कोरबा: कबीर ने कभी कहा था की "माटी कहे कुम्हार से, तू क्यों रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय. जिसका अर्थ है कि समय परिवर्तनशील है. कभी एक सा नहीं रहता. कबीर के यह दोहे कुम्हारों की आज की स्थिति को दर्शाते हैं. गीली मिट्टी को उंगलियों से नया आकार देने वाले कुम्हार आज अपनी कला को बचाने के लिए अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.
दिवाली के लिए दीए बनाने में जुटे कुम्हार: कोरबा के सीतामणी में कुम्हारों का मोहल्ला है. जहां एक दशक पहले तक दूर-दूर से लोग आकर दीए खरीदते थे. अब वैसा माहौल नहीं रहा लेकिन इस साल अपनी-अपनी तैयारी के अनुसार कुम्हारों ने 10000 से लेकर 25 और 30000 की तादात में दीए तैयार किए हैं. उन्हें उम्मीद है कि इस दिवाली पर उन्हें अच्छा मुनाफा होगा. दिवाली को देखते हुए जी तोड़ मेहनत कर पूरा कुम्हार परिवार दीया बना रहे हैं.
विरासत में मिली परंपरा खत्म होने का दुख: मुनाफे की उम्मीद और खुशी के बीच कुम्हारों के चेहरे पर शिकन भी है. यह दुख भी है कि उनके बच्चे अब विरासत में मिली इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना चाहते. काम की जटिलता के कारण अब मिट्टी को नया रूप देने वाली यह नायाब कला विलुप्ति की तरफ बढ़ रही है.
15000 दीया बनाए, नई पीढ़ी नहीं करना चाहती कुम्हार का काम : धनसाय पेशे से कुम्हार हैं, पिछली कई पीढ़ियों से वह मिट्टी के दीए, मटके बनाकर अपना घर चलाते हैं. यह कला उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है. लेकिन अब धनसाय कहते हैं कि कुम्हार जब मिट्टी से कोई कलाकृति बनाते हैं. तभी से मेहनत बहुत लगती है, खर्च बढ़ गए हैं. मिट्टी भी आसानी से नहीं मिलती. काफी दूर से मिट्टी घर तक लाना पड़ता है. इस साल दिवाली के लिए लगभग 15000 दीए तैयार किए हैं. उम्मीद तो है कि अच्छा मुनाफा होगा, लेकिन घटती डिमांड और ज्यादा मेहनत के कारण मुनाफा पहले से कम हुआ है. यही कारण है कि आने वाली पीढ़ी इस काम को नहीं करना चाहती.
मैंने तो अपने बाबूजी से यह कला सीखी थी. लेकिन मेरा बेटा अब यह काम नहीं करना चाहता. वह किसी और तरह के काम कर रहा है. इसलिए मेरे बाद अब परिवार में मिट्टी की यह कला अगली पीढ़ी तक शायद ही हस्तांतरित होगी. नए बच्चे इस काम को अपनाना नहीं चाहते.- धनसाय, कुम्हार
बचपन से ही कर रहे दीया बनाने का काम : सीतामणी के ही अन्य कुम्हार रामसाय कहते हैं कि जब वह 10 12 साल के थे तब से पिता के साथ दीया बनाने के साथ कुम्हार का काम सीखा था. पहले तो इतनी सुविधा नहीं थी, लेकिन अब इलेक्ट्रॉनिक चाक से ही काम करते हैं. थोड़ी सुविधा है, लेकिन खर्च बढ़ गया हैं. दीया सुखाने और इसे पकाने के लिए भट्टी का इंतजाम करना पड़ता है. बड़ा स्थान चाहिए, इस बार लगभग 20 से 25000 दीया तैयार किए हैं.
आगे की पीढ़ी नहीं करना चाहती ये काम: रामसाय कहते हैं कि बाजार में अब इलेक्ट्रॉनिक सामान भी आ गए हैं. जिसके कारण लोग दीए कम खरीद रहे हैं, हालांकि ऐसी स्थिति कभी नहीं आई जब हमारे सामने जीविकोपार्जन का संकट हो. दीया और मिट्टी की कलाकृतियां बनाकर घर चल जाता है. लेकिन अब जो आजकल के बच्चे हैं. नई पीढ़ी है, वह इस काम को नहीं करना चाहते. वह कोई ऑफिस का काम ढूंढते हैं.
"मेहनत ज्यादा कमाई नहीं" : कुम्हार परिवार से ताल्लुक रखने वाले युवा लाला कुंभकार कहते हैं कि मेरे पिता दीया बनाने का काम करते हैं. लेकिन वह अब इस काम को नहीं करना चाहता. उनका कहना है कि कुम्हार के काम में मेहनत बहुत ज्यादा है और कमाई कुछ भी नहीं. इसलिए वह पेंटिंग का काम करते हैं. लाला का कहना है कि कुम्हार का काम करने पर सिर्फ सीजनल काम मिलता है लेकिन पेंटिंग का काम करने से 12 महीने पेंटिंग और पुट्टी का काम मिलता है. जिसमें कुम्हार के काम से ज्यादा मुनाफा होता है. इसके अलावा वह मूर्तियां बनाने का भी काम करते हैं.
युवा कुम्हार का कहना है कि यह काम अब विलुप्ति की कगार पर है. यहां जितने भी कुम्हार रहते हैं, उन घरों के युवा विरासत में मिली मिट्टी की कला के काम को आगे नहीं बढ़ाना चाहते. क्योंकि आज के जीवन के हिसाब से जो कमाई होती है उससे घर नहीं चल सकता.