सागर: आज के दौर में संस्कृत और वेदों के अध्ययन का ऐसा जुनून शायद ही किसी में नजर आएगा. जैसा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र और अध्यापक प्रो. अमलधारी सिंह के अंदर देखने मिल रहा है. 87 साल की उम्र में अमलधारी सिंह आज भी संस्कृत और वेदों की सेवा के लिए बतौर विद्यार्थी बीएचयू में अध्ययनरत हैं और बतौर अतिथि व्याख्याता बिना मानदेय के पढ़ाते भी हैं. उन्होंने सेना में भी अपनी सेवाएं दी हैं.
देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहलाल नेहरू ने उनको सम्मानित किया था. सबसे बड़ी बात ये है कि उन्होंने संस्कृत साहित्य पर अंग्रेजी में पीएचडी की है. वहीं बीएचयू ने उनकी पीएचडी की मौलिकता को लेकर 1946 के बाद पहली बार किसी विद्वान को डी.लिट की उपाधि दी है. वह सागर केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग एवं महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान के संयुक्त तत्त्वावधान में 'वैदिक वाङ्मय में विज्ञान' विषय पर त्रिदिवसीय अखिल भारतीय वैदिक संगोष्ठी में हिस्सा लेने सागर पहुंचे थे.
कौन है प्रो. अमलधारी सिंह
यूपी के जौनपुर के कोहारी गांव में 22 जुलाई 1938 को जन्में अमलधारी सिंह के बारे में कहा जाता है कि ये शस्त्र और शास्त्र दोनों में पारंगत हैं. उन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रयागराज यूनिवर्सिटी से संस्कृत और दर्शनशास्त्र में एमए किया. उन्हें वेद और सांख्य योग में आचार्य की उपाधि के साथ ही हिंदी में साहित्य रत्न की उपाधि मिली है. उन्होंने जुलाई 1963 से मई 1967 तक राजपूत रेजीमेंट फतेहगढ में सेना में सेवाएं दीं.
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लेकिन संस्कृत की सेवा के जुनून की वजह से 1967 से 1978 तक जोधपुर यूनिवर्सटी के संस्कृत विभाग में अध्यापन किया. फिर यूपी के रायबरेली में बैसवारा कॉलेज लालगंज के प्रिसिंपल रहे. अमलधारी सिंह के निर्देशन में 36 पीएचडी हुई है. उन्होंने महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान उज्जैयनी में मई 2004 से मई 2006 तक ओएसडी के रूप में कार्य किया. काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वैदिक दर्शन धर्मागम विभाग में अतिथि शिक्षक के तौर पर सेवाएं दीं. उनके 7 ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अलावा 12 का संपादन और 60 से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं.
बीएचयू ने 76 साल बाद किसी को दी डी.लिट की उपाधि
काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने 1946 के बाद किसी को डी.लिट की उपाधि नहीं दी थी. लेकिन उनकी थीसिस की जब अहमदाबाद में जांच पड़ताल की गई और पाया गया कि उनका शोध मौलिक है. उसके बाद कैलिफोर्निया भेजी गई, जहां के विद्वानों ने सिफारिश की. तब 2022 में बीएचयू ने उन्हें डी.लिट की उपाधि दी. खास बात ये है कि जब उन्हें डी.लिट मिली उस वक्त वह 84 वर्ष के थे. तब वे बीएचयू के सबसे बुजुर्ग शोध छात्र थे. अमलधारी सिंह अभी भी बीएचयू के छात्र हैं.
क्या कहना है संस्कृत और वेदों को लेकर
प्रो. अमलधारी सिंह कहते हैं प्रयागराज विश्वविद्यालय से बीए करने के बाद मैंने बीएचयू से संस्कृत से एमए किया. फिर दर्शनशास्त्र में एम ए किया. फिर संस्कृत में पीएचडी पूरी की. उसी क्रम में मैं सेना में जाना चाहता था. मेरा सिलेक्शन राजपूत रेजीमेंट फतेहगढ में हुआ. करीब चार साल 1963 से 1967 तक मैंने सेना में काम किया.
मुझे वेदों की सबसे पुरानी पांडुलिपि अलवर की पैलेस लाइब्रेरी में 1968 में मिली. तब से मैं लगातार प्रकाशन में लगा हूं. अलवर में 12 हजार पृष्ठ की पांडुलिपि मिली. ईश्वर की कृपा से मैंने ऋग्वेद की चार संहिता का प्रकाशन किया. पहला प्रकाशन इंग्लैड के प्रोफेसर मैक्समूलर ने 1849 में किया. वह कभी भारत नहीं आए. उसी की नकल आज तक चल रही है.