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चांदी का वर्क बनाने वाले कारीगरों का दर्द, बोले- मशीनों का चलन बढ़ा, इस पेशे से परिवार पालना मुश्किल

Silver Work artisans Problem : लखनऊ के चौक-मुफ्तीगंज में कारीगर हाथ से बनाते हैं चांदी का वर्क. अब गिनती की रह गईं दुकानें.

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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : 4 hours ago

कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का संकट.
कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का संकट. (Photo Credit; ETV Bharat)

लखनऊ : एक दौर में लखनऊ के चौक और मुफ्तीगंज की गलियों में चांदी के वर्क बनाने का काम तेजी से होता था, अब यहां गिनती के ही कारखाने रह गए हैं. कुछ ही कारीगर यहां दिन-रात मेहनत करके चांदी का वर्क तैयार करते हैं. यह पेशा कभी लखनऊ की शान हुआ करता था. अब मशीनों के बढ़ते इस्तेमाल ने इसका चलन खत्म होता जा रहा है. कारीगरों को मेहनताना कम मिलने से परिवार का खर्च निकालना भी मुश्किल होता जा रहा है.

कारीगरों ने बताई अपनी परेशानी. (Video Credit; ETV Bharat)

देश के कई बड़े शहरों में चांदी के वर्क बनाने का काम किया जाता है. इनमें हैदराबाद, बेंगलुरु, मुंबई, दिल्ली, बनारस और लखनऊ शामिल है. इतिहासकारों के अनुसार यह कारोबार 400 साल पुराना है. चांदी का वर्क बनाने का काम बेहद कठिन होता है. कारीगर मोहम्मद सिद्दीकी पिछले 50 वर्षों से इस पेशे में हैं. वह बताते हैं कि वर्क को तैयार करने के लिए 160 टुकड़े चांदी के जर्मन कागज में रखकर तीन घंटे हथौड़ी से कूटा जाता है. इस कठिन परिश्रम के बाद उन्हें मात्र 150 रुपये की मजदूरी मिलती है. सिद्दीकी कहते हैं कि मशीन से बने वर्क की मांग अधिक है, लेकिन उसमें केमिकल होते हैं. वे सेहत के लिए हानिकारक हो सकते हैं.

लखनऊ में बनाया जाता है चांदी का वर्क.
लखनऊ में बनाया जाता है चांदी का वर्क. (Photo Credit; ETV Bharat)

मशीनों से बने सस्ते और तेजी से तैयार होने वाले वर्क ने परंपरागत कारीगरों को भारी नुकसान पहुंचाया है. एक समय लखनऊ में करीब 1500 कारीगर इस पेशे से जुड़े थे, लेकिन आज केवल 24 कारीगर ही बचे हैं. जुल्फिकार पिछले 40 सालों से चांदी का वर्क बना रहे हैं. वह बताते हैं कि पहले इस पेशे से अच्छे पैसे मिलते थे, लेकिन अब उन्हें दिन भर की मेहनत के बाद केवल 200 रुपये मिलते हैं. उनके बाद इस पेशे में आने वाले उनके परिवार का कोई नहीं होगा. मिठाई दुकानों पर भी अब ज्यादातर मशीन से बने वर्क का इस्तेमाल हो रहा है.

अब विलुप्त होने के कगार पर है ये कला.
अब विलुप्त होने के कगार पर है ये कला. (Photo Credit; ETV Bharat)

लखनऊ के सिल्वर वर्क यानी चांदी के वर्क के बारे में कहा जाता है कि हकीम लुकमान ने सबसे पहले दवाओं और माजून में चांदी के वर्क का इस्तेमाल किया था. तभी से यह परंपरा शुरू हुई और बाद में लखनऊ के नवाबों ने इसे अपने खान-पान का हिस्सा बना लिया. नवाब वाजिद अली शाह ने इसे अपनी विशेष खुराक में शामिल कर लिया. वर्तमान समय में मिठाइयों, पान और यूनानी दवाओं में चांदी का वर्क खूब इस्तेमाल होता है.

मिठाई दुकानदार कैलाश राज पुरोहित बताते हैं, "हाथ से बने वर्क को चमड़े में रखकर पीटा जाता है, इसलिए उसे शुद्ध शाकाहारी नहीं माना जाता, जबकि मशीन से बने वर्क को ज्यादा सुरक्षित और शुद्ध माना जाता है. हालांकि अभी भी काफी लोग सेहत के लिहाज से हाथ से बने वर्क को ही अच्छा मानते हैं. इस समय परंपरागत कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का संकट है. वे सरकार की ओर मदद के लिए आशा भरी निगाह से देख रहे हैं.

यह भी पढ़ें : धीमी पड़ती जा रही चांदी वर्क बनाने वाले औजारों की आवाजें

लखनऊ : एक दौर में लखनऊ के चौक और मुफ्तीगंज की गलियों में चांदी के वर्क बनाने का काम तेजी से होता था, अब यहां गिनती के ही कारखाने रह गए हैं. कुछ ही कारीगर यहां दिन-रात मेहनत करके चांदी का वर्क तैयार करते हैं. यह पेशा कभी लखनऊ की शान हुआ करता था. अब मशीनों के बढ़ते इस्तेमाल ने इसका चलन खत्म होता जा रहा है. कारीगरों को मेहनताना कम मिलने से परिवार का खर्च निकालना भी मुश्किल होता जा रहा है.

कारीगरों ने बताई अपनी परेशानी. (Video Credit; ETV Bharat)

देश के कई बड़े शहरों में चांदी के वर्क बनाने का काम किया जाता है. इनमें हैदराबाद, बेंगलुरु, मुंबई, दिल्ली, बनारस और लखनऊ शामिल है. इतिहासकारों के अनुसार यह कारोबार 400 साल पुराना है. चांदी का वर्क बनाने का काम बेहद कठिन होता है. कारीगर मोहम्मद सिद्दीकी पिछले 50 वर्षों से इस पेशे में हैं. वह बताते हैं कि वर्क को तैयार करने के लिए 160 टुकड़े चांदी के जर्मन कागज में रखकर तीन घंटे हथौड़ी से कूटा जाता है. इस कठिन परिश्रम के बाद उन्हें मात्र 150 रुपये की मजदूरी मिलती है. सिद्दीकी कहते हैं कि मशीन से बने वर्क की मांग अधिक है, लेकिन उसमें केमिकल होते हैं. वे सेहत के लिए हानिकारक हो सकते हैं.

लखनऊ में बनाया जाता है चांदी का वर्क.
लखनऊ में बनाया जाता है चांदी का वर्क. (Photo Credit; ETV Bharat)

मशीनों से बने सस्ते और तेजी से तैयार होने वाले वर्क ने परंपरागत कारीगरों को भारी नुकसान पहुंचाया है. एक समय लखनऊ में करीब 1500 कारीगर इस पेशे से जुड़े थे, लेकिन आज केवल 24 कारीगर ही बचे हैं. जुल्फिकार पिछले 40 सालों से चांदी का वर्क बना रहे हैं. वह बताते हैं कि पहले इस पेशे से अच्छे पैसे मिलते थे, लेकिन अब उन्हें दिन भर की मेहनत के बाद केवल 200 रुपये मिलते हैं. उनके बाद इस पेशे में आने वाले उनके परिवार का कोई नहीं होगा. मिठाई दुकानों पर भी अब ज्यादातर मशीन से बने वर्क का इस्तेमाल हो रहा है.

अब विलुप्त होने के कगार पर है ये कला.
अब विलुप्त होने के कगार पर है ये कला. (Photo Credit; ETV Bharat)

लखनऊ के सिल्वर वर्क यानी चांदी के वर्क के बारे में कहा जाता है कि हकीम लुकमान ने सबसे पहले दवाओं और माजून में चांदी के वर्क का इस्तेमाल किया था. तभी से यह परंपरा शुरू हुई और बाद में लखनऊ के नवाबों ने इसे अपने खान-पान का हिस्सा बना लिया. नवाब वाजिद अली शाह ने इसे अपनी विशेष खुराक में शामिल कर लिया. वर्तमान समय में मिठाइयों, पान और यूनानी दवाओं में चांदी का वर्क खूब इस्तेमाल होता है.

मिठाई दुकानदार कैलाश राज पुरोहित बताते हैं, "हाथ से बने वर्क को चमड़े में रखकर पीटा जाता है, इसलिए उसे शुद्ध शाकाहारी नहीं माना जाता, जबकि मशीन से बने वर्क को ज्यादा सुरक्षित और शुद्ध माना जाता है. हालांकि अभी भी काफी लोग सेहत के लिहाज से हाथ से बने वर्क को ही अच्छा मानते हैं. इस समय परंपरागत कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का संकट है. वे सरकार की ओर मदद के लिए आशा भरी निगाह से देख रहे हैं.

यह भी पढ़ें : धीमी पड़ती जा रही चांदी वर्क बनाने वाले औजारों की आवाजें

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