद्र धार्मिक संस्थाः शंम्भू सिंह

इस संबंध में सिमडेगा और गुमला की राजनीति पर पकड़ रखने वाले पत्रकार शम्भू सिंह बताते हैं कि इन जिलों में क्रिश्चियन आदिवासी की राजनीति का केंद्र उनकी धार्मिक संस्था होती है. धर्मिक संस्था ही तय करती है कि वोट किसे देना है. ऐसे में उनकी पहली पसंद कांग्रेस ही होती है. लेकिन कई बार लोगों ने झापा को भी अपना समर्थन दिया है. इस कारण एनोस एक्का जीतते थे.

संथाल में सोरेन परिवार और तीर-धनुष का सिंबल ही काफीः हेमचंद्र

वहीं संथाल परगना की राजनीति के संबंध में पत्रकार हेमचंद्र बताते हैं संथाल के लिए सोरेन परिवार का नाम और तीर-धनुष का सिंबल ही काफी है. रही बात भाजपा की तो जब-जब आदिवासी सोरेन परिवार से थोड़ा गुस्सा होते हैं तो संथाली वोटों का थोड़ा बंटवारा हो जाता है, जो भाजपा के लिए संजीवनी का काम करती है और भाजपा कुछ सीटें जीत जाती हैं.

लोकसभा चुनाव में कई सीटों पर भाजपा का दाव पड़ा था उल्टा

हाल के दिनों में भाजपा का सारा दाव संथाल में उल्टा पड़ गया. चाहे सीता सोरेन को दुमका से चुनाव लड़ना या फिर गीता कोड़ा को पार्टी में लाना या सुदर्शन को बदलना या फिर पिछला चुनाव बमुश्किल जीते अर्जुन मुंडा पर दुबारा दाव लगाना.

भाजपा ने विधानसभा चुनाव में 10 से 12 एसटी सीट जीतने का रखा है लक्ष्य

अब इसकी भरपाई के लिए भाजपाई दिग्गजों को मैदान में उतारने की बात कह रहे हैं. इनमें अर्जुन मुंडा, बाबूलाल मरंडी समेत कई बड़े नाम शामिल हैं, जो चुनाव में हारे हैं. मतलब साफ है एसटी रिजर्व 28 सीटों में कम से कम 10-12 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा गया है, ताकि राज्य की सत्ता पर बीजेपी काबिज हो सके.

ऐसे में अब विधानसभा चुनाव सामने है और भाजपा का फोकस आदिवासी सीटों पर है. वहीं दूसरी ओर झामुमो भी लोकसभा चुनाव के परिणाम से उत्साहित अपनी जीती हुई तमाम आदिवासी सीटों को बचाने की जुगत में है.

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