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लखनऊ की पुरानी इमारते कहती हैं आजादी की कहानी; दीवारों पर आज भी दिखते क्रांति के निशान - Independence Day 2024

लखनऊ का स्वतंत्रता आंदोलन में क्या योगदान रहा? लखनऊ के नाम क्या उपलब्धि दर्ज है? लखनऊ का क्या गौरवपूर्ण इतिहास है? इन सभी सवालों के जवाब दे रहे हैं देश के प्रसिद्ध इतिहासकार रवि भट्ट.

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लखनऊ की इमारतों से निकली आजादी की कहानी. (Photo Credit; ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Aug 15, 2024, 11:27 AM IST

लखनऊ: देश को आजादी यूं ही नहीं मिली. तमाम क्रांतिकारियों ने अपनी जान की कुर्बानी दी, खून पसीना बहाया, अंग्रेजों को भारत से भगाया, 1857 से लेकर 1947 तक क्रांतिकारियों ने जो क्रांति की उसी के चलते आज हम खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं. देश के अलग-अलग स्थानों पर क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन की इस लड़ाई में लखनऊ का खास योगदान रहा है.

लखनऊ की इमारतों से निकली आजादी की कहानी सुनाते इतिहासकार रवि भट्ट. (Video Credit; ETV Bharat)

यहां पर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारियों ने जो रणनीति बनाई उसे अंजाम तक पहुंचाया. उससे अंग्रेजों की चूलें हिल गई थीं. रेजिडेंसी, बेगम हजरत महल पार्क, चारबाग रेलवे स्टेशन, अमीनाबाद स्थित झंडेवाला पार्क स्वतंत्रता आंदोलन के साक्षी हैं.

देश के प्रसिद्ध इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लखनऊ का खास योगदान रहा था. देश भर में जहां भी जितने आंदोलन हुए उससे कहीं ज्यादा लखनऊ में अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई थी. पौने पांच महीने तक क्रांतिकारियों ने लखनऊ को अपने कब्जे में रखा था.

1857 के युद्ध को भारतीय इतिहासकारों ने द फर्स्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस नाम दिया तो अंग्रेजों ने इसे सिपाही विद्रोह कहा. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पूरे भारत में भारतीय क्रांतिकारियों को जब अंग्रेजों की तरफ से जवाब मिल रहा था तो वह लखनऊ में आकर इकट्ठा हुए थे.

1857 में ही लखनऊ क्रांतिकारियों का हब बन गया था. यहां पर तमाम क्रांतिकारियों ने रणनीति बनाकर अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया था. 1857 की क्रांति के दौरान क्रांतिकारियों का अपना एडमिनिस्ट्रेशन था. उनके अपने थाने थे अपनी कोतवाली थी. वह टैक्स भी कलेक्ट कर रहे थे. वह थी बेगम हजरत महल.

अहमदुल्लाह शाह के साथ मिलकर इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया था. फर्स्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस जिसे माना जाता है उसे वीर सावरकर ने दिया था. 30 मई 1857 को लखनऊ के मड़ियांव में विद्रोह हुआ था. तब यहां पर कैंटोनमेंट हुआ करता था.

इस विद्रोह में पहली बार गोली भारतीय सिपाही चलाते हैं तो ब्रिटिश हेनरी लायंस कांप गया था. उसने रेजिडेंसी के अंदर आसपास के अपने ब्रिटिशर्स को पहले ही रेजीडेंसी में बुला लिया था. रेजिडेंसी को इस तरह बनाया गया है कि उस पर कब्जा होना मुश्किल था. उस समय भी बेगम हजरत महल ने पूरे शहर पर कब्जा कर लिया था, लेकिन रेजिडेंसी पर कब्जा नहीं हो पाया था, क्योंकि ऊपर से अंग्रेज गोली चलाते थे.

आर्मी के लोगों को यह मालूम है कि झंडे का बड़ा महत्व होता है तो रेजीडेंसी में जो अंग्रेज अपना झंडा लगाते थे उस पर क्रांतिकारी सीधे गोली चलाते थे. झंडे से ही मोरल हाई और डाउन होता था. किसी का झंडा गिरा दीजिए तो उसका मोरन डाउन हो जाता था. क्रांतिकारियों ने यही काम किया था.

रात को भारतीय क्रांतिकारी जश्न मानते थे. जब आग जलाते थे तो रेजिडेंसी के अंदर बैठे अंग्रेज डर जाते थे. वह सोचते थे कहीं यह लोग रात में अंदर न आ जाएं. रात में फिर से अंग्रेज किसी ढंग से अपना झंडा सिलकर फिर से उसे टांगते थे.

इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि रेजिडेंसी के अंदर बूचड़खाना भी था, पोस्ट ऑफिस भी था हॉस्पिटल भी था, स्कूल भी था. जब 1858 में अंग्रेजों ने रेजिडेंसी पर कब्जा कर लिया था तो उन्होंने ये मान लिया था कि यह अब तक की सबसे टफेस्ट जंग थी. कहते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था लेकिन रेजिडेंसी के अंदर अंग्रेजों को भी रोशनी कम करनी पड़ जाती थी.

वे कहते हैं कि अंग्रेजों को यह खूब मालूम था कि जैसे ही इनको आजादी मिली, यह अंदर घुस जाएंगे. 13 अगस्त 1947 को अंग्रेज अल्फ्रेड कर्टिस को पता था कि भारतीयों को आजादी मिली तो यह हमारा झंडा जरूर फाड़ डालेंगे. वह अपने आदमियों के साथ चुपचाप जाता है और धीरे से अपना झंडा उतार लाता है.

केयरटेकर आयरलैंड को झंडा सौंप देता है. उसके बाद जमीन को बराबर कर देता है जिससे यह पता न लगे कि यहां पर कभी झंडा लगा था. इसके बाद यह झंडा जब ग्रेट ब्रिटेन पहुंचता है तो सब चाहते हैं कि यह अपने पास रख लें, लेकिन ये झंडा किसी को नहीं दिया गया था उस झंडे को को ब्रिटेन की लाइब्रेरी में रखा गया, वह झंडा आज भी वहीं मिलेगा.

इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि चारबाग रेलवे स्टेशन का अपना इतिहास रहा है. 1916 बहुत महत्वपूर्ण साल था. इसी साल अमृतलाल नागर आगरा में पैदा हुए थे. बनारस में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित हुआ था. 1916 के अंदर क्रांति हुई थी. यहां पर पहली बार 26 दिसंबर 1916 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के मुलाकात हुई थी. यहीं पर लखनऊ समझौता हुआ था जिसमें मुस्लिम लीग भी कांग्रेस के साथ आ गई थी.

उनका कहना है कि पूरा लखनऊ ही आजादी के संघर्ष में शामिल था. झंडेवाला पार्क में तमाम सम्मेलन हुए. देश के आंदोलन के लिए यहीं पर रणनीति बनी. तमाम क्रांतिकारियों ने इसमें हिस्सा लिया. काकोरी ट्रेन की घटना भी लखनऊ में ही हुई जिससे अंग्रेजों को यह पता लगने लगा कि अब भारतीय जाग गए हैं. उनसे लड़ पाना अब मुश्किल है. लखनऊ आजादी के आंदोलन में सबसे आगे रहा है. इसका गौरवपूर्ण इतिहास है.

ये भी पढ़ेंः शहीदों की याद में तैयार कर दी आम की खास प्रजाति, नाम रखा '15 अगस्त मैंगो', खूबियों से है भरपूर, अगले साल ले सकेंगे स्वाद

लखनऊ: देश को आजादी यूं ही नहीं मिली. तमाम क्रांतिकारियों ने अपनी जान की कुर्बानी दी, खून पसीना बहाया, अंग्रेजों को भारत से भगाया, 1857 से लेकर 1947 तक क्रांतिकारियों ने जो क्रांति की उसी के चलते आज हम खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं. देश के अलग-अलग स्थानों पर क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन की इस लड़ाई में लखनऊ का खास योगदान रहा है.

लखनऊ की इमारतों से निकली आजादी की कहानी सुनाते इतिहासकार रवि भट्ट. (Video Credit; ETV Bharat)

यहां पर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारियों ने जो रणनीति बनाई उसे अंजाम तक पहुंचाया. उससे अंग्रेजों की चूलें हिल गई थीं. रेजिडेंसी, बेगम हजरत महल पार्क, चारबाग रेलवे स्टेशन, अमीनाबाद स्थित झंडेवाला पार्क स्वतंत्रता आंदोलन के साक्षी हैं.

देश के प्रसिद्ध इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लखनऊ का खास योगदान रहा था. देश भर में जहां भी जितने आंदोलन हुए उससे कहीं ज्यादा लखनऊ में अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई थी. पौने पांच महीने तक क्रांतिकारियों ने लखनऊ को अपने कब्जे में रखा था.

1857 के युद्ध को भारतीय इतिहासकारों ने द फर्स्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस नाम दिया तो अंग्रेजों ने इसे सिपाही विद्रोह कहा. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पूरे भारत में भारतीय क्रांतिकारियों को जब अंग्रेजों की तरफ से जवाब मिल रहा था तो वह लखनऊ में आकर इकट्ठा हुए थे.

1857 में ही लखनऊ क्रांतिकारियों का हब बन गया था. यहां पर तमाम क्रांतिकारियों ने रणनीति बनाकर अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया था. 1857 की क्रांति के दौरान क्रांतिकारियों का अपना एडमिनिस्ट्रेशन था. उनके अपने थाने थे अपनी कोतवाली थी. वह टैक्स भी कलेक्ट कर रहे थे. वह थी बेगम हजरत महल.

अहमदुल्लाह शाह के साथ मिलकर इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया था. फर्स्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस जिसे माना जाता है उसे वीर सावरकर ने दिया था. 30 मई 1857 को लखनऊ के मड़ियांव में विद्रोह हुआ था. तब यहां पर कैंटोनमेंट हुआ करता था.

इस विद्रोह में पहली बार गोली भारतीय सिपाही चलाते हैं तो ब्रिटिश हेनरी लायंस कांप गया था. उसने रेजिडेंसी के अंदर आसपास के अपने ब्रिटिशर्स को पहले ही रेजीडेंसी में बुला लिया था. रेजिडेंसी को इस तरह बनाया गया है कि उस पर कब्जा होना मुश्किल था. उस समय भी बेगम हजरत महल ने पूरे शहर पर कब्जा कर लिया था, लेकिन रेजिडेंसी पर कब्जा नहीं हो पाया था, क्योंकि ऊपर से अंग्रेज गोली चलाते थे.

आर्मी के लोगों को यह मालूम है कि झंडे का बड़ा महत्व होता है तो रेजीडेंसी में जो अंग्रेज अपना झंडा लगाते थे उस पर क्रांतिकारी सीधे गोली चलाते थे. झंडे से ही मोरल हाई और डाउन होता था. किसी का झंडा गिरा दीजिए तो उसका मोरन डाउन हो जाता था. क्रांतिकारियों ने यही काम किया था.

रात को भारतीय क्रांतिकारी जश्न मानते थे. जब आग जलाते थे तो रेजिडेंसी के अंदर बैठे अंग्रेज डर जाते थे. वह सोचते थे कहीं यह लोग रात में अंदर न आ जाएं. रात में फिर से अंग्रेज किसी ढंग से अपना झंडा सिलकर फिर से उसे टांगते थे.

इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि रेजिडेंसी के अंदर बूचड़खाना भी था, पोस्ट ऑफिस भी था हॉस्पिटल भी था, स्कूल भी था. जब 1858 में अंग्रेजों ने रेजिडेंसी पर कब्जा कर लिया था तो उन्होंने ये मान लिया था कि यह अब तक की सबसे टफेस्ट जंग थी. कहते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था लेकिन रेजिडेंसी के अंदर अंग्रेजों को भी रोशनी कम करनी पड़ जाती थी.

वे कहते हैं कि अंग्रेजों को यह खूब मालूम था कि जैसे ही इनको आजादी मिली, यह अंदर घुस जाएंगे. 13 अगस्त 1947 को अंग्रेज अल्फ्रेड कर्टिस को पता था कि भारतीयों को आजादी मिली तो यह हमारा झंडा जरूर फाड़ डालेंगे. वह अपने आदमियों के साथ चुपचाप जाता है और धीरे से अपना झंडा उतार लाता है.

केयरटेकर आयरलैंड को झंडा सौंप देता है. उसके बाद जमीन को बराबर कर देता है जिससे यह पता न लगे कि यहां पर कभी झंडा लगा था. इसके बाद यह झंडा जब ग्रेट ब्रिटेन पहुंचता है तो सब चाहते हैं कि यह अपने पास रख लें, लेकिन ये झंडा किसी को नहीं दिया गया था उस झंडे को को ब्रिटेन की लाइब्रेरी में रखा गया, वह झंडा आज भी वहीं मिलेगा.

इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि चारबाग रेलवे स्टेशन का अपना इतिहास रहा है. 1916 बहुत महत्वपूर्ण साल था. इसी साल अमृतलाल नागर आगरा में पैदा हुए थे. बनारस में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित हुआ था. 1916 के अंदर क्रांति हुई थी. यहां पर पहली बार 26 दिसंबर 1916 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के मुलाकात हुई थी. यहीं पर लखनऊ समझौता हुआ था जिसमें मुस्लिम लीग भी कांग्रेस के साथ आ गई थी.

उनका कहना है कि पूरा लखनऊ ही आजादी के संघर्ष में शामिल था. झंडेवाला पार्क में तमाम सम्मेलन हुए. देश के आंदोलन के लिए यहीं पर रणनीति बनी. तमाम क्रांतिकारियों ने इसमें हिस्सा लिया. काकोरी ट्रेन की घटना भी लखनऊ में ही हुई जिससे अंग्रेजों को यह पता लगने लगा कि अब भारतीय जाग गए हैं. उनसे लड़ पाना अब मुश्किल है. लखनऊ आजादी के आंदोलन में सबसे आगे रहा है. इसका गौरवपूर्ण इतिहास है.

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