सरगुजा : छत्तीसगढ़ की प्रमुख वाद्य यंत्रों में शुमार मांदर और घसिया बाजा से आपको परिचित कराने जा रहे हैं. इन दोनों वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल छत्तीसगढ़ी लोक गीतों, धार्मिक जस गीतों, लोक नृत्य के दौरान किया जाता है. इन वाद्य यंत्रों से छत्तीसगढ़ी लोक कला और संस्कृति की पहचान जुड़ी हुई है. बस्तर हो या सरगुजा, सभी आदिवासी समाज इन वाद्य यंत्रों का उपयोग करते हैं.
छत्तीसगढ़ वाद्य यंत्र "मांदर" : ढोलक या मृदंग के जैसे दिखने वाले छत्तीसगढ़ी वाद्य यंत्र मांदर की अपनी अलग पहचान है. यह ऐसा बाजा है जिसके बिना छत्तीसगढ़ी लोक गीत या आदिवासियों के लोक गीत पूरे ही नहीं होते हैं. इस वाद्य यंत्र की विशेषता यह है कि इसे मिट्टी और चमड़े से बनाया जाता है. ये अद्भुत कला ही है कि मिट्टी से बने वाद्य यंत्र को जोर जोर से पीटकर बजाया जाता है. साथ ही उसे लेकर बजाते हुए नृत्य किया जाता है, फिर मिट्टी का यह वाद्य यंत्र नहीं टूटता है.
"हर रोज बाजार में करीब 30 से 40 मांदर बिक जाता है. इसमें 50 फीसदी कमाई हो जाती है. लकड़ी का भी मांदर बनाया जाता है, वो करीब 6 से 7 हजार का बिकता है." - राजभान, मांदर कारीगर
5 से 6 हजार का बिकता है मंदार : मांदर का निर्माण करने वाले राजभान बताते हैं कि, "एक मंदार 5 से 6 हजार का बिकता है. इसे बनाने में करीब 8 दिन का समय लगता है. अभी सीजन नहीं है, तो नहीं बना रहे हैं. लेकिन सीजन को समय बाजार में इसकी अच्छी डिमांड होती है. मिट्टी का मांदर बनाने के लिये उसकी खोल मिट्टी की बनती है जो कुम्हार बनाते हैं. चर्मकार से चमड़ा खरीदकर, उसमे स्याही लगाकर, चमड़े की डोर से ही इसे बुना जाता है, बिलासपुर, कोरिया दूर दूर से मांदर खरीदने लोग घर आते हैं."
छत्तीसगढ़ वाद्य यंत्र "घसिया बाजा" : शादी विवाह और अन्य शुभ अवसरों पर सरगुजा में घसिया बाजा बजाया जाता है. मुख्य रूप से सरगुजा में घसिया जाती या घांसी समाज के लोग इस वाद्य यंत्र का निर्माण करते हैं. यही इनकी कमाई का मुख्य जरिया भी है. इसमें एक शहनाई नुमा वाद्य यन्त्र और दूसरा सींघ लगा ढोल होता है. इन दोनों वाद्य यंत्रों से संगीत बजाया जाता है, लेकिन अब यह कला विलुप्त होती जा रही है, शहरी करण में लोग डीजे का उपयोग करते है.
नई पीढ़ी का लोक कलाओं से हो रहा मोहभंग : इस काम में रुचि नहीं ले रही मांदर को बनाने व बजाने वाले ग्रामीण बताते हैं कि अब नई पीढ़ी इस काम में रुचि नहीं ले रही है. क्योंकी इस लोक कला को आगे बढ़ाने के लिए शासन से कोई प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है. नए बच्चे अपना करियर अलग फील्ड में बनाना चाहते हैं. ऐसे में चिंता इस बात की है कि कहीं आने वाले समय में ये कलाएं विलुप्त ना हो जाये.