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बोने के पहले ही रतलाम में बिक जाती है किसानों की फसल, जैविक खेती से जमकर कमाई

रतलाम में कई किसानों ने प्राकृतिक और जैविक खेती को लाभ का धंधा बना दिया है. इन किसानों की फसलों की प्री बुकिंग होती है.

RATLAM NATURAL AND ORGANIC FARMING
रतलाम में कई किसान कर रहे प्राकृतिक और जैविक खेती (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Nov 8, 2024, 9:40 PM IST

रतलाम: आधुनिक तकनीक और खेती के नए तौर तरीके अपनाकर सफलता प्राप्त करने वाले किसानों की कई सक्सेस स्टोरी आपने सुनी होगी. लेकिन पारंपरिक और प्राकृतिक खेती की विरासत को संभालते हुए खेती को लाभ का धंधा बनाने की मिसाल रतलाम जिले के किसानों ने पेश की है. आंबा गांव के किसान राजेंद्र सिंह राठौड़, बिलपांक गांव के किसान अशोक पाटीदार और विक्रम पाटीदार ऐसे नाम हैं जो प्राकृतिक खेती को वर्षों से बढ़ावा दे रहे हैं.

बुवाई के पहले ही फसल की प्री बुकिंग

रतलाम में कुछ किसान प्राकृतिक और जैविक खेती को तब से करते आ रहे हैं जब जैविक उत्पादों को बाजार में उतना महत्व नहीं मिलता था. करीब 10 वर्ष से भी अधिक समय से प्राकृतिक खेती और फसल प्रबंधन के प्राकृतिक तौर तरीकों को अपनाकर खेती करने वाले इन किसानों की उपज अब किसी मंडी या बाजार की मोहताज नहीं है. फसल को बोने के पहले ही इनके ग्राहक फसल की प्री बुकिंग कर देते हैं. गाय के गोबर से बने जीव अमृत और अन्य प्राकृतिक तत्वों से इन्होंने अपने खेतों को इतना अनुकूल बना लिया है कि इनमें होने वाली उपज का उत्पादन भी आधुनिक खेती से होने वाले उत्पादन के बराबर हो चुका है. किसानों के इस समूह ने बिना सरकारी मदद के अपना खुद का बाजार तैयार किया है. वहीं अब इन्हें फसल का अच्छा दाम भी मिल रहा है.

क्या है प्राकृतिक खेती

प्राकृतिक खेती मतलब प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर फसल का उत्पादन करना है. खाद के रूप में गाय के गोबर और मूत्र से बने जीवामृत एवं प्राकृतिक पौधों से तैयार कीटनाशक एवं फफूंद नाशक का ही उपयोग इस खेती में किया जाता है. पूर्व की फसल के अवशेष का भी खाद के रूप में उपयोग किया जाता है. धीरे-धीरे खेत और उसके आसपास इस तरह का एक इको सिस्टम तैयार हो जाता है. जो प्राकृतिक खेती में मददगार साबित होता है. वहीं, प्राकृतिक खेती शुरू करने के शुरुआती कुछ वर्षों के बाद खेत का उत्पादन भी सामान्य खेती के बराबर प्राप्त होने लगता है. जो कि जीरो बजट खेती का आदर्श उदाहरण है.

'घर के उपयोग के लिए की थी शुरुआत'

आंबा गांव के किसान राजेंद्र सिंह राठौड़ और धीरज सिंह सरसी बताते हैं कि "करीब 15 वर्षों से उन्होंने स्वयं के घर के उत्पादन के लिए प्राकृतिक खेती की शुरुआत की थी. जिसमें प्रमुख रूप से गेहूं, चना एवं अन्य दालें शामिल थी. धीरे-धीरे प्राकृतिक खेती का दायरा बढ़ाया और अन्य किसानों से भी संपर्क कर प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों का समूह तैयार किया. इसके लिए बाजार भी तैयार किया. लोगों को प्राकृतिक उत्पादों के फायदे और रासायनिक उत्पादों से होने वाले नुकसान को भी बताया. जिसका यह नतीजा सामने आया कि अपने स्वयं के उपयोग के अलावा उनकी फसल की बुकिंग बुवाई के समय पर ही हो जाती है."

'शुरुआत में नहीं मिला दाम'

बिलपांक गांव के अशोक पाटीदार और विक्रम पाटीदार ने भी वर्ष 2014 से प्राकृतिक खेती की नई शुरुआत की थी. शुरुआत में उत्पादन भी कम मिला और फसल का मूल्य भी कम मिला. लेकिन उन्होंने प्राकृतिक खेती का दामन नहीं छोड़ा जिसके नतीजे में उन्हें उपजाऊ जमीन, स्वास्थ्यवर्धक जीवन और फसलों के अच्छे दाम के रूप में मिलने लगे हैं. इन दोनों किसानों ने अपने खेत से गेहूं ,चना और लहसुन की फसल लगाई है. जिसमें से इन किसानों की गेहूं की उपज बोने के पूर्व ही बुक हो चुकी है.

रतलाम: आधुनिक तकनीक और खेती के नए तौर तरीके अपनाकर सफलता प्राप्त करने वाले किसानों की कई सक्सेस स्टोरी आपने सुनी होगी. लेकिन पारंपरिक और प्राकृतिक खेती की विरासत को संभालते हुए खेती को लाभ का धंधा बनाने की मिसाल रतलाम जिले के किसानों ने पेश की है. आंबा गांव के किसान राजेंद्र सिंह राठौड़, बिलपांक गांव के किसान अशोक पाटीदार और विक्रम पाटीदार ऐसे नाम हैं जो प्राकृतिक खेती को वर्षों से बढ़ावा दे रहे हैं.

बुवाई के पहले ही फसल की प्री बुकिंग

रतलाम में कुछ किसान प्राकृतिक और जैविक खेती को तब से करते आ रहे हैं जब जैविक उत्पादों को बाजार में उतना महत्व नहीं मिलता था. करीब 10 वर्ष से भी अधिक समय से प्राकृतिक खेती और फसल प्रबंधन के प्राकृतिक तौर तरीकों को अपनाकर खेती करने वाले इन किसानों की उपज अब किसी मंडी या बाजार की मोहताज नहीं है. फसल को बोने के पहले ही इनके ग्राहक फसल की प्री बुकिंग कर देते हैं. गाय के गोबर से बने जीव अमृत और अन्य प्राकृतिक तत्वों से इन्होंने अपने खेतों को इतना अनुकूल बना लिया है कि इनमें होने वाली उपज का उत्पादन भी आधुनिक खेती से होने वाले उत्पादन के बराबर हो चुका है. किसानों के इस समूह ने बिना सरकारी मदद के अपना खुद का बाजार तैयार किया है. वहीं अब इन्हें फसल का अच्छा दाम भी मिल रहा है.

क्या है प्राकृतिक खेती

प्राकृतिक खेती मतलब प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर फसल का उत्पादन करना है. खाद के रूप में गाय के गोबर और मूत्र से बने जीवामृत एवं प्राकृतिक पौधों से तैयार कीटनाशक एवं फफूंद नाशक का ही उपयोग इस खेती में किया जाता है. पूर्व की फसल के अवशेष का भी खाद के रूप में उपयोग किया जाता है. धीरे-धीरे खेत और उसके आसपास इस तरह का एक इको सिस्टम तैयार हो जाता है. जो प्राकृतिक खेती में मददगार साबित होता है. वहीं, प्राकृतिक खेती शुरू करने के शुरुआती कुछ वर्षों के बाद खेत का उत्पादन भी सामान्य खेती के बराबर प्राप्त होने लगता है. जो कि जीरो बजट खेती का आदर्श उदाहरण है.

'घर के उपयोग के लिए की थी शुरुआत'

आंबा गांव के किसान राजेंद्र सिंह राठौड़ और धीरज सिंह सरसी बताते हैं कि "करीब 15 वर्षों से उन्होंने स्वयं के घर के उत्पादन के लिए प्राकृतिक खेती की शुरुआत की थी. जिसमें प्रमुख रूप से गेहूं, चना एवं अन्य दालें शामिल थी. धीरे-धीरे प्राकृतिक खेती का दायरा बढ़ाया और अन्य किसानों से भी संपर्क कर प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों का समूह तैयार किया. इसके लिए बाजार भी तैयार किया. लोगों को प्राकृतिक उत्पादों के फायदे और रासायनिक उत्पादों से होने वाले नुकसान को भी बताया. जिसका यह नतीजा सामने आया कि अपने स्वयं के उपयोग के अलावा उनकी फसल की बुकिंग बुवाई के समय पर ही हो जाती है."

'शुरुआत में नहीं मिला दाम'

बिलपांक गांव के अशोक पाटीदार और विक्रम पाटीदार ने भी वर्ष 2014 से प्राकृतिक खेती की नई शुरुआत की थी. शुरुआत में उत्पादन भी कम मिला और फसल का मूल्य भी कम मिला. लेकिन उन्होंने प्राकृतिक खेती का दामन नहीं छोड़ा जिसके नतीजे में उन्हें उपजाऊ जमीन, स्वास्थ्यवर्धक जीवन और फसलों के अच्छे दाम के रूप में मिलने लगे हैं. इन दोनों किसानों ने अपने खेत से गेहूं ,चना और लहसुन की फसल लगाई है. जिसमें से इन किसानों की गेहूं की उपज बोने के पूर्व ही बुक हो चुकी है.

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