गोरखपुर : महाकुंभ और मकर संक्रांति दोनों का गहरा वैज्ञानिक और खगोलीय महत्व है. यह आकाशीय पिंडों की गतिविधियों और पृथ्वी पर उनके प्रभाव में निहित है. इन घटनाओं के पीछे का वैज्ञानिक आधार है. वीर बहादुर सिंह नक्षत्रशाला के खगोलविद अमर पाल सिंह ने 'मकर संक्रांति' की वैज्ञानिक व्याख्या की. बताया कि यह एक खगोलीय घटना है.
गोलार्धों में अलग-अलग होता है मौसम : खगोलविद अमर पाल सिंह ने बताया कि मकर संक्रांति के पीछे का विज्ञान यह है कि, पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूर्णन (चक्कर लगाना) के कारण हम दिन व रात का अनुभव करते हैं, लेकिन यह दिन और रात सम्पूर्ण पृथ्वी पर सब जगह एक जैसे नहीं होते हैं. जितनी सूर्य की किरणें पृथ्वी के जिस भाग पर पड़ रही होती हैं, उसी हिसाब से दिन तय होता है. जैसे पृथ्वी को 2 गोलार्धों में बांटा गया है. एक उत्तरी गोलार्ध और दूसरा दक्षिणी गोलार्ध. इनमें पृथ्वी पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें पृथ्वी पर दिन तय करती हैं. इसका अपने अक्ष पर 23.5 अंश झुके होने के कारण दोनों गोलार्धों में मौसम भी अलग-अलग होता है.
खगोलविद ने कहा कि अगर बात करें उत्तरायण और दक्षिणायन की तो हम पाते हैं कि यह एक खगोलीय घटना है. 14/15 जनवरी के बाद सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होता है, जिसमें सूर्य दक्षिणी गोलार्ध से उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश (दक्षिण से उत्तर की ओर गमन प्रतीत) करता है. इसे उत्तरायण या सूर्य उत्तर के नाम से भी जाना जाता है. वैज्ञानिकता के आधार पर इस घटना के पीछे का मुख्य कारण है पृथ्वी का छह महीनों के समय अवधि के उपरांत उत्तर से दक्षिण की ओर बलन करना, जोकि एक प्राकृतिक प्रक्रिया है. जो लोग उत्तरी गोलार्ध में रहते हैं उनके लिए सूर्य की इस राशि परिवर्तन के कारण 14/15 जनवरी का दिन मकर संक्रांति के तौर पर मनाते हैं.
टखगोलविद ने कहा कि उत्तरी गोलार्ध में निवास करने वाले व्यक्तियों द्वारा ही समय के साथ धीरे-धीरे मकर मंडल के आधार पर ही मकर संक्रांति की संज्ञा अस्तित्व में आई है. 'मकर संक्रांति का अर्थ है सूर्य का क्रांतिवृत्त के दक्षिणायनांत या उत्तरायनारंभ बिंदु पर पहुंचना'. प्राचीन काल से सूर्य मकर मंडल में प्रवेश करके जब क्रांतिवृत्त के सबसे दक्षिणी छोर से इस दक्षिणायनांत या उत्तरायनारंभ बिंदु पर पहुंचता था, तब वह दिन (21 या 22 दिसंबर) सबसे छोटा होता था. उन्होंने बताया कि मगर अब सूर्य जनवरी के मध्य में मकर मंडल में प्रवेश करता है, वजह यह है कि अयन चलन के कारण दक्षिणायनांत (या उत्तरायनारंभ) बिंदु अब पश्चिम की ओर के धनु मंडल में सरक गया है.
शीतकालीन संक्रांति के बाद होता है परिवर्तन : खगोलविद ने कहा कि अब वास्तविक मकर संक्रांति (दक्षिणायनांत या उत्तरायनारंभ बिंदु) का आकाश के मकर मंडल से कोई लेना देना नहीं रह गया है. उन्होंने बताया कि मकर संक्रांति सूर्य के मकर राशि में संक्रमण का प्रतीक होता है जो सूर्य की उत्तर की ओर यात्रा (उत्तरायण) का संकेत देता है. यह परिवर्तन शीतकालीन संक्रांति के बाद होता है जब उत्तरी गोलार्ध में दिन लंबे होने लगते हैं, जो गर्मी और नवीनीकरण की शुरुआत का भी प्रतीक है. उन्होंने बताया कि सूर्य के कर्क रेखा की ओर बढ़ने से उत्तरी गोलार्ध में सौर ऊर्जा बढ़ती है, जो जलवायु और कृषि चक्र को तो प्रभावित करती ही है और साथ-साथ यह संक्रमण जैविक लय को प्रभावित करता है. जोकि इस समय खासकर उत्तरी गोलार्ध में निवास करने वाले लोगों में कायाकल्प और जीवन शक्ति को प्रोत्साहित करता है, जैसे कि विटामिन डी का अवशोषण आदि.
खगोलविद ने कहा कि इस अवधि के दौरान, लोग पारंपरिक रूप से धूप सेंकते हैं या धूप में अधिक समय बिताते हैं, जिससे शरीर को अधिक विटामिन डी का उत्पादन करने में मदद मिलती है. जो हड्डियों के स्वास्थ्य और प्रतिरक्षा के लिए एक हद तक आवश्यक होता है. इसके साथ ही अगर हम बात करें संस्कारों में निहित वैज्ञानिक आधारों की तो हम पाते हैं कि, कुछ संस्कारों का वैज्ञानिक आधार भी प्राप्त होता है. खगोल विद ने बताया कि जैसे कि तिल और गुड़ का सेवन केवल सांस्कृतिक ही नहीं है, बल्कि ये खाद्य पदार्थ पोषक तत्वों से भी भरपूर होते हैं जो ठंड के महीनों के दौरान शरीर को गर्म और ऊर्जावान बनाए रखने में मदद करते हैं.
खगोलविद ने बताया कि महाकुंभ और इसमें निहित वैज्ञानिक आधारों को हम देखें तो हम पाते हैं कि यह अति प्राचीन एवं वृहद त्योहार भी खगोलीय संरेखण पर आधारित है. जैसा हम जानते हैं कि आज की अंतरराष्ट्रीय खगोल वैज्ञानिक संघ की ग्रहीय परिभाषा के अनुसार आज हमारे सौर मंडल में आठ ग्रह हैं. जिनका सूर्य से दूरी के क्रम में नाम निम्नानुसार है. आठ ग्रह बुद्ध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, अरुण और वरुण हैं. उनमें से सबसे बड़ा ग्रह है बृहस्पति, जिसे गुरु भी कहा जाता है. प्राचीन कालीन सभ्यताओं ने भी पांच ग्रहों को अपनी साधारण आंखों से ही पहचान लिया था. जिनमें से बृहस्पति भी एक था. आज के समय में भी अगर आप भी थोड़ा अधिक प्रयास करेंगे तो अलग अलग रात्रि के दौरान दिखाई देने वाले इन पांचों ग्रहों को विभिन्न समय पर आप भी पहचान सकते हैं. गुरुवार जोकि शुक्र ग्रह के बाद सबसे ज्यादा चमकीला पिंड है, यह मुख्य रूप से लगभग 75 प्रतिशत हाइड्रोजन और 24 प्रतिशत हीलियम और अन्य से बना हुआ है.
1610 में हुई थी 4 बड़े चंद्रमाओं की खोज : खगोलविद ने बताया कि दूरबीन से देखने पर इस पर बाहरी वातावरण में दृश्य पट्टियां भी दिखाई देती हैं और एक लाल धब्बा भी है, जिसे ग्रेट रेड स्पॉट कहा जाता है, जिसे गैलीलियो ने 17वीं सदी में अपनी दूरबीन से देखा था. सर्व प्रथम 1610 में गैलीलियो गैलिली ने इसके चार बड़े चंद्रमाओं को भी खोजा था. जिनके नाम हैं गैनिमेड, यूरोपा, आयो, कैलिस्टो. अगर हम बृहस्पति ग्रह की तुलना अपनी पृथ्वी से करें तो हम पाते हैं कि इसमें लगभग 1331 पृथ्वी समा सकती हैं, और इसका चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी की तुलना में 14 गुना ज्यादा शक्तिशाली है. यह सूर्य से लगभग 77 करोड़ 80 लाख किलोमीटर दूरहै और सूर्य का एक चक्कर लगाने में 11.86 वर्ष का समय लगता है जोकि लगभग 12 बर्ष के बराबर होता है. बृहस्पति का अक्षीय झुकाव केवल 3.13 डिग्री है. जिस कारण इस पर कोई मौसम परिवर्तन नहीं होता है. यह बहुत तेज़ गति से घूर्णन करता है. अपने अक्ष पर 09 घंटा 56 मिनट्स में एक बार घूमता है, इसका मतलब होता है कि इसका दिन लगभग 10 घंटे का ही होता है.
खगोलविद ने बताया कि इसे आधुनिक खगोल विज्ञान में वैक्यूम क्लीनर भी कहा जाता है, जोकि पृथ्वी पर आने वाले धूमकेतुओं से भी बचाता है. बृहस्पति ग्रह जिसे गुरु भी कहा जाता है का हमारे देश में एक विशेष स्थान है क्योंकि भारत में कुम्भ मेला आयोजित होता है. कुम्भ का शाब्दिक अर्थ होता है कलश. और कलश का मतलब होता है घड़ा, सुराही या पानी रखने वाला बर्तन. और मेला का मतलब होता है कि जहां पर मिलन होता है. इस मेला के दौरान शिक्षा, प्रवचन, सामूहिक सभाएं, मनोरंजन और यह सामुदायिक वाणिज्यिक उत्सव भी हैं, बड़ी बात यह है कि यह त्यौहार दुनिया की सबसे बड़ी सभा माना जाता है. इस उत्सव को यूनेस्को की मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में शामिल किया गया है. खगोलीय गणनाओं के हिसाब से यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारंभ होता है और जब एक खास खगोलीय संयोजन घटित होता है तभी यह मेला घटित होता है.
अगली बार 2157 में लगेगा महाकुंभ मेला : खगोलविद ने बताया कि महाकुंभ तब आयोजित होता है जब सूर्य मकर राशि में, चंद्रमा मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में होता है. इस बार वर्ष 2025 में प्रयागराज में पूर्ण कुम्भ मेला आयोजित किया जा रहा है. महाकुम्भ मेला प्रयागराज में प्रत्येक 144 वर्ष अर्थात 12 पूर्ण कुम्भ मेलों के बाद आयोजित होता है. उन्होंने बताया कि महाकुम्भ मेला अगली बार 2157 में लगेगा, जब गुरु कुम्भ राशि में, सूर्य मेष राशि में और चन्द्रमा धनु राशि में होता है तब कुम्भ मेला हरिद्वार में लगता है. जब गुरु वृषभ राशि में सूर्य, चन्द्रमा मकर राशि में होते हैं तब प्रयागराज में कुम्भ मेला आयोजित होता है. जब गुरु सिंह राशि में सूर्य, चन्द्रमा कर्क राशि में होते हैं तो नासिक में कुम्भ मेला आयोजित होता है और जब गुरु सिंह राशि में सूर्य, चन्द्रमा मेष राशि में होते हैं तो कुम्भ मेला उज्जैन में आयोजित होता है. जब गुरु सिंह राशि में होते हैं तो त्र्यंबकेश्वर नासिक और उज्जैन में आयोजित होता है, जिसे सिंहस्थ कुंभ मेला भी कहा जाता है.
खगोलविद ने बताया कि निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि दोनों घटनाएं, मकर संक्रांति और महाकुंभ, महत्वपूर्ण खगोलीय गतिविधियों के साथ संरेखित होती हैं जो मौसमी परिवर्तनों, मानव शरीर विज्ञान और पर्यावरण को प्रभावित करती हैं, जोकि हमारे पूर्वजों के विशिष्ट प्राचीन ज्ञान को भी दर्शाते हैं जो खगोलीय ज्ञान को स्वास्थ्य और कल्याण को बढ़ावा देने वाली प्रथाओं के साथ एकीकृत भी करता है.
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