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यहां नेमप्लेट नहीं रिश्तों की है अहमियत, दुकान हो या गली सभी में हैं 'अमर' व 'अली' - Nameplate controversy Special

इन दिनों दुकानों के आगे नेमप्लेट लगाने का विवाद सुर्खियों में है. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना सुप्रीम फैसला रख विवाद को खत्म करने की कोशिश की है. हालांकि जयपुर शहर में अरसे से दुकानों के बाहर नाम लगाने का चलन रहा है, लेकिन शहर के कंपोजिट कल्चर के कारण कभी भेदभाव पूर्ण रवैया नहीं देखा गया. ना रियासत काल में, ना ही अब. पेश है यह खास रिपोर्ट...

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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : Jul 25, 2024, 2:04 PM IST

Updated : Jul 25, 2024, 2:19 PM IST

कौमी एकता का संदेश देता पिंकसिटी (वीडियो ईटीवी भारत जयपुर)

जयपुर. शेक्सपियर ने कहा था नाम में क्या रखा है, लेकिन इन दिनों नाम ही सड़क से संसद तक और फिर सुप्रीम कोर्ट तक चर्चा का मुद्दा बन गया है. बात सिर्फ नाम की नहीं, बल्की जाति और मजहब से भी जुड़ी है. यूपी में कावड़ यात्रा के रास्ते में आने वाले थड़ी-ठेलों से लेकर दुकानों पर लिखे नामों के साथ मजहब को उजागर करने का मकसद देश की सर्वोच्च अदालत ने खारिज कर दिया. इस बीच चर्चा दिल्ली से जयपुर तक आ पहुंची. वो जयपुर जिसकी बुनियाद में गंगा-जमुनी तहजीब रहती है और यहां दुकानों पर ही नहीं बल्कि गली-मोहल्लों और सड़कों के नाम भी मामूली शख्स से लेकर शख्सियत को समर्पित रहे. इस शहर के इतिहास से सरोकार रखने वालों ने भी कभी नाम के आगे की पहचान को तवज्जो नहीं दी.

1727 में नक्शे के साथ बसाए गए जयपुर शहर की सूरत आजादी से पहले 1947 तक वक्त के साथ संवरती गई. जरूरतों ने शहर की आगोश का दायरा इतना बढ़ा दिया कि चारदिवारी के दायरे को लांघकर अजमेर की ओर रुख करने वाला रास्ता मिर्जा इस्माइल के नाम से पहचान बना गया. इसके बीच में ठोलिया सर्किल ने पांच बत्ती के रूप में पहचान बना ली और एमआई रोड ही नहीं, परकोटे के हर रास्ते की दुकान पर भी किसी खास शख्स के हुनर को नाम और शोहरत मिली. यहां जातिगत ठठेरों का रास्ता और मनिहारों का रास्ता भी है. सच्चाई की पहचान हरिशचंद्र के हमनाम रास्ता भी है. कल्याणधणी के मंदिर ने गली को नाम दिया, तो जयलाल मुंशी और गोविंदराव रास्ते के नाम पर पीढ़ियों तक अमर हो गए. इस शहर में पठानों का चौक आज भी अफगानी काबुली वाले के किस्सों का गवाह बना हुआ है. यही नहीं, कुछ रास्ते तो जायकों को परोसने वालों के नाम से पहचाने जाते हैं.

वहीं, जयपुर की इसी विरासत का बखान करते हुए इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि जयपुर की बसावट एक कंपोजिट कल्चर को लेकर हुई, जिसमें सभी धर्म, सभी जातियां, सभी मान्यता के लोग रहे हैं. बसावट के पीछे भी यही उद्देश्य रहा कि यहां सभी तरह के लोग मौजूद हो, ताकि एक संपूर्ण नगर बन सके. सवाई जयसिंह के दिमाग में ये बात थी इसलिए पहले नक्शे बनवाए और फिर नक्शों के आधार पर गालियां और चौकड़िया बनाते हुए लोगों को बसाया गया. आज भी जयपुर में देखने को मिलेंगे कि जातियों के नाम पर मोहल्ले बने हुए हैं, लेकिन यहां राजा ने भी कभी भेदभाव नहीं किया. यहां मनिहारों का रास्ता भी मिलेगा, ठठेरों का रास्ता भी मिलेगा और लोहार का खुर्रा भी मिलेगा, जिसमें उसी कार्य को करने वाले लोग भी बसे हुए हैं और वहीं काम होता भी आया है.

इसे भी पढ़ें : ‘नेमप्लेट पर फंसी भाजपा? कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया, कहा, हार को पचा नहीं पा रही BJP - SC order against nameplate

उन्होंने बताया कि सवाई जय सिंह का जो विजन था उसमें उन्होंने अंदर अपना राज महल बनवाया और बाहर एक नगर इस तरह से बसाया की कभी ये भारत की राजधानी भी हो सकता है. जहां तक दुकानों के बाहर नाम का सवाल है तो ये कल्चर पहले प्रेसीडेंसी टाउन यानी कोलकाता, चेन्नई व दिल्ली में हुआ करता था. जब जयपुर का संपर्क इन शहरों के साथ बढ़ा तो ये कल्चर वहां से जयपुर में भी आया. लगभग 1940 के आसपास जयपुर में दुकानों पर नाम लिखना शुरू हो गया था. कुछ लोग अपने ब्रांड को लेकर भी आगे बढ़े. इसके पीछे भेदभाव वाली सोच नहीं थी.

जयपुर की इस विरासत और संस्कृति का हवाला देते हुए ही यहां के राजनेता भी दुकानों पर नाम लिखे जाने की पैरवी कर रहे हैं. हवामहल विधायक बालमुकुंद आचार्य ने कहा कि अपनी आइडेंटिटी छुपानी नहीं चाहिए. पूजा-पद्धति अलग हो सकती है. प्रार्थना का विधान अलग हो सकता है, लेकिन अपना नाम, अपनी जात और काम को छुपाने की आवश्यकता नहीं है. जो है वो लिखना चाहिए. उसमें आपत्ति क्या है. भारत में सौहार्द पूर्ण वातावरण है. यहां सभी को अपनी पूजा-पद्धति के साथ काम करने का पूरा अधिकार है और वैसे भी आजकल डिजिटल ट्रांजेक्शन करते हैं, तो नाम तो उसमें भी आ जाता है. उससे भी पता चल जाता है. इससे अच्छा है कि व्यापारी अपना नाम अपने व्यापार पर लिखकर रखे. जयपुर में तो सभी लोग एक दूसरे से व्यापार कर ही रहे हैं, इसमें गलत क्या है.

इसे भी पढ़ें : नेमप्लेट विवाद पर योगी सरकार को SC से झटका, कोर्ट ने कहा- अपनी नहीं, सिर्फ खाने की पहचान बताएं - kanwar yatra nameplate row

वहीं त्रिपोलिया बाजार व्यापार मंडल के अध्यक्ष राजेंद्र गुप्ता ने बताया कि जयपुर में काम के आधार पर ही रास्ते मोहल्ले और गालियां बांटे गए. यहां के बाजारों में दुकान के बाहर नाम लिखा हुआ है, जिसे जिस चीज की जरूरत होती है, वो जाकर के खरीद कर ले जाता है. उन्होंने बताया कि उनके बाजार में अल्पसंख्यकों की 65 दुकानें हैं. वो सभी भी उसी आनंद के साथ काम कर रहे हैं जैसे बाकी लोग कर रहे हैं. जयपुर में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक जैसा वातावरण नहीं है.

इसी तरह एमआई रोड व्यापार मंडल के महामंत्री सुरेश सैनी ने कहा कि जयपुर की अपनी संस्कृति रही है. यहां मुख्य बाजार का नाम भी मिर्ज़ा इस्माइल के नाम पर है और वो खुद जिस क्षेत्र में रह रहे हैं, उसका नाम बरकत नगर है. आज भी यदि ईद पर राजरतन पर अच्छी खरीदारी होती है, तो साल भर लोग ड्राई क्लीन के लिए नाज के पास भी पहुंचते हैं. यही नहीं, इन दुकानों पर आसिफ और कमल एक साथ काम करते हैं.

बहरहाल, जिस वक्त जयपुर को बसाया गया था, सवाई राजा जय सिंह ने इसे एकता के धागे में पिरोया था. वो धागा कभी टूटा नहीं. यही वजह है कि जयपुर के गली-मोहल्ले और बाजार कौमी एकता का संदेश देते हैं. यह सौहार्द आज भी बरकरार है.

कौमी एकता का संदेश देता पिंकसिटी (वीडियो ईटीवी भारत जयपुर)

जयपुर. शेक्सपियर ने कहा था नाम में क्या रखा है, लेकिन इन दिनों नाम ही सड़क से संसद तक और फिर सुप्रीम कोर्ट तक चर्चा का मुद्दा बन गया है. बात सिर्फ नाम की नहीं, बल्की जाति और मजहब से भी जुड़ी है. यूपी में कावड़ यात्रा के रास्ते में आने वाले थड़ी-ठेलों से लेकर दुकानों पर लिखे नामों के साथ मजहब को उजागर करने का मकसद देश की सर्वोच्च अदालत ने खारिज कर दिया. इस बीच चर्चा दिल्ली से जयपुर तक आ पहुंची. वो जयपुर जिसकी बुनियाद में गंगा-जमुनी तहजीब रहती है और यहां दुकानों पर ही नहीं बल्कि गली-मोहल्लों और सड़कों के नाम भी मामूली शख्स से लेकर शख्सियत को समर्पित रहे. इस शहर के इतिहास से सरोकार रखने वालों ने भी कभी नाम के आगे की पहचान को तवज्जो नहीं दी.

1727 में नक्शे के साथ बसाए गए जयपुर शहर की सूरत आजादी से पहले 1947 तक वक्त के साथ संवरती गई. जरूरतों ने शहर की आगोश का दायरा इतना बढ़ा दिया कि चारदिवारी के दायरे को लांघकर अजमेर की ओर रुख करने वाला रास्ता मिर्जा इस्माइल के नाम से पहचान बना गया. इसके बीच में ठोलिया सर्किल ने पांच बत्ती के रूप में पहचान बना ली और एमआई रोड ही नहीं, परकोटे के हर रास्ते की दुकान पर भी किसी खास शख्स के हुनर को नाम और शोहरत मिली. यहां जातिगत ठठेरों का रास्ता और मनिहारों का रास्ता भी है. सच्चाई की पहचान हरिशचंद्र के हमनाम रास्ता भी है. कल्याणधणी के मंदिर ने गली को नाम दिया, तो जयलाल मुंशी और गोविंदराव रास्ते के नाम पर पीढ़ियों तक अमर हो गए. इस शहर में पठानों का चौक आज भी अफगानी काबुली वाले के किस्सों का गवाह बना हुआ है. यही नहीं, कुछ रास्ते तो जायकों को परोसने वालों के नाम से पहचाने जाते हैं.

वहीं, जयपुर की इसी विरासत का बखान करते हुए इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि जयपुर की बसावट एक कंपोजिट कल्चर को लेकर हुई, जिसमें सभी धर्म, सभी जातियां, सभी मान्यता के लोग रहे हैं. बसावट के पीछे भी यही उद्देश्य रहा कि यहां सभी तरह के लोग मौजूद हो, ताकि एक संपूर्ण नगर बन सके. सवाई जयसिंह के दिमाग में ये बात थी इसलिए पहले नक्शे बनवाए और फिर नक्शों के आधार पर गालियां और चौकड़िया बनाते हुए लोगों को बसाया गया. आज भी जयपुर में देखने को मिलेंगे कि जातियों के नाम पर मोहल्ले बने हुए हैं, लेकिन यहां राजा ने भी कभी भेदभाव नहीं किया. यहां मनिहारों का रास्ता भी मिलेगा, ठठेरों का रास्ता भी मिलेगा और लोहार का खुर्रा भी मिलेगा, जिसमें उसी कार्य को करने वाले लोग भी बसे हुए हैं और वहीं काम होता भी आया है.

इसे भी पढ़ें : ‘नेमप्लेट पर फंसी भाजपा? कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया, कहा, हार को पचा नहीं पा रही BJP - SC order against nameplate

उन्होंने बताया कि सवाई जय सिंह का जो विजन था उसमें उन्होंने अंदर अपना राज महल बनवाया और बाहर एक नगर इस तरह से बसाया की कभी ये भारत की राजधानी भी हो सकता है. जहां तक दुकानों के बाहर नाम का सवाल है तो ये कल्चर पहले प्रेसीडेंसी टाउन यानी कोलकाता, चेन्नई व दिल्ली में हुआ करता था. जब जयपुर का संपर्क इन शहरों के साथ बढ़ा तो ये कल्चर वहां से जयपुर में भी आया. लगभग 1940 के आसपास जयपुर में दुकानों पर नाम लिखना शुरू हो गया था. कुछ लोग अपने ब्रांड को लेकर भी आगे बढ़े. इसके पीछे भेदभाव वाली सोच नहीं थी.

जयपुर की इस विरासत और संस्कृति का हवाला देते हुए ही यहां के राजनेता भी दुकानों पर नाम लिखे जाने की पैरवी कर रहे हैं. हवामहल विधायक बालमुकुंद आचार्य ने कहा कि अपनी आइडेंटिटी छुपानी नहीं चाहिए. पूजा-पद्धति अलग हो सकती है. प्रार्थना का विधान अलग हो सकता है, लेकिन अपना नाम, अपनी जात और काम को छुपाने की आवश्यकता नहीं है. जो है वो लिखना चाहिए. उसमें आपत्ति क्या है. भारत में सौहार्द पूर्ण वातावरण है. यहां सभी को अपनी पूजा-पद्धति के साथ काम करने का पूरा अधिकार है और वैसे भी आजकल डिजिटल ट्रांजेक्शन करते हैं, तो नाम तो उसमें भी आ जाता है. उससे भी पता चल जाता है. इससे अच्छा है कि व्यापारी अपना नाम अपने व्यापार पर लिखकर रखे. जयपुर में तो सभी लोग एक दूसरे से व्यापार कर ही रहे हैं, इसमें गलत क्या है.

इसे भी पढ़ें : नेमप्लेट विवाद पर योगी सरकार को SC से झटका, कोर्ट ने कहा- अपनी नहीं, सिर्फ खाने की पहचान बताएं - kanwar yatra nameplate row

वहीं त्रिपोलिया बाजार व्यापार मंडल के अध्यक्ष राजेंद्र गुप्ता ने बताया कि जयपुर में काम के आधार पर ही रास्ते मोहल्ले और गालियां बांटे गए. यहां के बाजारों में दुकान के बाहर नाम लिखा हुआ है, जिसे जिस चीज की जरूरत होती है, वो जाकर के खरीद कर ले जाता है. उन्होंने बताया कि उनके बाजार में अल्पसंख्यकों की 65 दुकानें हैं. वो सभी भी उसी आनंद के साथ काम कर रहे हैं जैसे बाकी लोग कर रहे हैं. जयपुर में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक जैसा वातावरण नहीं है.

इसी तरह एमआई रोड व्यापार मंडल के महामंत्री सुरेश सैनी ने कहा कि जयपुर की अपनी संस्कृति रही है. यहां मुख्य बाजार का नाम भी मिर्ज़ा इस्माइल के नाम पर है और वो खुद जिस क्षेत्र में रह रहे हैं, उसका नाम बरकत नगर है. आज भी यदि ईद पर राजरतन पर अच्छी खरीदारी होती है, तो साल भर लोग ड्राई क्लीन के लिए नाज के पास भी पहुंचते हैं. यही नहीं, इन दुकानों पर आसिफ और कमल एक साथ काम करते हैं.

बहरहाल, जिस वक्त जयपुर को बसाया गया था, सवाई राजा जय सिंह ने इसे एकता के धागे में पिरोया था. वो धागा कभी टूटा नहीं. यही वजह है कि जयपुर के गली-मोहल्ले और बाजार कौमी एकता का संदेश देते हैं. यह सौहार्द आज भी बरकरार है.

Last Updated : Jul 25, 2024, 2:19 PM IST
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