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महाकुंभ स्नान के बाद काशी में क्यों शिवरात्रि मनाते हैं नागा? - MAHASHIVRATRI IN VARANASI

क्या है मान्यता और धार्मिक महत्व, जानिए बनारस की खास परंपरा के बारे में.

काशी में महाशिवरात्रि
काशी में महाशिवरात्रि (Photo Credit : ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Feb 24, 2025, 10:19 AM IST

वाराणसी : काशी में 26 फरवरी को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाएगा. जहां बाबा विश्वनाथ मां गौरा के साथ विवाह करेंगे. यूं तो महाशिवरात्रि का पर्व हर किसी के लिए बेहद खास होता है, लेकिन बात यदि शिव सम्प्रदाय से जुड़े भोले के भक्त नागा संन्यासियों की करें तो उनके लिए महाशिवरात्रि की पूजा और भी ज्यादा अद्भुत और खास मानी जाती है, जो नागा साधुओं के लिए जरूरी भी है.

मान्यता है कि बिना काशी में महाशिवरात्रि की पूजा स्नान के नागा साधुओं की कुंभ यात्रा पूरी नहीं होती है. बड़ी बात यह है कि शिवरात्रि पूजा में उन्हें किसी पूजन सामग्री की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि वो मां गंगा के तट पर अपने प्रवास के जरिए ही बाबा विश्वनाथ का ध्यान करते हैं और अपनी धूनी के जरिए समाधि लेकर न सिर्फ महाकुंभ के सफर को पूरा करते हैं, बल्कि महादेव से नई ऊर्जा लेते हैं.

काशी में धूनी रमाए नागा संन्यासी.
काशी में धूनी रमाए नागा संन्यासी. (Photo Credit : ETV Bharat)



इन दिनों महाकुंभ में शाही स्नान करने के बाद धर्म नगरी काशी में भोले के फौजी नागा संन्यासियों ने अपना डेरा डाल दिया है. हजारों की संख्या में नागा संन्यासी बनारस के हरिश्चंद्र घाट से लेकर मणिकर्णिका घाट पर अपना धूनी रमाये हुए हैं. ये नागा संन्यासी महाशिवरात्रि पर मां गंगा में स्नान कर बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद लेने के लिए जाएंगे. कहते हैं कि काशी में नागा संन्यासियों के लिए महाशिवरात्रि का पर्व उसकी पूजा बेहद खास और महत्वपूर्ण मानी जाती है. बड़ी बात यह है कि इस पूजा में कोई महत्वपूर्ण पूजन सामग्री फल फूल नहीं होती, बल्कि इसमें पूजन का स्थान गंगा का किनारा और सामग्री जलती हुई धूनी का भस्म होता है.

काशी में धूनी रमाए नागा संन्यासी.
काशी में धूनी रमाए नागा संन्यासी. (Photo Credit : ETV Bharat)



नागा साधुओं के लिए महापर्व होता है महाशिवरात्रि

वाराणसी के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य और बाबा विश्वनाथ के साधक पंडित पवन त्रिपाठी बताते हैं कि काशी में नागा संन्यासियों का आना और महाशिवरात्रि पर विशेष पूजन अर्चन करना इसके अलग-अलग महात्मा और कहानी है. बाबा विश्वनाथ को लेकर कहा जाता है कि मोर पगला भोला. संसार में जो अघोर है वह भगवान शिव के रूप है, भगवान शिव के भक्त हैं. महाकुंभ महज 125 किलोमीटर की दूरी पर है. ऐसे में जितने भी भगवान शिव के अनुरूप है वह जब सूर्य जब मकर राशि में होता है तो महाकुंभ में रहते हैं और जैसे ही सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश करता है महाशिवरात्रि का महापर्व शुरू हो जाता है. जितने भी शिव के अनुयायी, भक्त हैं वह अनायास ही अपने आराध्य की नगरी की ओर आना शुरू कर देते हैं और तब तक रहते नहीं है जब तक शिवरात्रि का दर्शन पूजन यहां नहीं कर लेते. इस पर्व के नजदीक होने के कारण वह स्वयं ही अपने आराध्य की ओर चले आते हैं.



काशी में आना अश्वमेध यज्ञ जितना फलदायक
पंडित पवन त्रिपाठी कहते हैं कि शिव के उपासक महाशिवरात्रि की विशेष पूजा के लिए काशी आते हैं, लेकिन उनके इस विशेष पूजा अर्चना की बात कर ली जाए तो काशी में उनका आगमन ही उनकी आराधना मानी है. काशी के बारे में पुराणों में लिखा गया है जो भी व्यक्ति काशी की तरफ चलने का विचार करता है और जैसे ही कदम कदम चलने लगता है एक-एक कम पर अश्वमेध यज्ञ का पुण्य बिना किसी पूजन के ही प्राप्त होने लगता है. ऐसे में नागा संन्यासियों का काशी में प्रवेश और वास करना ही उनकी आराधना है. प्रयाग के बाद बिना काशी आए नागा साधु की तपस्या पूरी नहीं होती है, यहां वो आकर गंगा तट पर अपनी धूनी रमा कर समाधि लेते हैं. जिसके बाद उनके महाकुंभ का सफर और महाशिवरात्रि की पूजा पूरी होती है. इसके बाद वह अपने अलग अलग स्थान की ओर रवाना होते हैं.



काशी में लेते हैं बाबा विश्वनाथ से नई ऊर्जा:
पंडित पवन त्रिपाठी के मुताबिक नागा संन्यासियों के काशी में रहने और यहां से जाने को लेकर के भी बाबा विश्वनाथ की इच्छा ही बताई जाती है. शास्त्रों में वर्णित है कि जो संन्यासी काशी में आते हैं वह महादेव की आज्ञा से आते हैं और जब वह यहां से जाने लगते हैं तो महादेव के जो गढ़ हैं रुद्र, वह थपोरी बजाकर उनके जाने का उपहास करते हैं. क्योंकि काशी से जाना अपने आप में उन पर से महादेव की आशीर्वाद को क्षीण करने जैसा माना जाता है.

दूसरे संदर्भ में देखे तो महाकुंभ से काशी आने की परंपरा आदि गुरु शंकराचार्य ने शुरू की थी. कहा जाता है कि महाकुंभ में तीन स्नान के बाद सभी नागा संन्यासी अपने सभी महात्मा को त्रिवेणी में समर्पित कर देते हैं. इसके बाद बाबा विश्वनाथ की धरा पर आकर के महाशिवरात्रि के दिन मां गंगा में स्नान कर अपने महाकुंभ के सफर को पूरा करते हैं. उसके बाद बाबा विश्वनाथ के दरबार में जाकर अपने आगे की जीवन और तप के लिए उनसे ऊर्जा लेते हैं. इस मौके पर जो नया नागा संन्यासी होते हैं वह बाबा विश्वनाथ से अपने नए नागा जीवन को आगे बढ़ाने के लिए प्रार्थना करते हैं. इस मौके पर वह बाबा विश्वनाथ के विवाह के साक्षी बनते हैं और उनकी बारात में स्वयं को अघोर बाराती के रूप में शामिल करते हैं.

यह भी पढ़ें : तस्वीरों से देखिए काशी में महाशिवरात्रि का उल्लास, महादेव की नगरी में बम-बम - Photo of Kashi Vishwanath Temple

यह भी पढ़ें : काशी में महाशिवरात्रि उत्सव की शुरुआत; भोलेनाथ को लगी हल्दी, ठंडई और पान का भोग, पारंपरिक गीतों से बाबा को रिझाया; VIDEO - काशी विश्वनाथ मंदिर महाशिवरात्रि

वाराणसी : काशी में 26 फरवरी को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाएगा. जहां बाबा विश्वनाथ मां गौरा के साथ विवाह करेंगे. यूं तो महाशिवरात्रि का पर्व हर किसी के लिए बेहद खास होता है, लेकिन बात यदि शिव सम्प्रदाय से जुड़े भोले के भक्त नागा संन्यासियों की करें तो उनके लिए महाशिवरात्रि की पूजा और भी ज्यादा अद्भुत और खास मानी जाती है, जो नागा साधुओं के लिए जरूरी भी है.

मान्यता है कि बिना काशी में महाशिवरात्रि की पूजा स्नान के नागा साधुओं की कुंभ यात्रा पूरी नहीं होती है. बड़ी बात यह है कि शिवरात्रि पूजा में उन्हें किसी पूजन सामग्री की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि वो मां गंगा के तट पर अपने प्रवास के जरिए ही बाबा विश्वनाथ का ध्यान करते हैं और अपनी धूनी के जरिए समाधि लेकर न सिर्फ महाकुंभ के सफर को पूरा करते हैं, बल्कि महादेव से नई ऊर्जा लेते हैं.

काशी में धूनी रमाए नागा संन्यासी.
काशी में धूनी रमाए नागा संन्यासी. (Photo Credit : ETV Bharat)



इन दिनों महाकुंभ में शाही स्नान करने के बाद धर्म नगरी काशी में भोले के फौजी नागा संन्यासियों ने अपना डेरा डाल दिया है. हजारों की संख्या में नागा संन्यासी बनारस के हरिश्चंद्र घाट से लेकर मणिकर्णिका घाट पर अपना धूनी रमाये हुए हैं. ये नागा संन्यासी महाशिवरात्रि पर मां गंगा में स्नान कर बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद लेने के लिए जाएंगे. कहते हैं कि काशी में नागा संन्यासियों के लिए महाशिवरात्रि का पर्व उसकी पूजा बेहद खास और महत्वपूर्ण मानी जाती है. बड़ी बात यह है कि इस पूजा में कोई महत्वपूर्ण पूजन सामग्री फल फूल नहीं होती, बल्कि इसमें पूजन का स्थान गंगा का किनारा और सामग्री जलती हुई धूनी का भस्म होता है.

काशी में धूनी रमाए नागा संन्यासी.
काशी में धूनी रमाए नागा संन्यासी. (Photo Credit : ETV Bharat)



नागा साधुओं के लिए महापर्व होता है महाशिवरात्रि

वाराणसी के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य और बाबा विश्वनाथ के साधक पंडित पवन त्रिपाठी बताते हैं कि काशी में नागा संन्यासियों का आना और महाशिवरात्रि पर विशेष पूजन अर्चन करना इसके अलग-अलग महात्मा और कहानी है. बाबा विश्वनाथ को लेकर कहा जाता है कि मोर पगला भोला. संसार में जो अघोर है वह भगवान शिव के रूप है, भगवान शिव के भक्त हैं. महाकुंभ महज 125 किलोमीटर की दूरी पर है. ऐसे में जितने भी भगवान शिव के अनुरूप है वह जब सूर्य जब मकर राशि में होता है तो महाकुंभ में रहते हैं और जैसे ही सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश करता है महाशिवरात्रि का महापर्व शुरू हो जाता है. जितने भी शिव के अनुयायी, भक्त हैं वह अनायास ही अपने आराध्य की नगरी की ओर आना शुरू कर देते हैं और तब तक रहते नहीं है जब तक शिवरात्रि का दर्शन पूजन यहां नहीं कर लेते. इस पर्व के नजदीक होने के कारण वह स्वयं ही अपने आराध्य की ओर चले आते हैं.



काशी में आना अश्वमेध यज्ञ जितना फलदायक
पंडित पवन त्रिपाठी कहते हैं कि शिव के उपासक महाशिवरात्रि की विशेष पूजा के लिए काशी आते हैं, लेकिन उनके इस विशेष पूजा अर्चना की बात कर ली जाए तो काशी में उनका आगमन ही उनकी आराधना मानी है. काशी के बारे में पुराणों में लिखा गया है जो भी व्यक्ति काशी की तरफ चलने का विचार करता है और जैसे ही कदम कदम चलने लगता है एक-एक कम पर अश्वमेध यज्ञ का पुण्य बिना किसी पूजन के ही प्राप्त होने लगता है. ऐसे में नागा संन्यासियों का काशी में प्रवेश और वास करना ही उनकी आराधना है. प्रयाग के बाद बिना काशी आए नागा साधु की तपस्या पूरी नहीं होती है, यहां वो आकर गंगा तट पर अपनी धूनी रमा कर समाधि लेते हैं. जिसके बाद उनके महाकुंभ का सफर और महाशिवरात्रि की पूजा पूरी होती है. इसके बाद वह अपने अलग अलग स्थान की ओर रवाना होते हैं.



काशी में लेते हैं बाबा विश्वनाथ से नई ऊर्जा:
पंडित पवन त्रिपाठी के मुताबिक नागा संन्यासियों के काशी में रहने और यहां से जाने को लेकर के भी बाबा विश्वनाथ की इच्छा ही बताई जाती है. शास्त्रों में वर्णित है कि जो संन्यासी काशी में आते हैं वह महादेव की आज्ञा से आते हैं और जब वह यहां से जाने लगते हैं तो महादेव के जो गढ़ हैं रुद्र, वह थपोरी बजाकर उनके जाने का उपहास करते हैं. क्योंकि काशी से जाना अपने आप में उन पर से महादेव की आशीर्वाद को क्षीण करने जैसा माना जाता है.

दूसरे संदर्भ में देखे तो महाकुंभ से काशी आने की परंपरा आदि गुरु शंकराचार्य ने शुरू की थी. कहा जाता है कि महाकुंभ में तीन स्नान के बाद सभी नागा संन्यासी अपने सभी महात्मा को त्रिवेणी में समर्पित कर देते हैं. इसके बाद बाबा विश्वनाथ की धरा पर आकर के महाशिवरात्रि के दिन मां गंगा में स्नान कर अपने महाकुंभ के सफर को पूरा करते हैं. उसके बाद बाबा विश्वनाथ के दरबार में जाकर अपने आगे की जीवन और तप के लिए उनसे ऊर्जा लेते हैं. इस मौके पर जो नया नागा संन्यासी होते हैं वह बाबा विश्वनाथ से अपने नए नागा जीवन को आगे बढ़ाने के लिए प्रार्थना करते हैं. इस मौके पर वह बाबा विश्वनाथ के विवाह के साक्षी बनते हैं और उनकी बारात में स्वयं को अघोर बाराती के रूप में शामिल करते हैं.

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