वाराणसी: पूर्वांचल जीतना राजनीतिक पार्टियों के लिए हमेशा से ही आसान नहीं रहा है. यहां से सीट निकालने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है. ऐसे में उन उम्मीदवारों पर ही दांव लगाया जाता है, जिनके जीत जाने की उम्मीद भी अधिक होती है.
मगर वाराणसी सहित पूर्वांचल के 10 जिलों में 12 लोकसभा सीटों की अगर बात करें तो एक बात सामने आती हैं वो ये कि यहां से 72 साल के इतिहास में अब तक सिर्फ 6 महिलाएं ही संसद तक पहुंच सकी हैं. उन्हें या तो मौका नहीं दिया गया है या तो उन्हें चुनकर भेजा नहीं गया है. महिला सश्क्तिकरण के इस दौर में महिलाओं की हिस्सेदारी पूर्वांचल से सबसे कम रही है.
लोकसभा चुनाव की तारीखें घोषित होने के साथ ही देशभर की लोकसभा सीटों पर उम्मीदवारों की सूची सभी पार्टियां जारी कर रही हैं. इस बीच अगर उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल की बात करें तो इस साल महज 2 महिला प्रत्याशियों के ही नाम फाइनल आ पाए हैं.
ऐसे में यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि पूर्वांचल से महिलाओं को राजनीति में कितनी भागीदारी मिलती है. इस बार कांग्रेस और सपा ने गठबंधन कर सीटों का बंटवारा कर लिया है. वहीं बसपा अकेले चुनाव लड़ रही है, जबकि भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ चुनाव लड़ने जा रही है. मगर इन सभी दलों में से महज दो महिलाओं के नाम फाइनल होना महिलाओं की हिस्सेदारी पर सवाल खड़े करता है.
6 महिलाएं 8 बार ही पहुंच सकी हैं संसद: महिला सशक्तिकरण सभी सरकारों के वादों और टैगलाइन में रहा है. इसके बाद भी पूर्वांचल के 10 जिलों की 12 लोकसभा सीटों पर महिलाएं राजनीतिक रूप से सश्क्त नहीं हो सकी हैं.
अब तक 17 आम चुनावों का रिकॉर्ड उठाकर देखें तो पता चलता है कि कहीं पार्टियों ने मौका दिया तो लोगों ने चुनकर संसद नहीं भेजा तो कहीं पार्टियों ने महिला प्रत्याशियों पर भरोसा ही नहीं जताया है.
पूर्वांचल के 10 जिलों में बीते 72 साल में महज 6 महिलाएं 8 बार लोकसभा चुनाव जीतकर संसद तक पहुंच सकी हैं. वाराणसी, सोनभद्र, भदोही, जौनपुर, गाजीपुर, मऊ और बलिया निर्वाचन क्षेत्र से कोई भी महिला प्रत्याशी जीतकर सांसद नहीं बन सकी है. इसमें जौनपुर की 2 और मऊ की घोषी सीट शामिल है.
पहली बार कांग्रेस प्रत्याशी को मिली थी जीत: पूर्वांचल में पहली बार आजमगढ़ लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से महिला प्रत्याशी ने लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी. कांग्रेस की मोहसिना किदवई ने साल 1978 में हुए उपचुनाव में जीत दर्ज की थी.
इसके बाद 1984 में चंदौली लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे पं. कमलापति त्रिपाठी की बहू चंद्रा त्रिपाठी ने कांग्रेस के टिकट पर आम चुनाव में जीत दर्ज की थी. फिर इसके बार साल के बाद साल 1996 में दस्यु सुंदरी फूलन देवी ने मिर्जारपुर लोकसभा सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की थी.
1999 में भी उन्होंने सपा के टिकट से ही आम चुनाव मिर्जापुर से जीता था. फूलन देवी की हत्या (25 जुलाई 2001) के बाद 13 साल तक कोई भी महिला सांसद नहीं चुनी गई थी.
2014 से 2019 तक दो महिलाओं के नाम: साल 2014 के लोकसभा चुनाव में एंट्री हुई अनुप्रिया पटेल की. अपना दल-एस की अनुप्रिया पटेल मिर्जापुर से सांसद चुनी गईं. इसी साल लालगंज (सु.) लोकसभा सीट से भाजपा की नीलम सोनकर सांसद चुनी गई थीं.
इसके बाद साल 2019 के चुनाव में दोबारा अनुप्रिया पटेल ने मिर्जापुर सीट से जीत हासिल की, जबकि लालगंज (सु.) लोकसभा सीट से बसपा की संगीता आजाद सांसद चुनी गई थीं. इस बार बारी है साल 2024 के लोकसभा चुनाव की.
मिर्जापुर सीट से एक बार फिर अनुप्रिया पटेल प्रत्याशी घोषित की गई हैं. वहीं लालगंज (सु.) लोकसभा सीट से नीलम सोनकर को प्रत्याशी घोषित किया गया है. इस बार पूर्वांचल से यही दो नाम ही सामने आ रहे हैं.
वाराणसी से एक बार भी नहीं चुनी गई महिला सांसद: लोकसभा चुनाव या कहें कि आम चुनाव में वाराणसी से एक बार भी महिला को सांसद नहीं चुना गया है. साल 1952-1957-1962 में रघुनाथ सिंह (कांग्रेस), 1967 में सत्यनारायण सिंह (भाकपा), 1971 में राजाराम शास्त्री (कांग्रेस), 1977 में चंद्नशेखर सिंह (जनता पार्टी), 1980 में पं. कमलापति त्रिपाठी (कांग्रेस), 1984 में श्यामलाल यादव (कांग्रेस), 1989 में अनिल शास्त्री (जनता दल), 1991 में श्रीश चन्द्र दीक्षित (भाजपा), 1996-1998-1999 में शंकर प्रसाद जायसवाल (भाजपा), 2004 में डॉ. राजेश मिश्रा (कांग्रेस), 2009 में डॉ. मुरली मनोहर जोशी (भाजपा) और 2014-2019 में नरेंद्न दामोदर दास मोदी (भाजपा) को वाराणसी की जनता ने अपना सांसद चुना है.
महिलाओं के लिए राजनीति करना हुआ है मुश्किल: इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक प्रो विजय नारायण बताते हैं कि बनारस से महिलाओं ने खूब चुनाव लड़ा है. साल 2019 के चुनाव में समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी शालिनी यादव ने बहुत अच्छी चुनावी लड़ाई लड़ी थी.
उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों जगहों पर ऐसी महिलाएं जिनका राजनीति में पारिवारिक संबंध नहीं है. उनके लिए राजनीति करना बहुत मुश्किल है. आज राजनीति महंगी भी हो गई है. अब ये साधारण महिलाओं के बस का होता भी नहीं है. जब तक राजनैतिक दलों में पदों पर महिलाओं को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, उनको नेता बनने का मौका नहीं मिलेगा. समाज में आज ये स्थिति है भी नहीं. दूषित समाज की बनावट है.
उत्तर प्रदेश में नहीं है ऐसा माहौल: वे कहते हैं कि जो राजनैतिक समाज की बनावट आज गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली में है वैसा माहौल उत्तर प्रदेश में और खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में नहीं है. उसका खामियाजा अच्छी, समझदार और जानकार महिलाएं, जो समाज में परिवर्तन का काम कर सकती हैं, वे भुगत रही हैं. उन्हें मौका भी नहीं मिल रहा है. राजनीति में आने वाली महिलाओं की संख्या है.
मगर मौके के अभाव में वे इसमें नहीं आ सकती हैं. जब इस तरह की दूरी को खत्म नहीं किया जाएगा और महिलाओं को लेकर राजनीति में एक अच्छी सोच नहीं बनाई जाएगी तब तक इस क्षेत्र में महिलाएं पीछे होती रहेंगी. पिछले कई चुनावों में जब भी मौका मिला है महिलाओं ने अच्छा चुनाव लड़ा है.