फरीदाबाद: "बहरूपिया" ये शब्द सुन आपके दिमाग में भी कई तरह की तस्वीरें उभर रही होगी. इस शब्द का अर्थ है, एक व्यक्ति जो अलग-अलग रूप में आकर उस रूप के किरदार को निभाए. पहले के जमाने में मनोरंजन का कोई साधन नहीं होता था. राजा-महाराजाओं के दरबार में बहुरूपिया अलग-अलग वेश धारण कर, अलग-अलग किरदार निभा कर राजा-महाराजाओं का मनोरंजन किया करते थे.
लुप्त हो रही कला: समय के साथ-साथ बदलाव हुआ और बहुरूपिया आम लोगों के बीच पहुंचा. गांव-गांव जाकर लोगों का मनोरंजन करना लगा. हालांकि आधुनिकता के इस दौर में बच्चे तो छोड़िए कई बड़ों को भी ये नहीं पता है कि बहुरूपिया होता क्या है? बहुरूपिया शब्द का अर्थ क्या है? ऐसे में ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि बहुरूपिया कला धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर पहुंच गया है.
सूरजकुंड मेले में बहुरूपिया: हालांकि जिनके दादा-परदादा बहुरूपिया का काम किया करते थे, वो आज भी इस कोशिश में हैं कि उनकी ये कला जीवंत रहे. ऐसे कुछ कलाकार राजस्थान से फरीदाबाद के सूरजकुंड मेले में भी पहुंचे हैं. ये कलाकार मेले में अलग-अलग वेश में हर दिन लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं. साथ ही लोगों को इस कला के बारे में बता रहे हैं. इन बहुरूपियों के साथ कुछ तो सेल्फी ले रहे हैं. तो कुछ उनके किरदार को सच मान ले रहे हैं.
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मेले में लोगों को कर रहे एंटरटेन: सूरजकुंड मेले में आए बहुरूपिए में कोई अलादीन का चिराग बना है, तो कोई डाकू मंगल सिंह, कोई शिकारी तो कोई फिल्म जानी दुश्मन का भूत बना मेले में घूम रहा है. ये कलाकार मेले में हर दिन अलग-अलग वेश में आते हैं और लोगों के एंटरटेन करते हैं.
राजा रजवाड़ों के समय थी कला प्रचलित: ईटीवी भारत के संवाददाता इन बहुरूपियों के बीच पहुंचे और इनसे बातचीत करने की कोशिश की. बातचीत के दौरान अलादीन के जिन्न बने बहरूपिया अकरम ने कहा, "हम राजस्थान के दौसा जिले से आए हुए हैं. पिछले कई सालों से हम इस तरह के मेले में आकर लोगों का मनोरंजन करते हैं. ये बहरूपिया कला हमारी प्राचीन कला है. राजा रजवाड़े के समय में यह कला अधिक प्रचलित थी. जब राजस्थान में राजाओं के पास मनोरंजन के लिए कोई साधन नहीं हुआ करता था, उस समय उनके दरबार में हमारे पूर्वज अलग-अलग वेशभूषा बनाकर राजाओं का मनोरंजन किया करते थे."
पहले नहीं होता था मनोरंजन का साधन: अकरम ने आगे कहा, "पहले के समय में न तो टीवी था, ना फिल्में थी. ना कोई अन्य मनोरंजन का साधन था. हालांकि अब मनोरंजन के कई साधन आ चुके हैं. ऐसे में हमारी बहुरूपिया कला कहीं न कहीं लुप्त होती जा रही है. हालांकि मैं और मेरा परिवार आज भी इसी कला पर निर्भर हैं. ऐसे मेलों में तो ठीक-ठाक समय बीत जाता है. हालांकि जब कोई काम नहीं होता है, उस समय अधिक परेशानी होती है. ऐसे ही मेलों में हम जाते हैं. काम न हो तो अलग-अलग गांव में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं."
परिवार तो चल जाता है पर अन्य शौक नहीं होते हैं पूरे: अकरम ने आगे बताया, "इसी कला से हमारा परिवार चलता है, लेकिन जो हमारे अन्य शौक हैं, वह पूरे नहीं हो पा रहे हैं. क्योंकि हमने शुरू से ही ये काम ही किया है. ऐसे में अब उम्र के इस पड़ाव में कोई और काम हम सोच नहीं सकते. हम 6 भाई हैं. हम सभी भाई बहरूपिया बनते हैं. इस मेले में भी हम सभी भाई लोंगो का मनोरंजन कर रहे हैं. लेकिन अब इस काम से ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है. साल में 4 महीने ही हमें काम मिल पाता है, बाकी दिन हमें घर पर बैठना पड़ता है. यही वजह है कि मुझे लगता है कि हम लास्ट पीढ़ी हैं, जो बहरूपिया बनकर लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं."
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इस कला से घर चलाना काफी मुश्किल: ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान अकरम ने कहा, "हमारे बच्चे इस काम को नहीं करना चाहते हैं. वह हमें भी कहते हैं कि आप भी इस काम को मत करो, लेकिन ये हमारा पुश्तैनी काम है और हम ये कला हम जीवंत रखना चाहते हैं. अगर सरकार हमारी इस कला के लिए हमें सपोर्ट करती है तो मैं जरूर इस काम को अपने बच्चों के साथ-साथ दूसरे लोगों को सिखाऊंगा.वरना इस क्षेत्र में बच्चों को नहीं आने दूंगा. क्योंकि बढ़ती महंगाई में इस कला से जीवन बसर करना काफी मुश्किल हो जाता है."
हर दिन तैयार होने में लगता है खर्च: अकरम ने अपने कॉस्टयूम और मेकअप को लेकर कहा कि, "हमें हर दिन अलग-अलग वेश धारण करना पड़ता है. अपने कॉस्ट्यूम और मेकअप में हमारा काफी खर्चा आता है. एक दिन के मेकअप में 300 से 500 रुपए का खर्च आता है. इसके अलावा कॉस्टयूम और अन्य तरह के भी खर्चे हैं. काफी मुश्किल हो जाता है कभी-कभी."
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सरकार से अपील: अकरम ने आगे कहा, " हमारी सरकार से अपील है कि हमारी कला को जीवित रखने में हमारी मदद करे. अगर सरकार हमारी मदद करेगी तो हम भी इस कला को आगे की पीढ़ी को बताएंगे. वरना हमारे साथ ही ये कला भी खत्म हो जाएगी."
मेले में दिखा जानी दुश्मन का भूत: वहीं, बहरूपिया छितर ने कहा, "आज मैं पुरानी फिल्म जानी दुश्मन का भूत बना हुआ हूं और लोगों का मनोरंजन कर रहा हूं. अच्छा लग रहा है सूरजकुंड मेले में आकर. लोग हमारे साथ फोटो खिंचवा रहे हैं. साथ ही हमारी बहरूपिया कला को जानने की कोशिश कर रहे हैं."
भील बनकर आए बहुरूपिया सोनू: वहीं, मेले में आदिवासी बनकर आए बहरूपिया सोनू ने बताया, "सूरजकुंड मेले में आकर अच्छा लग रहा है. यहां पर हमारी कला को लोग पसंद कर रहे हैं. यही वजह है कि लोगों का मनोरंजन हो रहा है. मैं इस मेले में पहली बार आया हूं. आज मैं भील बना हुआ हूं."
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मेले में दिखे चंद्रकांता: इसके साथ ही मेले में बहुरूपिया यक्रू महाराज चंद्रकांता बनकर आए हैं. उन्होंने कहा, "हम सभी भाई राजस्थान से आए हुए हैं. मैं कई सालों से मेले में आता रहा हूं. मेले में लोग हमारी बहरूपिया कला को लोग पसंद कर रहे हैं. इसी पेशे से हमारा परिवार चलता है."
मेले में लोगों को पसंद आया बहुरूपिया: सूरजकुंड मेला घूमने आए संदीप ने कहा,"यह कलाकार बड़ी मेहनत के साथ लोगों का मनोरंजन करते हैं. आजकल की पीढ़ी इस कला के बारे में नहीं जानती है. बच्चे फोन, टीवी, गेम में बिजी रहते हैं, लेकिन असल में बहरूपिया ही असली कलाकार हैं, जो अलग-अलग कैरेक्टर में लोगों का मनोरंजन करते हैं." इसके अलावा दिल्ली से आई पूनिया चोपड़ा ने कहा, "सूरजकुंड मेले का बहुत नाम सुना था और इसीलिए मैं अपने दोस्तों के साथ इस मेले में घूमने के लिए आई हूं, हमने पढ़ा था कि बहरूपिया होते हैं. पुराने जमाने में राजा महाराजा के दरबार में मनोरंजन करते थे, लेकिन आज मैंने इन्हें मेला में देखा तो मैं भी इनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए आ गई."
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जानिए क्या है बहरूपिया कला: बहरूपिया कला मूल रूप से भारत, नेपाल, और बांग्लादेश की पारंपरिक कलाओं में से एक है. यह स्वांग रचने की कला है. इस कला में एक ही कलाकार कई पात्रों का हूबहू स्वांग करता है. बहरूपिया कलाकार अवतार पात्र के मुताबिक अपना रूप बदलते हैं. अपने रूप के अनुरूप को अभिनय करते हैं. खास बात तो यह है कि बहरूपिया कलाकार सीमित साधनों का इस्तेमाल करके अपने पात्र के अनुकूल वेश बनाते हैं और वैसी ही बोली बोलते हैं.
बता दें कि ये बहुरूपिया हर साल मेले में आकर लोगों का मनोरंजन करते हैं. साथ ही लोगों की इस कला के बारे में बताते हैं. इन बहुरूपियों ने सरकार से अपील की है कि वे इनकी मदद करें. साथ ही कला को आगे बढ़ाने का प्रयास करें. इससे ये कला लुप्त नहीं होगी. वरना लोगों को पता भी नहीं चलेगा कि ये कला आखिरकार होती क्या है?
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